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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [195]
इस गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । यह गुणस्थानक पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय कर्मभूमिज मनुष्य एवं तिर्यंच जो कि आर्य खंड (देश) में जन्मे हुए हैं उनको ही प्राप्त होता है। उसमें भी जिसने इस गुणस्थानक को प्राप्त करने से पहले देवायु के अलावा अन्य गति के आयुः का बंध न किया हो वे ही देशविरत गुणस्थान को प्राप्त होते हैं।
सम्यग्दृष्टि देशविरत तिर्यंच आयु पूर्णकर आठवें एवं मनुष्य 12 वें देवलोक तक के देवलोक में जन्म लेते हैं। 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान:
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने 'प्रमत संयत' का परिचय देते हुए लिखा है - "प्रमाद्यन्तिस्म संयमयोगेषु सीदन्तिस्म,..... किञ्चित् प्रमादवति सर्वविरते, षष्ठगुणस्थानवति," अर्थात् जो जीव चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्त करके मोह के बादलों को बिखेर देता है और सम्यक्त्व के प्रकाश में आगे बढ़ता है तब देशविरत गुणस्थान प्राप्त करने के पश्चात् या चतुर्थ गुणस्थान से सीधा ही पंच महाव्रतों के स्वीकारपूर्वक संयम ग्रहण करके सीधे छठे गुणस्थानक को प्राप्त कर सकता है। इस गुणस्थान में रहा हुआ जीव सर्वविरति का पालन करता है; पर प्रमाद के कारण उसके पुरुषार्थ में कुछ कभी रह जाती है, फिर भी संयम में दृढ रहता है। इस कारण से इस जीव को 'प्रमतसंयत' और उनके गुणस्थान को 'प्रमत्तसंयत गुणस्थान' कहते हैं । इनके गुणों की विशुद्धि देशविरत गुणस्थान की अपेक्षा से प्रकर्षमान एवं अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा से अपकर्षमय होती है।
यह एवं इससे आगेवाले गुणस्थान कर्मभूमियों में रहने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्यों को आठ वर्ष की उम्र होने पर ही प्राप्त होता है । इस गुणस्थान का काल एक जीव की अपेक्षा से जघन्य एक समय एवं प्रमत्ताप्रमत की अपेक्षा से उत्कृष्ट रुप से देशोनपूर्वक्रोड वर्ष का है एवं केवल प्रमत की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त का है। 7. अप्रमतसंयत गुणस्थान:
अप्रमत संयत गुणस्थान की व्याख्या करते हुए आचार्यश्री ने राजेन्द्र कोश में लिखा है -"--1न प्रमत्तोऽप्रमतः, नास्ति वा प्रमत्तमस्याऽसावप्रमत्तः सचासौ संयतश्चाप्रमत्तसंयतः । सर्वप्रमादरहिते सप्तमगुणस्थानकवर्तिनि अर्थात् सर्वप्रमाद रहितं संयमी आत्मा याने साधु (मुनि) को अप्रमत्तसंयत और भावविशुद्धि के अनुसार उसके गुणस्थान-विशेष को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं।
गोम्मटसार में कहा है कि "सम्यग्दर्शनपूर्वक सकल संयम की विद्यमानता में संज्वलन तथा नोकषाय कर्म के मन्द उदय के समय प्रमादरहित होनेवाली वीतराग दशा को अप्रमत्त संयत गुणस्थान कहते हैं। "
यह गुणस्थान प्रायः जिनकल्पी, परिहार विशुद्धि चारित्रवाले, एवं प्रतिमाधारी साधु को होता है। छठे गुणस्थान में रहा हुआ जीव अपने आत्म गुणों का विकास करता है। वह अज्ञान, निद्रा, विकथा आदि अथवा मद्य, विषय, कषाय, विकथा आदि प्रमाद को दूर करने का प्रयत्न करता है तब अप्रमत्त अवस्था में जीव इस सातवें अप्रमत्त संयम गुणस्थान को प्राप्त करता है।
अप्रमत्त दो प्रकार के हैं - (1) कषाय अप्रमत और (2) योग अप्रमत्त । कषाय अप्रमत्त भी दो प्रकार के हैं - (1) क्षीण कषाय (2) निग्रहपरक । इनकी स्थिति बताते हुए लिखा है - योग अप्रमत्त आत्मा मन-वचन-काय के योगों से गुप्त रहता है अर्थात् अकुशल मन आदि का निरोध करके कुशल मन आदि का उदीरणापूर्वक एकीभाव करते हैं। क्षीणकषाय आत्मा क्रोधादि का निरोध करती है। उदय में आये हुए को निष्फल करते हैं।
इस गुणस्थान में सामान्य जीव केवल अंतर्मुहूर्त तक ही रहता है। इसका जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सामान्य जीव की अपेक्षा से अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सयोगकेवली की अपेक्षा से देशोनपूर्वकोटि वर्ष है75 | सामान्य जीव छटे और सातवें गुणस्थान के बीच झूलता रहता है। इस पंचम काल में भरतक्षेत्र में जीव के छठा-सातवाँ गुणस्थान ही हो सकता है। इसके आगे के गुणस्थान चतुर्थ काल में ही संभव है। 8. अपूर्वकरण गुणस्थान:
जिस गुणस्थान में पहले कभी नहीं हुई एसी क्रिया को अपूर्वकरण कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - आठवें गुणस्थानवर्ती जीवों के अध्यवसायों की शुद्धि पूर्व के गुणस्थानों की अपेक्षा अधिक होने से इस गुणस्थान में स्थितिघात, रसघात आदि का पूर्व की अपेक्षा अपूर्वविधान होने के कारण इस गुणस्थान को 'अपूर्वकरण गुणस्थान' कहते हैं।।
इस गुणस्थानकवर्ती त्रैकालिक अनंत जीवों के अध्यवसाय स्थानों की संख्या लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों के बराबर है परन्तु इनकी विशेषता यह है कि इस गुणस्थानक में समान समयवर्ती
63. अ.रा.पृ. 3/915 64. कर्मग्रंथ 2/6 पर विवेचन (महेसाणा प्रकाशन) 65. अ.रा.पृ. 4/2632, द्रव्यलोकप्रकाश 3/1163-64 66. अ.रा.पृ. 3/442, गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 32 की टीका; बृहद् द्रव्यसंग्रह,
गाथा 13, पृ. 82 67. अ.रा.पृ. 3/443, द्रव्यलोकप्रकाश, 3/1164, 65 68. स च संयममष्टासु वर्षेषु गतेष्वेव लभते ।-अ.रा.पृ. 3/442 69. "....महान्ति चाप्रमत्तान्तर्मुहूततापेपिक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्तानि कल्प्यन्ते ।
एवं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्रमताद्धानां सर्वासां मीलनेन देशोनपूर्वकोटी
यावदुत्कर्षतः प्रमत्तसंयतता स्यादिति ।" - अ.रा.पृ. 3/442 70. अ.रा.पृ. 1/597 71. द्रव्यलोकप्रकाश 3/1166 72. गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 45 व टीका 73. (क)....अज्ञाननिद्राविकथादिषष्ठप्रमादरहिते.....ते च प्रायो जिनकल्पिक
परिहार-विशुद्धिक-यथालन्दकल्पिक-प्रतिमाप्रतिपन्नां, तेषां
सततोपयोगसम्भवात् । अ.रा.पृ. 1/597, (ख) द्रव्यलोकप्रकाश 3/1166 74. अ.रा.पृ. 1/597 75. अ.रा.पृ. 1/597; जिनागमसार, पृ. 184 76. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता, पृ. 40 77. (क) । तत्र च प्रथम समय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः,
अन्यश्च स्थितिबन्धः, इत्येते पञ्चाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्तां प्रवर्तन्ते इत्यपूर्वकरणम् । अ.रा.पृ. 3/611
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