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[196]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अनेक जीवों के अध्यवसाय यद्यपि आपस में पृथक्-पृथक् (न्यूनाधिक की अनिवृत्ति के कारण इस गुणस्थान का पूरा नाम अनिवृत्ति बादर शुद्धिवाले) होते हैं; तथापि सम-समयवर्ती बहुत से जीवों के अध्यवसाय संपराय गुणस्थान' है। तुल्य शुद्धिवाले होने से इस गुणस्थान को 'निवृत्ति' गुणस्थान भी
कषायों की न्यूनता के कारण विशुद्धिवाले इस गुणस्थान कहते हैं।
में होनेवाले परिणामों के द्वारा आयु:कर्म के सिवाय शेष सात कर्मो जो जीव संयम के घातक प्रत्याख्यानवरण कषाय का उदय की गुणश्रेणिनिर्जरा, गुण संक्रमण, स्थिति, भाग और अनुभाव खंडन न रहने से तीन करण करता है; वह अपूर्वकरण नामक गुणस्थान होता है। इसके अंतिम समय में पहुंचने पर कर्मो का जघन्य स्थितिबंध में आता है। उपशम और क्षपक इन दोनों श्रेणियों का प्रारंभ यद्यपि ___होने लगता है एवं सत्ता का भी ास होता है। नौवें गुणसथान से होता है; किन्तु उस की आधारशिला इस गुणस्थान इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण में रखी जाती है। आठवाँ गुणस्थान दोनों प्रकार की आधारशिला बनाने और एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतने ही अध्यवसाय के लिए है। अत: अपूर्वकरण गुणस्थानक को श्रेणिगत माना है, स्थान इस गुणस्थान के है, परिणाम तुल्य शुद्धिवाले है। अतः यहाँ जैसे-राज्य-योग्य कुमार को राजा कहा जाता है। आठवें गुणस्थान पर समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में सादृशता एवं भिन्नसमयवर्ती में क्षपक श्रेणीवाला मोहनीय कर्म का क्षय करके दसवें गुणस्थान जीवों के परिणामों में..विसदृशता होती है। से सीधा बारहवें गुणस्थान को प्राप्त करके अपने उपलब्ध आत्म
क्षपक एवं उपशमक दोनों ही प्रकार के जीव इस गुणस्थान स्वरुप से अध:पतन नहीं करता, बल्कि आगे बढता हुआ पूर्ण स्वरुप
को प्राप्त होते हैं। क्षपक जीव चढते समय एवं उपशमक जीव चढतेको प्राप्त कर लेता है।
उतरते दोनों ही समय इस गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। चारित्र मोहनीय आठवें गुणस्थान में वर्तमान जीव पाँच बातों-पदार्थो का अपूर्व विधान
कर्म के साथ-साथ अन्य ओर भी कर्मों का क्षय करनेवाले क्षपक करता है
और उपशमन करने वाले उपशमक कहलाते हैं। उनके कार्य को क्रमश: 1. स्थितिघात:- कर्मों की लंबी स्थिति को अपवर्तनाकरण के द्वारा
क्षपक श्रेणी और उपशमश्रेणी कहते हैं । घयकर छोटी करना स्थितिघात है। अर्थात् जो कर्मदलिक आगे उदय
10. सूक्ष्म संपराय गुणस्थान:में आनेवाले हैं; उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने उदय के नियत
सूक्ष्म संपराय गुणस्थान की स्थिति बताते हुए अभिधान समय से हट देना और शीघ्र उदय में आने योग्य बनाकर वर्तमान
राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'सुहमसंपराय' एवं 'सुहुमसंपाय गुणट्ठाण' के उदय योग्य के साथ भोग लेना स्थितिघात कहलाता है।
शब्द में इसका विवेचन करते हुए लिखा है - "संपराय अर्थात् 2. रसघात:- बँधे हुए कर्म के फल देने की तीव्र शक्ति को
लोभ । यहाँ संज्वलन लोभ कषाय के सूक्ष्म खंडों का उदय रहता अपवर्तनाकरण के द्वारा मंद कर देना रसघात कहलाता है।
है। जिस प्रकार धुले हुए गुलाबी रंग के कपडे में लालिमा/सुर्थी 3. गुणश्रेणी:- जिन कर्मदलिकों का स्थितिघात किया गया था
की सूक्ष्म आभा रह जाती है, उसी प्रकार इस गुणस्थान में रहने उन्हें समय के क्रम से अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना गुणश्रेणी है।
वाला जीवसंज्वलन लोभ के सूक्ष्म खंडों का वेदन करता है।" स्थापित करने का क्रम इस प्रकार है
अतः इस गुणस्थान का नाम भी सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक है। उदय समय से लेकर अन्तर्मुहर्त पर्यन्त के जितने समय
यहाँ क्षपक एवं उपशमक दोनों श्रेणिवाले जीव होते हैं जो होते है, उनमें से उदयवली के समयों को छोड़कर शेष रहे समयों
मोहनीय कर्म की एकमात्र प्रकृति संज्वलन लोभ का क्षय या उपशमन में से प्रथम समय में जो दलिक स्थापित किये जाते है; वे कम
करते हैं। वे दोनों ही प्रकार के जीव सूक्ष्म लोभ के कारण यथाख्यात होते हैं। दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे अधिक दलिक होते
चारित्र की पूर्ण स्वरुप स्थिरता से कुछ ही न्यून रहते हैं। क्षपक हैं। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त चरम समय तक असंख्यातगुणे अधिक
श्रेणिवाले जीव यहाँ से सीधे ही 12 वें क्षीणमोह गुणस्थान को और समझने चाहिए। 4. गुण संक्रमण:- पहले बँधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बंध रही शुभ प्रकृतियों में स्थानान्तरित/परिणत कर देना गुण संक्रमण
78. (क) । एतच्च गुणस्थानकं प्रपत्रानां कालत्रयवतिनो नानाजीवानापेक्ष्य
सामान्यतोऽसंख्येयलोकाकाश-प्रदेशप्रमाणान्य-ध्यवसायस्थानानि है। प्रथम समय में अशुभ प्रकृतियों के जितने दलिकों का शुभ प्रकृतियों
भवति ।...युगपदेतद् गुणस्थानप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानमें संक्रमण होता है उससे दूसरे आदि समयों में क्रमशः प्रथमादिक
व्यावृत्तिलक्षणा निवृत्तिरप्यस्तीति निवृत्तिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते। की अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक दलिकों का संक्रमण होता है।
- अ.रा.पृ. 3/611 5. अपूर्व स्थितबंध:- पूर्व की अपेक्षा अत्यन्त अल्प स्थिति के
9. अयं च अपूर्वकरणो द्विधा - क्षपक: उपशमकञ्च । क्षपणोपशमनार्हत्वा
च्चैवमुच्यते, राज्याईकुमारराजवत् । कर्मो का बंध करना अपूर्वस्थिति बंध है।
न पुनरसौ क्षपयत्युपशमयति वा । - अ.रा.पृ. 1/611 आठवें गुणस्थानक का समय-जघन्य से मरण की अपेक्षा
गुणस्थानक क्रमारोह-73 से एक समय एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है।
अ.रा.पृ. 1/611 9. अनिवृत्ति बादर गुणस्थान:
82. अ.रा.पृ. 1/611
83. अ.रा.पृ. 1/335; द्रव्यलोकप्रकाश 3/1187, 88, 89 अनिवृत्ति अर्थात् जहाँ से वापिस लौटना न पडे। श्री अभिधान
84. अ.रा.पृ. 1/335, द्रव्यलोकप्रकाश 3/1192,93; गोम्मटसार, जीवकांड, राजेन्द्र कोश के अनुसार इस गुणस्थान प्राप्त जीव के यहाँ पर अनंतानुबंधी
गाथा 56,57 की टीका आदि तीन कषायचतुष्क तो उपशान्त या क्षय हो जाते हैं; किन्तु संज्वलन 85. अ.रा.पृ. 11916, द्रव्यलोकप्रकाश 3/1194-95 कषाय चतुष्क की पूरी निवृत्ति नहीं होने से अथवा यहाँ जीव के 86. अ.ग.पू. 7/1024, गोम्मटसार, जीवकांड 59, 60 भाव पुनः विषयों की ओर उन्मुख नहीं होने से भावों/अध्यवसायों __87 अ.रा.पृ. 71025, गोम्मटसार, जीवकांड 60; द्रव्यलोकप्रकाश 3/1196
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