________________
[192]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
अप्रतिपत्ति (अस्वीकृति/अप्राप्ति) को अनाभोगिक मिथ्यात्व कहते हैं। एकेन्द्रिय आदि जीवों को जो मिथ्यात्व होता है, वह अनाभोगिक मिथ्यात्व है। स्थानांग सूत्र निर्दिष्ट 10 प्रकार के मिथ्यात्व (1) धर्म में अधर्मबुद्धि - श्रीजिनप्रणीत धर्म को अधर्म कहना। (2) अधर्म में धर्मबुद्धि - हिंसा, जूठ आदि आस्रवयुक्त दुःखदायी
अधर्म को धर्म कहना। (3) मार्ग में उन्मार्गबुद्धि - पाँचो आस्रव का त्याग करके सम्यक्त्व
सहित संवरभाव के सेवनरुप धर्ममार्ग को उन्मार्ग (अधर्म)
कहना। (4) उन्मार्ग में मार्गबुद्धि-कुदेव-कुगुरु-कुधर्म के सेवनरुप उन्मार्ग
को सन्मार्ग कहना। (5) साधु में असाधुबुदधि - 27 गुण युक्त तरण-तारण काष्ठ की
नाव सदृश शुद्ध धर्मप्ररुपक सर्वविरतिधर साधु को असाधु
कहना। (6) असाधु में साधु बुद्धि- आरंभपरिग्रहासक्त विषय-कषाययुक्त,
लोभी, चमत्कारादि की बातों के द्वारा जूठी श्रद्धा करानेवाले लोहे की नाव जैसे असाधु को साधु कहना। जीव में अजीव संज्ञा - एकेन्द्रियादि जीवों को अजीवरुप समजना । जैसे वनस्पति, जल, पृथ्वी आदि को सजीव नहीं मानना, अण्डे अहिंसक है - एसा कहना। अजीव में जीव संज्ञा - जगत्प्रत्यक्ष अक्रिय एसे काष्ठपाषाण
सुवर्णादि धातुओं को उपकारी के रुपमें जीव रुप में मानना। (9) मूर्त में अमूर्त संज्ञा - जगत में प्रत्यक्ष पूरण-गलन स्वभाववाले
वर्ण-गंध-रस-स्पर्शयुक्ति अजीव पुद्गल द्रव्यों को अरुपी कहना । जैसे - वायुकाय जीवों के शरीर (पुद्गल) रुपी हवा
को अरुपी कहना। (10) अमूर्त में मर्त संज्ञा - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय,
आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन चारों अरुपी द्रव्यों को रुपी कहना। जैसे मुझ छद्मस्थ को आत्मा (परमात्मा)
का रुप दिखता है - ऐसा कपटपूर्वक कहना। छ: प्रकार का मिथ्यात्व
(1) लौकिक देवगत मिथ्यात्व - राग-द्वेषादि युक्त, अनेक रुप-स्वरुप धारण करनेवाले, स्त्री सङ्गी चमत्कारी, कदाग्रही, अभिमानी, विशेष शक्तिवान् देव देवी को आत्मशुद्धार्थे देवबुद्धि से मानना या पूजा-सत्कार इत्यादि करना। (2) लौकिक गुरुगत मित्यात्व - अठारह पापस्थान में लीन, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह में आसक्त, मनस्वी कुगुरु/कुबुद्धिदायकों को गुरुबुद्धि से मानना। (3) लौकिकपर्वगत मिथ्यात्व - इस लोक में प्रकट विषयासक्ति उत्पन्न करनेवाले और भावि सांसारिक विषयसुख के लिए विषयासक्त कुगुरु के द्वारा बताये पर्व दिनो में तत्संबंधी विधिविधान करना। (4) लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व - श्री अरिहन्तादि की मूर्ति के सामने अपने इसलोक-परलोक के सख की इच्छा से मन्नत लेना, याचना करना।
(5) लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व - निर्ग्रन्थ उतम साधु भगवन्तों की भक्ति करके उनसे संसार-सुख की याचना करना अथवा साधु धर्म का उच्छेद कर मनमाना साधु जीवन जीनेवालों को सुसाधु (धर्मोपदेशक) मानकर उनकी सेवा सुश्रुषा करना। इससे जीव दुर्लभबोधि बनता है। (6) लोकोत्तरपर्वगत मिथ्यात्व- लोकोत्तर जिनप्रणीत पर्वदिनों में आत्म-कल्याणकारी रत्नयत्री की आराधना के बजाय विपरीत
रुप से आराधना करना। चार प्रकार का मिथ्यात्व:
(1) प्ररुपणा मिथ्यात्व - श्रीजिनप्रणीत नयप्रमाण सापेक्ष चार प्रकार के पुरुषार्थ संबंधी विपरीत प्ररुपणा करना। (2) प्रवर्तन मिथ्यात्व - उपरोक्त लौकिक-लोकोत्तर देवगुरु-धर्म गत मिथ्यात्व में से किसी भी प्रकार का मिथ्याचरण करना। (3) परिणाम मिथ्यात्व - जूठा हठवाद या एकांतदृष्टि रखना, जिनप्रणीत नवतत्त्वमय जगत्स्वरुप को स्याद्वादशैली से यथार्थ नहीं जानना, शास्त्रार्थ का कुतर्कपूर्वक अपलाप करना । (4) प्रदेश मिथ्यात्व - आत्मा के साथ बंधा हुआ मिथ्यात्व मोहनीय सत्ता में रहना।
पंचेन्द्रिय जीवों में भी जो मुग्ध हैं और तत्त्व-अतत्त्व को समझने की शक्ति से रहित हैं, उन जीवो में भी अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है। मिथ्यात्व प्राप्ति के कारण:
अभिधान राजेन्द्र कोश में मिथ्यात्व की प्राप्ति के चार कारण बताये हैं - (1) मतिभेद अर्थात् बुद्धिभ्रम से। (2) पूर्वाग्रह से (3) संसर्ग से और (4) अभिनिवेश अर्थात् कदाग्रह से। व्यवहार सूत्र के छठे उद्देश के अनुसार मतिभेदादि से क्रमशः जमालि, गोविंद, श्रावक भिक्षु और गोष्ठामाहिल मिथ्यात्वी हुए थे। काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद :
काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद हैं - (1) अनादिअनन्त (2) अनादि-सान्त और (3) सादि-सान्त । प्रथम भेद का अधिकारी अभव्य जीव अथवा जाति भव्य (जो जीव कभी मुक्त नहीं होता) जीव है। दूसरा भेद उसकी अपेक्षा से हैं जो जीव अनादिकालीन मिथ्यादर्शन ग्रंथि का भेदन कर सम्यग्दृष्टि बन जाता है। यह जीव भव्य कहलाता है। तीसरा भेद उस जीव की अपेक्षा से हैं जो एक बार सम्यकत्व प्राप्त करने के बाद पुन: मिथ्यात्वी हो जाता है। इस जीव की अपेक्षा से प्रथम गुणस्थान की आदि (आरम्भ) तब होती है, जब वह सम्यक्त्व से पतित हो कर प्रथम गुणस्थान में आता है। अर्थात् उच्च गुणस्थान से पतित हो कर गिरतेगिरते मिथ्यात्व गुणस्थान में आने वाले जीव की अपेक्षा से सादिसान्त विकल्प है और जिसको एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी
34 सिद्धांतसार पृ. 62 35 सिद्धांतसार पृ. 63 36 सिद्धांतसार पृ. 64, 65 37. अ.रा.पृ. 6/269; 6/274; व्यवहारसूत्र 6 उद्देश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org