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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [191]
जिस प्रकार सघन बादलों का आवरण होने पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा आच्छादित नहीं हो जाती, किन्तु कुछ न कुछ खुली रहती है, जिससे दिन रात का व्यवहार किया जाता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय होने पर भी जीव का दृष्टिगुण सर्वथा ढंक नहीं जाता, किन्तु आंशिक रुप में एक का प्रकार अव्यक्त स्पर्श मात्र उपयोग होता है। यदि यह न माना जाये, तो निगोदिया जीव अजीव कहलायेगा। इसलिए मिथ्यात्व को गुणस्थान माना जाता है। इस गुणस्थानवी जीव की आध्यात्मिक स्थिति पूर्ण रुप से निम्नतम स्तर की होती है तथा राग, द्वेष आदि के वशीभूत होने से वह आध्यात्मिक सुखों से सर्वथा वंचित रहता है।
सुदेव में देव बुद्धि, सुगुरु में गुरु बुद्धि और सुधर्म में धर्म बुद्धि सम्यक्त्व है, जब कि सुदेव में देवबुद्धि का अभाव और सुगुरु में गुरुबुद्धि का अभाव और सुधर्म में धर्मबुद्धि का अभाव; इसी प्रकार कुगुरु में गुरुबुद्धि और कुदेव में देवबुद्धि और कुधर्म में धर्मबुद्धि मिथ्यात्व है।
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाली मिथ्या पर्यायों का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धावाला होता है। जिस प्रकार पितज्वर से युक्त जीव को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता, कडवा लगता है; उसी प्रकार मिथ्यात्वी जीव को यथार्थ धर्म का श्रवण, मनन, चिन्तन अच्छा नहीं लगता । वह दोषदर्शन की ओर उन्मुख रहता है । इसीलिए मिथ्यादृष्टि को सम्यक्त्वी नहीं कहते। मिथ्यात्व के भेदः
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने मिथ्यात्व के अनेक भेद-प्रभेद दर्शाये है25 | स्थानांगसूत्र में मिथ्यात्व के (1) अक्रिया - असम्यक्रिया (2) अविनय और (3) अज्ञान - ये तीन भेद बताये है26 । सम्मति तर्क में मिथ्यात्व के षट् स्थान पर निम्नामुसार बताये हैं - (1) आत्मा नहीं है (2) वह नित्य नहीं है (3) कर्ता नहीं है (4) भोक्ता नहीं है (5) निर्वाण नहीं है और (6) मोक्ष का उपाय नहीं है। धर्मरत्न प्रकरण के अनुसार मिथ्यात्व के पांच प्रकार है-8 :1. आभिग्राहिक मिथ्यात्व - तत्व के स्वरुप का स्पष्ट बोध नहीं होने पर भी जो अज्ञानी व्यक्ति अपनी वंश-परम्परा से प्राप्त पदार्थ का इस प्रकार से स्वीकार करता है कि उसे अनेक युक्तिप्रयुक्ति के द्वारा कोई तत्त्व का वास्तविक अर्थ समझाने का प्रयत्न करे तो भी समझे नहीं, और अपने पकडे हुए अर्थ को छोड़ने के लिए तैयार न हो, उसे आभिग्राहिक मिथ्यात्व कहते हैं।
कुदर्शन के आग्रही व्यक्तियों में इस प्रकार का मिथ्यात्व होता है। सम्यग्दृष्टि आत्मा में कभी भी अपरीक्षित सिद्धांत का पक्षपात नहीं होता। अतः जो व्यक्ति परीक्षापूर्वक सत्य तत्त्व को स्वीकार करता है और असत्य तत्त्व का खंडन करता है, उसे आभिग्राहिक मिथ्यात्व नहीं कह सकते।
सम्यग्दृष्टि आत्मा आगम से बाधित कुलाचार को महत्त्व नहीं देती। नामधारी जैन भी यदि आगम से बाधित कुलाचार को प्रधानता देकर अपने कुलाचार का आग्रह रखे तो वह भी आभिग्राहिक मिथ्यात्व ही है।
जो व्यक्ति स्वयं तत्त्व की परीक्षा करने में असमर्थ हो, किन्तु तत्त्वपरीक्षक गीतार्थ गुरु के आश्रित रहकर जिनवचन में श्रद्धावान् हो तो उसे सम्यक्त्वी मानना चाहिये।
2. अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व - सत्य-असत्य की परीक्षा बिना सभी दर्शनों को समान मानना अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व है। एसे मिथ्यात्वी में स्वदर्शन की बात का विशेष आग्रह नहीं होता। इस मिथ्यात्वदृष्टि में तत्त्व विषयक अज्ञान अवश्य होता है, किन्तु किसी प्रकार का आग्रह नहीं होता है। वह अपनी बात के ही समान दूसरों की बात को भी सत्य मानकर स्वीकार लेता है। 3. आभिनिवेशिक मिथ्यात्व - अपना पक्ष असत्य सिद्ध होने पर भी उस बात को सत्य सिद्ध करने के लिए आग्रहशील बनना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व सम्यक्त्व से पतित आत्मा को ही होता है। सम्यग्दर्शन को अप्राप्त आत्मा इस मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करती।
सम्यग्दृष्टि आत्मा कभी अशुभ कर्म के उदय से जिनप्रणीत आगम से विरुद्ध बात को स्वीकार कर लेती है, पश्चात् कोई सत्य तत्त्व को समझाने वाला मिले तो भी वह उस सत्य का स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता और अपने झूठे अर्थ को ही सत्य सिद्ध करने के लिए सदैव प्रयत्नशील होता है। इस प्रकार विपरीत पदार्थ के आग्रह के कारण वह सम्यगदर्शन से भ्रष्ट होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। इस प्रकार का मिथ्यात्व आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहलाता है।
जमाली ने पहले महावीर भगवान के पास दीक्षा ली। शास्त्रों का गहन अध्ययन कर वे श्रुतपारगामी बने । एक बार शारीरिक अवस्वस्थता के कारण उन्होंने अपने शिष्यों को संथारा तैयार करने को कहा। गुर्वाज्ञा होते ही वे शिष्य संथारा तैयार करने लगे। अभी संथारे की क्रिया आरम्भ हुई ही थी, तभी शिष्यों को उन्होंने पूछा 'संथारा तैयार हो गया?' उन शिष्यों ने 'कडेमाणे कडे (क्रियामाणं कृत)' इस भगवद्वचनानुसार 'हाँ' कह दिया। तभी जमाली ने आकर देखा संथारा तैयार नहीं है। बस, इसके साथ ही उसके हृदय में 'कडेमाणे कडे' भगवद्वचन के प्रति संदेह हो गया। इस प्रकार जिनवचन में संदेह हो जाने के कारण वे सम्यक्त्व से भ्रष्ट हुए और अनेक युक्ति-प्रयुक्तियों से समजाने पर भी वे सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए। अत: आभिनिवेशिक मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। 4.सांशयिक मिथ्यात्व - जिनप्ररुपित तत्वों में शंकाशील होकर उनके सर्वज्ञत्व में शंकाशील होने को सांशयिक मिथ्यात्व कहते हैं। अर्थात् जिनवचन की प्रामाणिकता में संशय पैदा होना सांशयिक मिथ्यात्व कहलाता है। 5. अनाभोगिक मिथ्यात्व - साक्षात् और परम्परा से तत्त्व की
23. सव्वजीवाणं वि य , अक्खरस्स अणंतमो, भागो निच्च उग्घाडिओ चिट्ठइ |
जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेण जीवो अजीवत्तणं पाउणिज्जा ॥ मिच्छत्तं वेदंतो जीवो, विवरीय दंसणो होदि ।
जय धम्म रोचेदि हु, य दुई खु रसं जहा जरिदो ॥-गोम्मटसार जीवकांड-17 25. अ.रा.पृ. 6/272-273 26. स्थानांग - 3/3, वही 27. अ.रा.पृ. 6/273; सन्मति तर्क 3/54 28. अ.रा.पृ. 6/273; धर्मरत्नप्रकरण, द्वितीय अधिकार 29. अ.रा.पृ. 2/278 30. अ.रा.पृ. 1/309, 6/273 31. अ.रा.पृ. 6/273 32. अ.रा.पृ. 7/244 33. अ.रा.पृ. 1/309
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