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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [319] 10. देववंदन-चैत्यवंदन-गुरुवंदन न करना।
कर लेता हैं। जैन परम्परा में बार-बार अपराध करने वाले अपराधिक 11. स्थापनाचार्यजी को वांदणा न देना / वंदन करना।
प्रवृत्ति के लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित किया गया हैं128 | 12. अष्टमी-चर्तुदशी आदि पर्वतिथि को नगर स्थित जिनालय एवं अनवस्थाप्य प्रायश्चित के प्रकार :साधु-साध्वी को वंदन न करना।
अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार अनवस्थाप्य प्रायश्चित मुख्यतया 13. पाक्षिक/चातुर्मासिक/सांवत्सरिक तप न करना।
दो प्रकार का है।2914. पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय या पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, स्त्री
1.आशातना अनवस्थाप्य - आगे कहे जाने वाले पाराञ्चित प्रायश्चित आदि जीवों का संघट्ट/स्पर्श होना, उन्हें पीडा पहुंचाना।
की तरह तीर्थकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर, महर्द्धिकादि की -एसे अपराध तप प्रायश्चित योग्य हैं।
आचार्य उपाध्यायादि के द्वारा या साधु के द्वारा आशातना करने पर छेदादि प्रायश्चित देने पर जिसकी उद्दण्डता बढ़ती है, जो
आशातना अनवस्थाप्य प्रायश्चित दिया जाता हैं। 130 अपराधी मुनि गर्वित होकर अपलाप करता है, उन्हें तप प्रायश्चित
2. प्रतिसेवना अनवस्थाप्य प्रायश्चित - यह प्रायश्चित तीन प्रकार ही दिया जाता है।24।
का है - साधर्मिकस्तैन्यकारी, अन्यधार्मिक स्तैन्य कारी और हस्तताल छेद प्रायश्चित125 :
अनवस्थाप्य ।। छेद प्रायश्चित का परिचय देते हुए आचार्यश्री ने अभिधान क.साधार्मिकस्तैन्यकारी- दान-श्रद्धायुक्त स्थापना कुलों (आचार्यादि राजेन्द्र कोश में कहा है कि 'जिसमें दोषी मुनि के दीक्षा पर्याय
संघ के विशिष्ट वैयावृत्त्यकारक द्रव्य-भावसंपन्न गृहस्थों के घर) से का यथायोग्य छेद किया जाता है, वह छेद प्रायश्चित है।' जो अपराधी
आचार्य, उपाध्याय, शैक्ष (नवदीक्षित), ग्लान (रोगी) आदि हेतु लाये शारीरिक दृष्टि से कठोर तप-साधना करने में असमर्थ हो अथवा समर्थ
गए या उन गृहस्थों के द्वारा आचार्यादि को आहार, उपधि, वस्त्र, होते हुए भी तप के गर्व से उन्मत हैं और तप प्रायश्चित से उसके
पात्रादि हेतु निमंत्रण करने पर बिना गुर्वाज्ञा के ही उन गृहस्थों से व्यवहार में सुधार संभव नहीं होता और तप प्रायश्चित करके पुन:
आहारादि लेकर स्वयं उपयोग करना सार्मिक स्तैन्य है। उस दोष पुनः अपराध करता है, उसके लिए छेद प्रायश्चित का विधान किया
से मुक्ति हेतु साधर्मिक स्तैन्य अनवस्थाप्य प्रायश्चित दिया जाता हैं । 132 गया है।
ख. अन्यधार्मिक स्तैन्यकारी - लोभ कषाय के उदय से या मूलाह (मूल) प्रायश्चित!26:
रसलोलुपता से अन्य धर्मी बौद्धादि भिक्षु के या गृहस्थ के आहार, मूल प्रायश्चित अर्थात् पूर्व के दीक्षापर्याय के समाप्त कर
उपधि, उपकरणादि को गुरु की आज्ञा के बिना ले लेना - अन्य नवीन दीक्षा प्रदान करना । इसके परिणामस्वरुप मूल प्रायश्चित अङ्गीकार धार्मिक स्तैन्य है। इससे प्रवचनहीलना, स्वोपकरण स्तैन्य, राजादि करनेवाला भिक्षु उस भिक्षुसंघ में जिस दिन उसे यह प्रायश्चित दिया के द्वारा ग्रहण-दण्डादि होता है। यह आहार विषयक, उपधि विषयक जाता है, वह सबसे कनिष्ठ बन जाता हैं। परंतु मूल प्रायश्चित में और सचित्त विषयक है। अन्य धर्मी बौद्धादि भिक्षु के शिष्य को अपराधी मुनि को गृहस्थवेश धारण करना अनिवार्य नहीं है। सामान्यतया ले लेना, या गृहस्थ के लडके-लडकियों को उनके परिवार की आज्ञा पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा एवं मैथुन संबंधी अपराधों (साध्वी का के बिना दीक्षा देना सचित विषयक अन्यधार्मिक स्तैन्य है। इससे शीलभङ्ग करवाना आदि) को मूलार्ह अर्थात् मूल प्रायश्चित योग्य माना भी उपरोक्त दोष होता है। इसकी शुद्धि हेतु अन्यधार्मिकस्तैन्य अनवस्थाप्य जाता है। इसी प्रकार जो मुनि मृषावाद, अदत्तादान या परिग्रह संबंधी प्रायश्चित दिया जाता हैं। 33 दोषों को पुनः-पुनः सेवन करता है वह भी मूलार्ह माना गया है।
ग. हस्तताल अनवस्थाप्य - यह दो प्रकार का है - (क) लौकिक जीतकल्प के अनुसार चारित्र की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित
- हाथ से या मुठ्ठी से या पैर से या डण्डे से या खड्गादि से दिया ही जाता है, जबकि दर्शन या ज्ञान की विराधना में यह दिया
स्वपक्ष या परपक्ष के साधुओं पर प्रहार करना, मारपीट करना - लौकिक भी जा सकता है और नहीं भी।
हस्तताल है जिसकी शुद्धि हेतु हस्तताल अनवस्थाप्य प्रायश्चित दिया धवला टीका के अनुसार अपरिमित अपराध करनेवाला जो
जाता है। यदि प्रहार से सामनेवाला मृत्यु प्राप्त हो जाय तब तो साधु पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्दादि होकर कुमार्ग में
पाराञ्चित प्रायश्चित दिया जाता है। (ख) लोकोत्तर-शिष्य का ग्रहण स्थित है, उसे मूल प्रायश्चित दिया जाता हैं।7।
और आसेवन शिक्षा में सम्यक् प्रवर्तन करवाने के लिए हित बुद्धि अनवस्थाप्य प्रायश्चित :
से अविनीत दुर्बुद्धि शिष्य (के मर्मस्थान को छोडकर) का कान पकडकर अनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद से च्युत कर देना या अलग कर देना है। दूसरा अर्थ है - संघ में स्थापना 124. अ.रा.पृ. 4/2211; जीतकल्प-595; चारित्रसार-142/5 के अयोग्य (अर्थात् रखने योग्य नहीं)। जो अपराधी एसे अपराध
125. अ.रा.पृ. 3/1360, 5/136; स्थानांग-4/1; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161 करता है जिसके कारण उसे संघ से बहिष्कृत कर देना आवश्यक
126. अ.रा.पृ. 6/3783; जीतकल्प-83 से 86
127. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161 होता है वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित के योग्य माना जाता हैं। यद्यपि
128. अ.रा.पृ. 1/292, 293; स्थानांग-3/4 परिहार में भी भिक्षु को संघ से पृथक् किया जाता है किन्तु वह
129. अ.रा.पृ. 1/293 एक सीमित समय के लिए होता है और उसका वेश परिवर्तन आवश्यक
130. अ.रा.पृ. 1/293 नहीं माना जाता जबकि अनवस्थाप्य प्रायश्चित के योग्य भिक्षु को
131. अ.रा.पृ. 1/293 पूर्णतः संघ से बहिष्कृत कर गृहस्थ वेश प्रदान कर दिया जाता है 132. अ.रा.पृ. 1/293, 294, 295
और उसे पुनः तब तक भिक्षुसंघ में प्रवेश नहीं दिया जाता जब 133. अ.रा.पृ. 1/295, 296 तक कि वह प्रायश्चित के रुप में निर्दिष्ट तप-साधना को पूर्ण नहीं 134. अ.रा.पृ. 1/297
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