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________________ [320]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन मोडा जाय या हस्तादि से प्रहार किया जाय, वह लोकोत्तर हस्तताल (ख) विषय दुष्ट (1) एक ही गच्छ के साधु-साध्वी, (2) साधु और है। जिनशासन को आशातना-निंदादि से बचाने हेतु एवं शिष्यादि शय्यातर की बालिका अथवा अन्ततीथिका (अन्य धर्मी साध्वी/स्त्री), को चरण-करण में सम्यक् पालन करवाने हेतु आचार्यादि को इस (3) गृहस्थ यति और संघस्थित साध्वी (4) गृहस्थ यति और गृहस्थ लोकोत्तर हस्तताल की यथासमय अनुज्ञा दी गई है।135 स्त्री - का आपस में विषयसुखभोग करने पर प्रथम और द्वितीय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में मुनि के द्वारा प्रमाद से चोरी, भङ्ग में प्रतिसेवना पाराञ्चित प्रायश्चित दिया जाता है, शेष दो में मारपीट, विरुद्धाचरण, परन्तु नवपूर्व के ज्ञाता या दशपूर्व के ज्ञाता, विकल्पपूर्वक प्रायश्चित देने योग्य हैं। उत्तमसंहनन, परिषहजयी, दृढधर्मी, धीर-वीर, पापभीरु मुनि को प्रमादपाराञ्चित प्रायश्चित :निजगणानुपस्थापन और अभिमानी मुनि को परगणानुस्थापन प्रायश्चित अतितीव्र कषाय, स्त्रीकथादि विकथा, मद्यपान, श्रोत्रादि देने का उल्लेख हैं ।136 इन्द्रियविषयाधीनता और स्त्यानगुद्धि निद्रावाले (जसमें अर्धचक्रवर्ती अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने उक्त प्रकार के अनवस्थाप्य जितना बल रहता है और नींद में ही नियत स्थान पर जाकर हिंसादि प्रायश्चित योग्य दोषों की शुद्धि हेतु किसे किस परिस्थिति में कौन कार्य करके वह व्यक्ति पुनः लौट आता है, तथापि उसे पता नहीं सा अपराध करने पर कितना प्रायश्चित दिया जाय - इसका भी विस्तृत चलता) साधु को यह लिङ्ग प्रायश्चित दिया जाता है ।145 वर्णन किया है, साथ ही अनवस्थाप्य प्रायश्चित अंगीकार करने-कराने अन्योन्यपाराञ्चित प्रायश्चित :का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावपूर्वक सविधि वर्णन भी किया है। आपस में साधु-साधु का एक-दूसरे के मुखादि प्रयोग से पाराञ्चित प्रायश्चित : सेवन सर्वथा अकल्प्य (सर्वथा त्याज्य) है। तथापि यदि कोई ज्ञानी लिङ्ग, क्षेत्र, काल और तप के द्वारा जिस प्रायश्चित के सेवन होने पर भी एसा करे तो अन्योन्यपाराञ्चित प्रायश्चित योग्य एसे श्रमण से अपराधी पार (तीर) अर्थात् पाप से मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त होता का त्याग करना चाहिए। उनसे लिङ्ग अर्थात् साधुवेश वापिस ले है उसे पाराञ्चित प्रायश्चित कहते हैं।37 | वे अपराध जो अत्यन्त गर्हित लेना चाहिए।146 इस प्रायश्चित के विषय में विशेष गुरुगमगम्य हैं। (त्याज्य) हैं और जिनके सेवन से न केवल व्यक्ति की, अपितु संपूर्ण जीतकल्प में कहा है कि कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, राजवध, जैनसंघ की व्यवस्था धूमिल होती है, पाराञ्चित प्रायश्चित के योग्य राजमहिषी (राजा की रानी) के साथ मैथुन सेवन करने पर प्रतिसेवना होते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में इसका विस्तृत वर्णन किया गयाहै, पाराञ्चित प्रायश्चित के योग्य अपराध माना जाता है। 147 जो संक्षेप में निम्नानुसार है- पाराञ्चित प्रायश्चित मुख्य रुप से दो पाराञ्चित प्रायश्चित के प्रकार :प्रकार का है - (1) आशातना और (2) प्रतिसेवना ।138 1. लिङ्ग - अपराधी साधु का साधुवेश ले लेना या प्रयत्नपूर्वक उससे आशातना पाराञ्चित प्रायश्चित : रजोहरण-मुहपत्ति आदि साधुवेश का त्याग करवाना - लिङ्ग प्रायश्चित तीर्थंकर, (तीर्थंकर की प्रतिमा), श्रुत (जिनप्रवचन), आचार्य, कहलाता है। 148 गणधर, महर्द्धिक (सर्वलब्धि संपन्न, महातपस्वी, वादी, विद्यासिद्ध 2. क्षेत्र - क्षेत्र से अपराधी साधु को अपराधस्थान जैसे कि उपाश्रय, आदि) की जानबूझकर अवज्ञापूर्वक निंदा, अवर्णवाद, उनके प्रति शेरी (गली), बाजार, शाखी (घरों की एक समान श्रेणी (लाईन), गाँव, आक्रोश, तर्जना या अन्य किसी भी प्रकार से इन पाँचो के विषय नगर, राजधानी, देश, राज्य, कुल,गण, संघ आदि का त्याग करवाना में प्रवचन विरुद्ध बोलनेवाला जैन संघ का प्रत्यनीक (वैरी) आत्मा अर्थात् अपराधक्षेत्र में अपराधी साधु को नहीं रहने देना क्षेत्र पाराञ्चित आशातना पाराञ्चित के योग्य बनता है ।139 यह प्रायश्चित सर्वचारित्रनाश प्रायश्चित हैं।149 और देशचारित्रनाश भेद से दो प्रकार का है, और समान अपराध होने पर भी जीवों के परिणामों की भिन्नता से अनेक प्रकार का 135. अ.रा.पृ. 1/297 है।140 तीर्थंकर और संघ की सर्वथा या आंशिक आशातना और गणधर 136. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161; चारित्रसार-144/4 की अंशमात्र भी आशातना करनेवाला पाराञ्चित प्रायश्चित का भागी 137. अ.रा.पृ. 5/857; स्थानांग-3/4; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/93 होता है। शेष की आंशिक आशातना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित और 138. अ.रा.पृ. 5/857, 858; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/94 सर्वथा आशातना करने पर तो पाराञ्चित प्रायश्चित दिया जाता है।।4। 139. अ.रा.पृ. 5/858, 865; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/97 से 104; जीतकल्प 94; भगवती आराधना-1637 प्रतिसेवना पाराञ्चित प्रायश्चित : 140. अ.रा.प्र. 5/858, 865; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-94 से 96; अनगार धर्मामृतयह प्रायश्चित मुख्य रुप से तीन प्रकार का है, जिसके अनेक भेद 7/59 प्रभेद हैं।42 141. अ.रा.पू. 5/8583; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/105-106: जैनेन्द्र सिद्धान्त (1) दुष्टप्रतिसेवना पाराञ्चित प्रायश्चित - यह कषाय और विषय के कोश-3/161 भेद से दो प्रकार का है 142. अ.रा.पृ. 5/859, 866; बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य-4/1153 (क) कषायदुष्ट - क्रोध, मान, माया और लोभ रुप जिस तीव्र 143. अ.रा.प. 5/859 से 861; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/161 कषाय के उदय से शिष्यादि के द्वारा आचार्यादि के दन्तभञ्जन, 144. अ.रा.पृ. 5/861 मारण, नेत्रनाश या उनके शव को भी दाँत से काटने रुप अकार्य 145. अ.रा.पृ. 5/861, 862, 866 होते हैं, एसे अकार्यों के प्रायश्चित को कषायदुष्ट प्रतिसेवना पाराञ्चित 146. अ.रा.पृ. 5/862, 866 प्रायश्चित कहते हैं।143 तथा राजा, मंत्री अथवा अन्य गृहस्थ का 147. अ.रा.पृ. 5/865; चारित्रसार-146/3 घातक अथवा उन्हें घात हेतु प्रेरणा देनेवाले को भी लिङ्गपाराञ्चित 148. अ.रा.पृ. 5/862, 866 प्रायश्चित दिया जाता हैं।144 149. अ.रा.पृ. 5/866-867; जीतकल्प-98-99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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