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________________ [58]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन इससे पता चलता है कि साहित्यप्रेमियों के हृदय में अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रति कितनी अगाध श्रद्धा और प्रेम रहा है। -ले. श्री केवलकृष्ण पाठक, (शाश्वतधर्म मासिक, अंक अगस्त 1995, पृ. 43 से उद्धृत) अभिधान राजेन्द्र कोश आधुनिक कोशों की महत्त्वपूर्ण कडी है। जैन पारिभाषिक कोश की दृष्टि से यह प्रथम प्राकृत मानक कोश कहा जा सकता है। उस समय अल्प साधनों के बावजूद आचार्यश्री और उनके संघ ने इतना बडा अभूतपूर्व कोश-ग्रंथ तैयार कर दिया - यह आश्चर्य का विषय है। __- डो. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ग. अभिधान राजेन्द्र कोश : शोध अध्येताओं की दृष्टि में: यह कोश सब के लिए कुछ न कुछ देने में समर्थ है जिससे अनायास ही सुज्ञों के हृदय की भावनाएँ शब्द बन कर अभिधानराजेन्द्र की प्रशंसा किये विना नहीं रह पाती। यहां कुछ शोधाध्येताओं की भावनाओं को उद्धृत किया जा रहा है मैं जब आचार्य हेमचन्द्र सूरि के साहित्य पर आधारित अपने शोध-प्रबन्ध के सन्दर्भ-संकलन कार्य में संलग्न था, तब गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में मेरी दृष्टि में विशालकाय अभिधान राजेन्द्र आया। इससे दो पांच वर्ष पूर्व मैं इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका का अवलोकन कर चुका था, इससे मैं यह समझ सकता था कि कोश और विश्वकोश में क्या अन्तर हैं और विश्वकोश का शोधप्रबन्ध से क्या सम्बन्ध है। मेरी दृष्टि में अभिधानराजेन्द्र के आते ही मैंने अपने स्वभावके अनुसार प्रस्तावना से लेकर अन्त तक विहंगावलोकन किया। किन्तु सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह कृति एक व्यक्ति के परिश्रम से सम्भव हो सकती है। परन्तु जब आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि महाराज के ज्ञानगाम्भीर्य के बारे में जानकारी हुई तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। आचर्यश्री के जीवन के विषय में उपलब्ध परिचायक साहित्य से मैं पूरी तरह परिचित हुआ और मैंने अभिधान राजेन्द्र के समग्र परिचय की दृष्टि से इसका पुनः अवलोकन किया तो पाया कि न केवल यह जैन विद्या का कोष है अपितु व्याकरण, साहित्य दर्शन, आदि सभी प्राच्य विद्याओं का निधान है। आचार्यश्री के प्रामाणिक लेखन, स्वतन्त्र समीक्षा और सम्प्रदायेतर सहिष्णुत्व का जीता जागता प्रमाण अभिधान राजेन्द्र है। जैन सिद्धान्त के साथ तुलनात्मक प्राच्यविषयों पर शोध में प्रवृत्त होनेवालों के लिए मानों यह चिन्तामणि रत्न हैं। आचार्य हेमचन्द्रसूरि के बाद इस सहस्राब्दी में कलिकालसर्वज्ञत्व का यह दूसरा उदाहरण है। और निःसन्देह यह भारतीयों के लिए और जिनशासनानुयायियों के लिए गौरव का विषय है। -वैद्य गजेन्द्र कुमार जैन, व्याख्याता, शा. आयुर्वेद महाविद्यालय, इन्दौर विश्व-पूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी विरले सन्त थे। उनके जीवन-दर्शन से यह ज्ञात होता है कि वे लोक-मंगल के क्षीर-सागर थे। उनके प्रति मेरी श्रद्धा-भक्ति तब विशेष बढी, जब मैंने कलिकाल कलपतरु श्री वल्लभसूरिजी पर 'कलिकाल कल्पतरु' महाग्रंथ का प्रणयन किया, जो पीएचडी. उपाधि के लिए जोधपुर विश्वविद्यालय ने स्वीकृत किया। विश्व-पूज्य प्रणीत 'अभिधान राजेन्द्र कोश' से मुझे बहुत सहायता मिली। उनके पुनीत पद-पद्मों में कोटिश-वंदन । विश्व-पूज्य अर्धमागधी, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं के अद्वितीय महापण्डित थे। उनकी अमरकृति 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में इन तीन भाषाओं के शब्दों की सारगर्भित और वैज्ञानिक व्याख्याएँ हैं। उदाहरण के लिए - जैन धर्म में 'नीवि' और 'गहुँली' शब्द प्रचलित हैं। इन शब्दों की व्याख्या मुझे कहीं नहीं मिली। इन शब्दों का समाधान इस कोश में है। 'नीवि' अर्थात् नियम पालन करते हुए विधिपूर्वक आहार लेना। 'गहुँली'-गुरु भगवन्तों के शुभागमन पर मार्ग में अक्षत का स्वस्तिक करके उनकी वधामणी करते हैं और गुरुवर के प्रवचन के पश्चात् गीत द्वारा (गहुँली द्वारा) गहुँली (गीत) गाई जाती है। इनकी व्युत्पत्ति व्याख्या 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में मिली। पुरातन काल में गेहुँ का स्वस्तिक करके गुरुजनों का सत्कार किया जाता था। कालान्तर में अक्षत का प्रचलन हो गया, इसलिए गुरु भगवंतों के सम्मान में गाया जाने वाला गीत भी गहुँली हो गया। स्वर्ण मोहरों या रत्नों से गहुँली क्यों न हो, वह गहुँली ही कही जाती है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से अनेक शब्द जिनवाणी की गंगोत्री में लुढक-लुढक कर, घिस-घिसकर शालीग्राम बन जाते हैं। विश्वपूज्य ने प्रत्येक शब्द के उद्गम-स्रोत की गहन व्याख्या की है अत: यह कोश वैज्ञानिक है, साहित्यकारों एवं कवियों के लिए रसात्मक है तथा जन-साधारण के लिए शिवप्रसाद है। यह कोश वज्रायुध के समान सत्य की रक्षा करने वाला और असत्य का विध्वंस करने वालाहै। यह ग्रंथ 'सत्यं-शिवं-सुन्दरं' की परमोज्जवल ज्योति सब युगों में यावच्चन्द्रदिवाकरौ जगमगाता रहेगा। यह कोश इतना लोकप्रिय है कि देश-विदेश के समस्त विश्वविद्यालयों, श्रेष्ठ महाविद्यालयों एवं शोध-संस्थानों में इसके सातों भाग उपलब्ध हैं। 15-1-1998 -डो जवाहरचन्द्र पाटनी, एम.ए., हिन्दी-अंग्रेजी, पी.एच.डी.गुरु सप्तमी श्री पार्श्वनाथ उम्मेद कालेज, फालना ( राजस्थान) 'विश्व पूज्य' पृ. 18 से 20 से उद्धृत For Private & Personal use only www.jainelibrary.org/ Jain Education International
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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