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[150]... चतुर्थ परिच्छेद
के पास रहते हैं) के द्वारा बिना भाव से केवल परचित्तरञ्जन (लोकरञ्जन) हेतु जो अनुष्ठानादि किया जाय वह सब 'द्रव्यधर्म' है इसी प्रकार ग्राम- देश - कुल- राष्ट्र - पशु-नगरादि धर्म, तथा गम्य धर्मादि भी द्रव्यधर्म है तथा गृहस्थ के द्वारा गृहस्थ को दिया गया दान (अनुकंपादिपूर्वक या प्रीति-सत्कारादि) भी द्रव्यधर्म है । 24 कुतीर्थिक (एकांतवादी) बौद्ध, संन्यासी आदि अन्यलिङ्गी का धर्म भी द्रव्यधर्म है, 25 तथा उनको अन्न, जल, वस्त्र, निवास स्थान, शयन, आसन, शुश्रूषा, वन्दन, और संतोष या चित्त प्रसन्नता दान भी द्रव्यधर्म है । 26 द्रव्य के छह सामान्य धर्मो को भी द्रव्यधर्म कहते हैं, ये निम्नलिखित हैं
स्वभाव धर्म (द्रव्य स्वभाव ):
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भाव होने पर आत्मा के सब प्रदेशों में सर्व गुण साधारणतया प्रकट होते हैं; तब उनमें हानि वृद्धि नहीं होती । 33 लौकिक आचार:
गम्य धर्मः
1. अस्तित्त्व " - द्रव्य का सदा सत् अर्थात् विद्यमान रहना अस्तित्त्व गुण है। इस गुण के होने से द्रव्य में सद्रूपता का व्यवहार होता है । प्रत्येक द्रव्य अपने गुण पर्याय और प्रदेश की अपेक्षा से सत् (विद्यमान हैं)
2. वस्सुत्व28 - वस्तुत्व का अर्थ है जाति या व्यक्तित्व रुप से वस्तु का अपना स्वयं का अलग अस्तित्त्व बनाए रखना । वस्तुत्व के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न होती है। धर्मादि छहों द्रव्य एक क्षेत्र में एक साथ मिलकर रहने पर भी एक दूसरे से अपने वस्तुत्व के कारण भिन्न हैं। एक आकाश प्रदेश में धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, जीवों के अनन्त प्रदेश और पुद्गल के अनन्त परमाणु रहे हुए हैं; परन्तु अपने-अपने स्वभाव में रहते हुए वे एक दूसरे की सत्ता में नहीं मिलते। इसी से उनका वस्तुत्व स्वतन्त्र है ।
3. द्रव्यत्व - अपने अपने (स्वाभाविक / सहभावी गुणयुक्त:) द्रव्य की अपनी-अपनी (क्रमभावी) पर्याय प्राप्त करना 'द्रव्यत्व' कहलाता है । 29 सब द्रव्य भिन्न-भिन्न रुप से अपनी-अपनी क्रिया करते हैं। भिन्न-भिन्न अर्थक्रिया करने को द्रव्यत्व कहते हैं। 4. प्रमेयत्व " - अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रमेय का लक्षण बताते हुए कहा है - " द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमेयम् ।" अथवा प्रमाण के द्वारा जानने योग्य स्व- पर स्वरुप प्रमेय है। प्रमेय का भाव अर्थात् प्रमाण का विषय होना प्रमेयत्व है। अर्थात् ज्ञान के द्वारा ज्ञान होना यही प्रमेयत्वज्ञेयत्व है। सभी पदार्थ केवलज्ञान स्म प्रमाण के विषय हैं, इसलिए प्रमेय हैं।
5. प्रदेशत्व (सत्त्व ) 2 - उत्पाद (उत्पति), व्यय (विनाश) और ध्रुवत्व (स्थिरता) को सत्त्व कहते हैं - उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । प्रत्येक द्रव्य की सत्ता उसके स्वरुप से है। किसी द्रव्य का स्वरुप तो साकार है, जैसे पृथ्वी आदि; और किसी द्रव्य का स्वरुप निराकार है, जैसे आकाश, आत्मा, काल आदि । किन्तु निराकार होने का अर्थ यह नहीं है कि उसकी सत्ता ही नहीं है, अपितु यह है कि निराकार का भी उसके प्रदेश (अविभागी प्रतिच्छेद) रुप द्रव्य पदार्थ (जो कि भौतिक तत्वों के समान न होने से इन्द्रियग्राह्य नहीं है) के रुप में अस्तित्व है। प्रत्येक द्रव्य का यह स्वरुप ही उसका प्रदेशत्व है। 6. अगुरुलघुत्व - अगुरुलघुत्व द्रव्य का वह धर्म है जिसके कारण द्रव्य के किसी भी अंश का किसी भी काल और किसी भी क्षेत्र में नाश नहीं होता। इस अगुरुलघु स्वभाव का कभी नाश नहीं होता। आत्मा में भी अगुरु लघु गुण है। इसमें गुणों का आविर्भाव तिरोभाव तब तक ही होता है; जब तक कर्मो का आवरण है। किन्तु क्षायिक
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'गम्य' शब्द 'गम्लृ' धातु से बना है, 34 जिसका साधारण अर्थ 'गमन करना' है: 'धर्म' विशेष्य से संबद्ध विशेषण के रुप में प्रयुक्त 'गम्य' शब्द का अर्थ 'प्राप्ति' भोग और उपभोग करने से है । भोग के अन्तर्गत वे पदार्थ आते हैं जिनका एक बार ही सेवन किया जा सकता है; जैसे - खाद्य पदार्थ, स्पर्श, पुष्पमालादि आदि 135 उपभोग में वे पदार्थ आते हैं जिनका सेवन अनेक बार किया जाता है जैसे वस्त्र, गृह आदि 136
योगरूढ अर्थ के साथ 'गम्य' शब्द वैवाहिक संबंध अथवा कि मैथुनी सहसंबंध का नियमन करता है। इसी विषय को रेखांकित करते हुए आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में 'गम्य धर्म' में यह स्पष्ट किया है कि दक्षिणापथ में मामा की पुत्री से सह संबंध हो सकता है जबकि दूसरी ओर उत्तरापथ में इसे निषिद्ध माना गया है। 37
यह तो संकेत- मात्र हैं। सहसंबंध के विषय में चिकित्सा शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश दिये गये हैं कि समागम करनेवालों को अतुल्यगोत्र होना चाहिए। तत्पश्चात् स्त्री और पुरुषों की अलग-अलग विशेषताएँ बताई गई है जो समागम कर सकते हैं। इसके विपरीत वहाँ यह भी बताया गया है कि किससे समागम नहीं करना चाहिए। चूंकि समागम में सक्रिय, भागीदार पुरुष होता है इसलिए निषेध उसे ही निर्दिष्ट किये गये हैं। जैसे कि रजस्वाला, रुग्णा, गर्भिणी स्त्रियों से समागम नहीं करना चाहिए 139
खाद्य पदार्थ और गंध अर्थात् गंधाश्रय पुष्पादि एक बार ही सेवन करने योग्य होते हैं; इसके बाद वे सेवन के योग्य नहीं
23. । ...... विधीयते एष मया पुनः समस्तान्यधार्मिकै धर्मबुद्धया परप्रतारणबुद्धया
वा विधीयमानः सर्वोऽपि ध्यानाध्यायनादिः द्रव्यधर्म एव । तथा स्वदर्शनप्रतिपन्नानां श्रमणाऽऽदीनां चतुर्णामपि यच्चैत्यवन्दनप्रतिक्रमणस्वाध्यायाऽऽद्यनुष्ठानसे वनमविधिनाऽनुपयोगेन तथा परोपरोधपरचित्तरञ्जनवतां पार्श्वस्थादीनां च यदनुष्ठानं तदपि द्रव्य धर्म एव...... । - अ. रा.पृ. 4/2668
अ. रा. पृ. 4/2668, 2669
अ. रा. पृ. 4/2667
अ. रा. पृ. 4/2474
अ. रा. पृ. 1/517, 518
अ.रा. पृ. 6/880
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28.
29.
30.
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37.
अ.रा. पृ. 4/2462, 4/2471
षड् द्रव्य विचार, पृ. 104 105
अ. रा. पृ. 5/497; जैनेन्द्र सिद्धानन्त कोश, पृ. 3/146
अ. रा. पृ. 7/312; षड् द्रव्य विचार, पृ. 106 107
अ. रा. पृ. 1/15
पोरदुपधात् । अष्टाध्यायी 3.1.98 अति यत्प्रत्ययः ।
अ. रा.पू. 5/1603; उत्तराध्ययन, 33 अध्ययन
अ. रा. पृ. 2/997
तत्र गम्यधम्र्म्मो यथा दक्षिणापथे मातुलदुहिता गम्या, उत्तरापथे पुनरगम्यैव । - अ.रा. पृ. 4/2668
38. अतुल्यगोत्रस्य रजः क्षयान्ते रहोविसृष्टं कमिथुनीकृतस्य ।
किं स्याञ्चतुष्पातप्रभवं च षड्भ्यो यत्स्त्रीषु गर्भत्वमुपैति पुंसः ।
- चरकसंहिता, शारीरस्थान (अतुल्यगोत्रीय 2/3)
39. चरक संहिता, शरीर स्थान
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