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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [151] रहते - इन्हें भी आचार्यश्रीने गम्य-धर्म से सूचित किया है। इसके रहते हों50, उसे 'देश' कहा है। उसे ही 'राष्ट्र' भी कहते हैं ।। साथ ही जैन शासन में कुछ एसे पदार्थों को भी सूचीबद्ध किया राष्ट्रीय विधि-विधान, नियमों एवं मर्यादाओ का पालन करना; देश गया हैं जो भोग्य नहीं हैं, जैसे - 22 अभक्ष्य एवं 32 अनंतकाय के विकास, उन्नति, एकता एवं हित के लिये प्रयत्न करना; हर परिस्थिति आदि। में देश का गौरव बढाना एवं बनाये रखना; उस क्षेत्र से संबंधित जाति स्वभाव : उचित देशाचार का पालन करना-देश धर्म है।52 पशु धर्म : 3. नगर धर्म:पशुओं के तीन कार्य प्रमुख रुप से गिनाये गये हैं - आहार, अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने वृक्ष या पर्वतादि निद्रा एवं मैथुन। से युक्त स्थान को 'नकर' अर्थात् 'नगर' कहा है।53 ग्रामों के मध्य आहारनिद्राभयमैथुनं च, में स्थित व्यवासियक केन्द्र रुप मुख्य गाँव को 'नगर' कहते हैं ।54 समानमेतत्पशुभिर्नराणाम्। नगर में रहनेवाले नागरिकों के आवश्यक कर्तव्य जैसे कि धर्मो हि तेषां अधिको विशेषो, नगर की सुव्यवस्था, शांति, सुरक्षा, नागरिक-नियमों का पालन, हितधर्मेण हीना पशुभिः समानाः। - महाभारत चिंता, संरक्षण, संवर्धन करना-नगर धर्म है। साथ ही बोलचाल में यहाँ 'पशुधर्म' शब्द से पशुओं के मैथुन संबंधी गम्यागम्य नगर के अनुरुप भाषा का प्रयोग, स्त्रियों का घर से बाहर गमनागमन - अविवेक को संकेतित किया गया है। चूंकि पशु विवेक रहित होते हैं अतः उनमें यह विचार नहीं पाया जाता कि अमुक मेरी माता आदि भी नगर धर्म है। है, अमुक मेरी बहिन है आदि। जो मनुष्य काम-मनः प्रविचार में युगीन संदर्भ में गाँवों का और नगर में आये ग्रामीणों का विवेक नहीं रखते उनकी तुलना पशुओं से की गयी है। यह पशुधर्म शोषण न करना, गाँवों के संपूर्ण विकास हेतु प्रयत्न करना, यह भी मनुष्य योनि में अत्यन्त निन्द्य है। नगर-धर्म है। व्यवहार धर्म : 40. एवं भक्ष्याभक्ष्यपेयापेयविभाषा कर्तव्येति । अ.रा. पृ. 4/2668 41. अ.रा. पृ. 2/928 1. राज्य धर्म: 42. 'पशुधर्मो मात्रादिगमनलक्षणः।' वही, भाग 4/2668; मात्रादिगमनलक्षणे प्रत्येक राज्य के नीति-नियम, अधिकार और कर्तव्य, कर, पश्वाचारे। -वही, भाग 5, पृ.813 जीवन-शैली, मर्यादाएँ, भाषा, वेश-भूषा आदि अलग-अलग होते 43. अ.रा. पृ. 4/2669, 6/478 हैं। राज्य में रहने वाले या आगंतुक सभी को इसका पालन करना। 44. अ.रा. पृ. 4/1388,2628,2630 45. अ.रा. प. 4/13883; आचारांग 1/615; प्रश्नव्याकरण सूत्र-3, आस्त्रव द्वारा - यह राज्य धर्म है। साथ ही राज्य विरुद्ध षड्यंत्र नहीं रचना, 46. अ.रा. पृ. 4/1388 आचारांग, 1/615 कर चोरी नहीं करना, राज्य के हित एवं विकास तथा सुख-शांति 47. अ.रा. पृ. 4/1388 आचारांग, 1/615, वाचस्पत्यभिधान कोश एवं समृद्धि हेतु प्रयत्न करना - यह भी राज्य-धर्म है। 48. अ.रा. पृ. 4/2628 स्थानांग, 3/3 2. देश धर्म : 49. अ.रा. पृ. 4/2668; हारिभद्रीय अष्टक-12 अभिधान राजेन्द्र कोश में जणवय (जनपद), देस (देश), 50. अ.रा. पृ. 4/1388 भगवतीसूत्र- 9/6 और देसड (देश)- ये देश के पर्यायवाची शब्द हैं। राजेन्द्र कोश 51. अ.रा. पृ. 4/1388 52. अ.रा. पृ. 4/2628-29; स्थानांग, 10/760; जैन, बौद्ध और गीता का में जैनागमों के अनुसार जहाँ लोगों का निवास हो,45 जो क्षेत्र साधुओं समाज दर्शन, पृ. 99 के विहार-योग्य हो अर्थात् जहाँ जैन साधु-साध्वी विचरण करते हों, 53. अ.रा. पृ. 4/1792-93 एवं 2771 जहाँ बहुत लोग आते-जाते हो", जिसका जो जन्मस्थान हो, जो 54. अ.रा. पृ. 4/1793 ग्राम-नगरादि से युक्त हो", जो मनुष्य लोक हो अर्थात् जहाँ मनुष्य 55. अ.रा. पृ. 4/1793 एवं 2669 जलदान पानीयं प्राणिनां प्राणा-स्तदायत्तं हि जीवनम् । तस्मात्सर्वास्ववस्थासु, न क्वचिद्वारि वार्यते ॥ अन्नेनापि विना जन्तुः, प्राणान् धारयते चिरम् । तोयाभावे पिपासार्तः, क्षणात् प्राणैर्वियुज्यते ॥2॥ तृषितो मोहमायाति, मोहात् प्राणान् विमुञ्चति । तस्माज्जलमवश्यं हि, दातव्यं भेषजैः समम् ॥७॥ - अ.रा.पृ. 4/1426 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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