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________________ [152]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन लोकोत्तर धर्म : भाव धर्म भाव धर्म: 1. सामान्य - सर्वजनसाधारण के अनुष्ठान रुप और 'दंसण मूलो धम्मो'56 - इस अर्थ में 'धर्म' शब्द का 2. विशिष्ट - सम्यग्दर्शन, अणुव्रत, द्वादशव्रत रुप तथा क्षमादि 10 धर्मरुप। अर्थ करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - सम्यग्दर्शनादि के विषय में कर्मक्षय में कारणभूत आत्मपरिणाम को चित्त का हेतु या चित्त से उत्पन्न होने के कारण चारित्र (आचरण, क्रिया, सदनुष्ठान) को 'भाव धर्म' कहते हैं। धर्म कहते हैं। सम्यग्दर्शन के मूल गुण और उत्तर गुण की संहति अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि "शास्त्रोक्त रुप धर्म के अर्थ में 'धर्म' शब्द का प्रयोग होता है। धर्म सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानक्रियारुप मोक्ष के कारण एवं सुखादि के एकान्तिक कारण ज्ञान-चारित्र रुप है। रुप होने से जीवों को सुगति में धारण करने से (सुगति प्राप्त करवाने अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने धर्म की व्याख्या करते के कारण) इसे 'धर्म' कहते हैं। इस भावधर्म के पालन से जीव हुए कहा है कि शुद्ध अनुष्ठानजनित (शुद्ध भावपूर्वक की गई सेवा-पूजा, को मैत्री (परहितचिन्ता), करुणा (परदुःखविनाश), प्रमोद (परसुखसृष्टि) दर्शन, वंदन, सामायिक, पौषधादि धर्मक्रिया से उत्पन्न), कर्मरुप मल और मध्यस्थता (दूसरें के दोषों को दूर करने में असमर्थ होने पर (राग-द्वेष) को दूर करने रुप लक्षणयुक्त, निर्वाण के बीज रुप सम्यग्दर्शनादि समभाव या उपेक्षा) गुण प्राप्त होता है21 (और) समतापूर्वक मध्यस्थ के लाभ रुप जीव की शुद्धि ही धर्म है। अतः सिद्धांत से अविरुद्ध भाव धारण करने के लिए तीर्थंकरों ने भाव धर्म कहा है। यह होने के कारण अनुष्ठान/धर्मक्रिया को 'धर्म' कहते हैं।60 भाव धर्म ही वास्तव में जैनधर्म है अतः सप्रसंग हम यहाँ 'जैनधर्म' 'चारित्तं खलु धम्मो'61 - इस अर्थ में 'धर्म' पद की की चर्चा करेंगे। व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है 56. जैनेन्द्र सिद्धन्त कोश, पृ. 2/465; दर्शनपाहुड 12; पंचाध्यायी-716 दुर्गति में पडे हुए प्राणियों का उद्धार करके उनको शुभस्थान में 57. अ.रा.पृ. 4/2665; सूत्रकृतांग, 2/5 अध्ययन; धारण करने के कारण इसे धर्म कहते हैं अथवा दुर्गतिस्पी खाई में 58. अ.रा.पृ. 4/2665 पडे हुए प्राणियों के उद्धार के लिये जीव के परिणाम को धर्म कहते । 59. अ.रा.पृ. 4/2665; सूत्रकृतांग -2/5/15; जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, 2/467 हैं, अथवा दुर्गति में पडे हुए प्राणियों का उद्धार कर उन्हें सुगति में 60. I..... इत्थं च शुद्धनुष्ठानजन्या कर्मलापगमलक्षणा सम्यग्दर्सनादिस्थापित करना - धर्म है। धर्म का अर्थ आचार, कुशल अनुष्ठान, निर्वाणबीजलाभफला जीवशुद्धिरेव धर्मः । यच्चेहाविरुद्धवचनादनुष्ठानं धर्म इत्युच्यते । अ.रा. पृ. 4/2666 संसार के उद्धार का स्वभाव, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग8, अभ्युदय 61. अ.रा.पृ. 4/2665 और मोक्ष की सिद्धि का साधन, पुण्य-लक्षण रुप आत्म-परिणाम भी 62. अ.रा.पृ. 4/2665; दशवैकालिक सूत्र सटीक 1/1; सूत्रकृतांग 1/11; है । भाव-धर्म या चारित्र धर्म के अर्थ में यति और श्रावक के आचार 63. अ.रा.पू. 4/2665 को', श्रुत और चारित्र धर्म के लिए कर्मक्षय के कारणभूत आत्मपरिणाम 64. अ.रा.पृ. 4/2665; स्थानांग, 1, ठाणां, सूत्रकृतांग 1/11 को, सर्वज्ञ भगवंतो के द्वारा प्ररुपित अहिंसादि लक्षण को,73 65. अ.रा.पृ. 4/2665 66. विशेषावश्यक सभाष्य, गाथा 1918 सम्यक्त्वी4, क्षमा आदि दशविध यतिधर्म को 5, प्राणातिपातविरमण 67. सूत्रकृतांग 1/6 आदि श्रावक धर्म को6, श्रुत और चारित्र धर्म को", दानादि श्रावक 68. अ.रा.पृ. 4/2665: आचारांग 1/3/1 धर्म को, और क्षायिक चारित्र को अभिदान राजेन्द्र कोश में 'धर्म' 69. धर्मसंग्रह सटीक, 1 अधिकार कहा है। 70. आवश्यक बृहदृत्ति, 4 अध्ययन; सूत्रकृतांग 2/5 आगे अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने लोकोत्तर धर्म 71. धर्मसंग्रह सटीक, 2 अधिकार 72. सूत्रकृतांग, 2/5 को 1. ज्ञान 2. दर्शन और 3. चारित्र रुप से तीन प्रकार से भी बताया 73. दर्शनशुद्धि सटीक, 1 तत्त्व है; वह प्रत्येक पाँच-पाँच प्रकार से है 74. दर्शनशुद्धि सटीक, 1 तत्त्व; सूत्रकृतांग 1/15; 1. ज्ञान - मति-श्रुत-अवधि-मनः पर्यव और केवलज्ञान। 75. अ.रा.पृ. 1/279; सूत्रकृतांग 1/1/1; -तत्त्वार्थसूत्र 9/6 2. दर्शन - औपशमिक, सास्वादा, क्षायोपशमिक वेदक 76. अ.रा.पृ. 4/2666 और क्षायिक सम्यकत्व। 77. अ.रा.प. 4/2665: उत्तराध्ययन 25 अध्ययन; सूत्रकृतांग 2/5 78. संथारग पयत्रा सटीक 3. चारित्र - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, सूक्ष्म संपराय, 79. स्थानांग, 3/1; सूत्रकृतांग 2/5 परिहार विशुद्धि और यथाख्यात चारित्र । 84. अ.रा.पृ. 4/1938 भाव धर्म के चार प्रकार: 85. अ.रा.पृ. 4/2626 1. दान 2. शील 3. तप और 4. भाव । यह भाव धर्म (1) 86. अ.रा.पृ. 4/26683; तत्त्वार्थसूत्र 9/18 87. अ.रा.पृ. 4/2668 साधु और (2) गृहस्थ - आचरणकर्ता के भेद से दो प्रकार का है। जैन 88. अ.रा.पृ. 4/2669 श्रमण दीक्षा ग्रहण के दिन से सकल सावद्ययोग के त्यागपूर्वक 89. अ.रा.पृ. 4/266 गुरूपदेश से अहिंसापूर्वक यथाशक्ति अनशनादि तप का आचरण 90. अ.रा.पृ. 4/2669 करता है, उसका जो धर्म/स्वभाव, वहभाव धर्म-श्रमण धर्म है । 91. अ.रा.पृ. 4/2667; श्रमण धर्म का आचरण करने में असमर्थ लोगों के लिए उसी का स्थूल 92. अ.रा.पृ. 4/2672 रुप गृहस्थ धर्म है। गृहस्थ धर्म भी दो प्रकार से हैं 93. अ.रा.प्र. 4/2676 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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