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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेटकर वापिस कलकत्ता होकर भरतपुर आ गये। 19
वैराग्यभाव :
माता-पिता की वृद्धावस्था एवं दिन-प्रतिदिन गिरते स्वास्थ्य के कारण दोनो भाई माता-पिता की सेवा में लग गए। अंततः रत्नराज ने उनको अंतिम आराधना करवाई एवं एक दिन के अंतर में मातापिता दोनों ने समाधिभाव से परलोक प्रयाण किया | 20
माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् उदासीन रत्नराज आत्मचिन्तन में लीन रहने लगे। नित्य अर्ध-रात्रि में, प्रातः काल में कायोत्सर्ग, ध्यान, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन आदि में समय व्यतीत करते रहे । सुषुप्त वैराग्यभावना के बीज अंकुरित होने लगे। इतने में उसी समय (वि.सं. 1902) में पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी का चातुर्मास भरतपुर में हुआ। आपका तप त्याग से भरा वैराग्यमय जीवन एवं तत्त्वज्ञान से ओत-प्रोत वैराग्योत्पादक उपदेशामृतने रत्नराज के जिज्ञासु मन का समाधान किया जिससे रत्नराज के वैराग्यभाव में अभिवृद्धि हुई । फलस्वरुप उनकी दीक्षा - भावना जागृत हुई और वे भागवती दीक्षा ( प्रवज्या) ग्रहण करने हेतु उत्कंठित हो गये | 21
साधुजीवनवृत्त -
दीक्षा :
दीक्षा को उत्कण्ठित रत्नराज में उपादान उछल रहा था, केवल निमित्त की उपस्थिति आवश्यक थी। निमित्त का योग विक्रम सं. 1904 वैशाख सुदि 5 (पंचमी) को उपस्थित हो गया और इस प्रकार अपने बड़े भ्राता माणिकचन्द्रजी की आज्ञा लेकर रत्नराज ने उदयपुर (राज.) में पिछोला झील के समीप उपवन में आम्रवृक्ष के नीचे श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरि जी से यतिदीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार आपके दीक्षा गुरु आचार्य श्री प्रमोद सूरि जी थे । अब नवदीक्षित मुनिराज मुनि श्री रत्नविजयजी' के नाम से पहचाने जाने लगे 122
अध्ययन :
"पढमं नाणं तओ दया 23 अर्थात् ज्ञान के बिना संयम जीवन की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं हैं। इस बात को निर्विवाद सत्य समझकर गुरुदत्त - ग्रहण - आसेवन शिक्षा के साथ साथ मुनि श्री रत्नविजयजीने दत्तवित्त होकर अध्ययन प्रारंभ किया। व्याकरण, काव्य, अलंकार, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, कोश, आगम आदि विषयों का सर्वांगीण अध्ययन आरम्भ किया ।
मुनि रत्नविजयजीने गुर्वाज्ञा से खरतरगच्छीय यति श्री सागरचंदजी के पास व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि का अध्ययन किया (वि.सं. 1906 से 1909) 124 तत्पश्चात् निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि पंचागी सहित जैनागमों का विशद अध्ययन वि.सं. 1910-11-12-13 में श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास किया । इनकी अध्ययन जिज्ञासा और रुचि देखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने इन्हें विद्या की अनेक दुरुह और अलभ्य आमनायें प्रदान की 125 श्री राजेन्द्रसूरियस (पूर्वार्द्ध) के लेखक रायचन्दजी के अनुसार मुनि रत्नविजय ज्योतिष का अभ्यास जोधपुर (राजस्थान) में चंद्रवाणी ज्योतिषी के पास किया । 26
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बडी दीक्षा :
वि.सं. 1909 में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि त्रीज) के दिन श्रीमद्विजय प्रमोद सूरि जी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको दीक्षा दी। 27 साथ ही श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरि जी एवं श्री देवेन्द्रसूरि जी ने आपको उस समय पंन्यास पद भी दिया 128 अध्यापन :
आपकी योग्यता और स्वयं की अंतिम अवस्था ज्ञातकर श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरिने अपने बाल शिष्य धरणेन्द्रसूरि जी (धीर विजय) को अध्ययन कराने का मुनि श्री रत्नविजयजी को आदेश दिया। 29 गुर्वाज्ञा व श्रीपूज्यजी के आदेशानुसार आपने वि.सं. 1914 से 1921 तक धीरविजय आदि 51 यतियों को विविध विषयों का अध्ययन करवाया और स्व- पर दर्शनों का निष्णात बनाया। 30
श्रीपूज्य श्री धरणेन्द्रसूरिने भी विद्यागुरु के रुप में सम्मान हेतु आपको 'दफ्तरी' पद दिया । 1 दफतरी पद पर कार्य करते हुए आपने वि.सं. 1920 में राणकपुर तीर्थ में चैत्र सुदि 13 ( महावीर जन्मकल्याणक ) के दिन पांच वर्ष में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह किया 132
वि.सं. 1922 का चातुर्मास प्रथम बार स्वतंत्र रुप से 21 यतियों के साथ झालोर में किया 33 इसके बाद वि.सं. 1923 का चातुर्मास श्रीपूज्य श्री धरणेन्द्रसूरि के आग्रह से घाणेराव में उन्हीं के साथ हुआ। 34
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आचार्य पद पर आरोहण पृष्ठभूमि और प्रक्रियाऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्षाकाल में ही घाणेराव में 'इन' के विषय में मुनि रत्नविजय का श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि से विवाद हो गया। श्री रत्नविजय जी साधुचर्या के अनुसार साधुओं को 'इत्र' आदि उपयोग करने का निषेध करते थे जबकि धरणेन्द्रसूरि
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प्रथम परिच्छेद... [3]
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श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 15, जीवनप्रभा पृ. 16
विरल विभूति, पृ. 8 से 11; जीवनप्रभा पृ. 7; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 15 श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 16 से 18; जीवनप्रभा पृ. 6, 7, 8
जीवनप्रभा पृ. 9; धरती के फूल पृ. 55; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 18; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 6 दशवैकालिकसूत्र मूल 4/10
जीवनप्रभा पृ. 10-11; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 17; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 19; राजेन्द्र सूरि अष्टप्रकारी पूजा 4/1, 4
जीवनप्रभा पृ. 11
श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 17
श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 4; जीवनप्रभा पृ. 11; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 19
श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 4; जीवनप्रभा पृ. 11; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 20
श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 21 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 18 जीवनप्रभा पृ. 14-15; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 18 यो हि योग्यग्रामादौ चतुरो मासान् स्थातुं यतीनादिशेत्, अपराधिनाममीषामुचितं दण्डयेत कस्मैचित् पंन्यासोपाध्यायाद्युपाधिप्रदाने प्रमाणपत्र वितरेत्, श्री पूज्यस्याऽऽयव्ययकोषांश्च प्रबन्धयेत, स एवं 'दफतरी' निगद्यते । सम्मान्यते चैष तत्पसंप्रदाये महामात्यसाम्येन ।
- कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनीगतो जीवनपरिचयः पृ. 5 टिप्पणी जीवनप्रभा पृ. 19; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 25, 28, 33 विरल विभूति, पृ. 33
जीवनप्रभा पृ. 15, राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 23 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 32, 36
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