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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
तृतीय परिच्छेद... [123]
पक्ख - पक्ष (पुं.) 5/67
जिसके द्वारा गिरता है वह, शरीर का दोनों तरफ का हिस्सा, निकट किसी का एक भाग, 15 दिन प्रमाण कालमान, 'पक्ष' कहलाता हैं। 'पक्ष' शब्द की दार्शनिक व्याक्या 'अनुमान' शब्द के अन्तर्गत अभिधान राजेन्द्र कोश के, प्रथम भाग में दी गयी हैं। पक्खाभास - पक्षाभास (पुं.) 5/67
प्रतीतसाध्यधर्मविशेषण, निराकृतसाध्यधर्मविशेषण और अनभीप्सितसाध्यधर्मविशेषण 'पक्षाभास' कहलाता हैं। पयरणसम - प्रकरणसम (न)5/71
यह हेत्वाभास का ही एक भेद हैं। जिस हेतु के कारण प्रकरण का चिन्तन हो, वही निर्णय के लिए ले लिया जाये तो उस हेतु को प्रकरणसम हेत्वाभास कहा जाता हैं। जैसे- वादी ने कहा कि 'शब्द अनित्य है, नित्य धर्मानुपलब्धि के कारण' । इस पर प्रतिवादी ने कहा -'यदि इस प्रकार से अनित्यता सिद्ध करना चाहते हो तो नित्यता की सिद्धि भी हो सकती हैं, जैसे - शब्द नित्य (है), अनित्य धर्मानुपलब्धि के कारण। पच्चक्ख - प्रत्यक्ष (न.) 5/73
व्यवहार में 'अक्ष' का इन्द्रिय अर्थ करने पर 'इन्द्रियों' की अधीनतापूर्वक जो उत्पन्न होता है, वह 'प्रत्यक्ष' है जबकि ज्ञान के विषय में जैन दर्शन में 'अक्ष' शब्द का अर्थ 'आत्मा' करने पर जो जीव के प्रति साक्षात् (ज्ञान) होता है, जो इन्द्रिय और मन से निरपेक्ष हो उसे 'प्रत्यक्ष' कहते हैं। व्यवहार में चक्षुरादि इन्द्रिय देखने की क्रिया में प्रत्यक्ष मानी जाती हैं। अध्यात्म ज्ञान में जैनागमों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष और शेष तीन अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान को 'प्रत्यक्ष' माना गया हैं। जैन दार्शनिक भाषा में अनुमानादि की अधिकता से विशेष प्रबलतर ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम या क्षय से जो विशेष (ज्ञान) स्पष्ट होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं।
यहाँ प्रत्यक्ष के व्यवहारिक पक्ष में वैशेषिकों का मत बताकर जैनागमोक्त प्रत्यक्ष का लक्षण बताकर प्रत्यक्ष के भेद प्रभेद बताते हुए इन्द्रियप्रत्यक्ष - पांचों इन्द्रियों के भेद से पाँच प्रकार का और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष अवधि ज्ञान आदि तीन प्रकार का बताकर उनका विस्तृत परिचय दिया गया हैं। पच्चक्खाभास - प्रत्यक्षाभास (पुं.) 5/121
'प्रत्यक्ष' ज्ञान नहीं होने पर भी प्रत्यक्षवद् दिखाई देता हो, उसे 'प्रत्यक्षाभास' कहते हैं। इसके दो भेद हैं1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास - जैसे बादल में गन्धर्व नगर का ज्ञान, या दुःख में सुख का ज्ञान।
2. पारमार्थिक प्रत्यक्षभास - जैसे शिवराजर्षि का असंख्यात द्वीप- समुद्रों में से सात द्वीप-समुद्र का ही ज्ञान । पज्जाअ - पर्याय (पुं.)
जो आते हैं, फिर चले जाते हैं लेकिन पदार्थ की तरह ध्रुव नहीं रहते, उसे 'पर्याय' कहते हैं। जीव और अजीव पदार्थ के मनुष्यत्व, बालत्व आदि कालकृत अवस्थारुप अर्थ को 'पर्याय' कहते हैं।
यहाँ पर पर्याय के स्व-पर, युगपद्भावी-क्रमभावी, शब्द-अर्थ, स्वाभाविक-अपेक्षिक, अतीत-अनागत-वर्तमान, आदि अनेक प्रकारों का परिचय दिया गया हैं। पडिसेह - प्रतिषेध (पं.)5/369
निराकरण, निवर्तन, निषेध और वस्तु के असत् अंश को 'प्रतिषेध' कहते हैं। प्रतिषेध के चार प्रकार हैं (1) प्रागभाव (2) प्रध्वंसाभाव (3) इतरेतराभाव और (4) अत्यन्ताभाव । पडुप्पण्णदोस - प्रत्युत्पन्नदोष (त्रि.) 5/371
सर्वथा वस्तु की प्राप्ति होने पर अकृताभ्यागम, कृतविनाश आदि वर्तमानकालिक विशेष दोष को 'प्रत्युत्पत्र दोष' कहते हैं। पद्धंसाभाव - प्रध्वंसाभाव (पुं.) 5/434
पदार्थ की उत्पत्ति होने पर तत्संबन्धी पहले उत्पन्न हुए कार्य का अवश्यंभावी विघटन (नाश) उस कार्य का 'प्रध्वंसाभाव' कहलाता है। जैसे-कलश रुप पदार्थ (कार्य) की उत्पत्ति होने पर तत्संबन्धी पूर्वोत्पन्न कपाल, कदम्बादि का नाश। प्रमाण - प्रमाण (नपुं.) 5/443
जिस साधन से प्रकर्षतापूर्वक संशयादि रहित स्वाभाविकरुप से पदार्थ को जाना जाय, जिससे हेय-उपादेय, प्रवृत्ति-निवृत्ति रुप पदार्थ भेद किया जाय और जो स्व-पर व्यवसायी ज्ञान है उसे 'प्रमाण' कहते हैं।
प्रमाणमीमांसा दर्शन शास्त्र का महत्त्वपूर्ण विषय है औह जैनदर्शन में प्रमाण के बारे में मौलिक विचार उपलब्ध हैं। जैनदर्शन सम्मत प्रमाण को निम्नलिखित अभिलेख से समझा जा सकता हैं
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