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________________ [122]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं। अन्यवस्तु के उपन्यास से भिन्न उत्तरभूत वस्तु जिस उपन्यासोपनय में कही जाये उस उपन्यासोपनय को तदन्यवस्तुक कहते हैं। जैसे 'जले चरन्ति इति जले पतितानि जलचरा' - एसा कहने पर इसका खंडन करने के लिए पतन से भिन्न उत्तर कहते है- और जो गिरा कर खाता है या ले जाता है (चर भक्षणे/गमने च) वे क्या होते हैं? जल और स्थल में गिरे हुए पत्र जलचर-स्थलचर आदि जीव नहीं बन जाते, जैसे-मनुष्य आदि में आश्रित जीव (जू आदि) मनुष्यचर नहीं बन जाते । इसी तरह सभी जलगत जलचर नहीं हो जाते। तिरिक्खसामण - तिर्यक् सामान्य (पुं)4/2318 (एक ही जाति की) भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में तुल्य (एक समान) परिणति को 'तिर्यकसामान्य' कहते हैं। जैसे भिन्न-भिन्न सभी घटों में 'घटत्व'। दव्व - द्रव्य (नपुं.) 4/2462 जो स्वपर्यायों को प्राप्त करता है और छोडता है, उन-उन पदार्थों में गमन करता है, उसे द्रव्य कहते हैं। तथा रुप-रसादि गुणों के समुदाय रुप घटदि को द्रव्य कहते हैं। तद्योग्य भूत और भविष्य के पर्याय वर्तमान में प्राप्त नहीं होने पर भी जो उसके योग्य है उसे ही 'द्रव्य' कहते हैं। जो स्वगुण और स्वपर्याय का आधार तीनों काल में सदा स्वजाति की अपेक्षा से एक रुप में रहता है, पर पर्याय में परावर्तित नहीं होता है, उसे 'द्रव्य' कहते हैं। द्रव्य के सहभावी धर्म को 'गुण' और क्रमभावी धर्म को 'पर्याय' कहते हैं। जैन दर्शन में जीवअजीव-धर्म-अधर्म-आकाश (अस्तिकाय) और काल - ये छः द्रव्य हैं जिनका अभिधान राजेन्द्र कोश में यथास्थान विस्तृत परिचय दिया गया है। (आहार संबन्धी द्रव्यों का वर्णन शोध प्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में किया जायेगा।) दिटुंत - दृष्टांत (पुं)4/2509 विवक्षित साध्य-साधन के संबन्ध का अविनाभावरुप प्रमाण के द्वारा जहाँ परिच्छेद (विभाग, अंत) होता हो, उसे 'दृष्टान्त' कहते हैं। नंदीसूत्र में उसे साध्य की उपमाभूत माना है। विशेषावश्यक भाष्य में दृष्टान्त का अर्थ 'उदाहरण' किया है। और वाचस्पति कोश में दृष्टांत का अर्थ 'मरण' भी किया है। 'दृष्टान्त' के द्वारा अर्थ की प्रतिपत्ति होती हैं। दिट्टतभास - दृष्टान्तभास (पुं.) 4/2510 जिसमें साध्य अर्थ की प्रतिपत्ति न होती हो, एसे दुष्ट दृष्टान्त को 'दृष्टान्तभास' कहते हैं। यहाँ पर साधर्म्य एवं वैधम्य दृष्टान्तभास के 9-9 प्रभेदों का भी विस्तृत वर्णन किया गया हैं। देवउत्तवाइ (ण) - देवोप्तवादि (न) (पुं.) 4/2614 देव-किसान के द्वारा बीज वपन (बोवणी) करके - यह लोक (संसार) निष्पादित (उत्पन्न) किया गया है- एसी प्ररुपणा करनेवालों को 'देवोप्तवादी' कहते हैं। धम्मवाय - धर्मवाद 4/2731 जिस वाद में धर्म की प्रधानता हो उसे धर्मवाद कहते हैं। स्थानांग, ठाणा 10 में इसका स्वरु प बताया गया है- स्वशास्त्र के तत्त्वज्ञान से युक्त मध्यस्थ एवं पापभीरु के द्वारा तत्त्वबुद्धि से किया गया वाद धर्मवाद कहलाता हैं। पइणा - प्रतिज्ञा (स्त्री.)5/4 साध्य वचन के निर्देश को 'प्रतिज्ञा' कहते हैं। जैनागमों में आप्त वचन के निर्देश को भी प्रतिज्ञा कहते हैं। सूत्रकृतांग में 'नियम' को भी प्रतिज्ञा कहा हैं। पड़णाविरोह - प्रतिज्ञा विरोध (पुं.) 5/5 हेतु के विरोध को 'प्रतिज्ञाविरोध' कहते हैं। पइणासणास - प्रतिज्ञा संन्यास (पुं.)5/5 पक्ष के प्रतिषेध के विषय में प्रतिज्ञात अर्थ के अपनयन को 'प्रतिज्ञासंन्यास' कहते हैं। पड़णाहानि - प्रतिज्ञाहानि (स्त्री.) 5/5 हेतु के अनेकान्तिक होने पर प्रतिदृष्टान्त धर्म का स्वदृष्टान्त में जानेरुप 'निग्रहस्थान' को 'प्रतिज्ञाहानि' कहते हैं। यह निग्रहस्थान का एक भेद हैं। पएस - प्रदेश (पुं.) 5/22 देश का छोटा भाग, जो अलग से (पदार्थ के) टुकडेरुप भाग नहीं हो फिर भी भाग कहलाता हो, धर्म-अधर्म आकाश-जीव और पुद्गलों का निरवयवत्व, पदार्थ का निरंश अवयव में परिणाम, नपा हुआ परिमाण, राज्य का एक भाग और कर्म के दलिकों का संचय'प्रदेश' कहलाते हैं। पंचभूतवाइ - पञ्चभूतवादिन् (पुं.) 5/50 "पृथ्वी आदि पांच ही भूत हैं, 'आत्मा' इनसे अलग पदार्थ नहीं है" - एसी प्रतिज्ञापूर्वक वाद करनेवाले नास्तिकों को 'पञ्चभूतवादी' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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