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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [121] णिमित्त (निमित्त) शब्द की व्याख्या में इसे हेतु का एक भेद माना गया हैं। सहकारिकारण और निमित्तकारण भेद से दो अर्थों में 'निमित्त' शब्द का प्रयोग होता है - यह उल्लेख भी वहाँ है, किन्तु 'निमित्तकारण' शब्द के अन्तर्गत उदाहरण के द्वारा अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पट का निमित्त तन्तु ही है, क्योंकि तन्तुओं के बिना पट की उत्पत्ति नहीं हो सकती; और पटगत तानादि चेष्टा के बिना भी पटोत्पत्ति नहीं होती, तान आदि चेष्टा में वेमा (काष्ठयन्त्र) कारण हैं। 'निमित्तकारण' शब्द के अन्तर्गत अन्यद्रव्यकारणभेदे'(आवश्यकचूर्णि) कहकर उपादानकारणभिन्न द्रव्य को भी निमित्तकारण कहा गया हैं। इस प्रकार 'निमित्तकारण' की व्याख्या में कुछ अस्पष्टता आ गयी हैं। दर्शनशास्त्र में उपादान द्रव्यरुप कारण को तो समवायिकारण कहा गया है और उपादानभिन्न सहोपस्थित (सहकारि) द्रव्यरुप कारण को निमित्तकारण कहा गया हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में जो पटतन्तु का उदाहरण दिया है वह भी उपादान कारण में सही घटित होता है। निमित्तकारण के उदाहरण में इसे दिया जाना विचारणीय विषय हैं। हमारे विचार से कार्य की उत्पत्ति में सहायकरुप से उपस्थित रहनेवाले कारण को निमित्त कारण कहते हैं। जिस सहकारिकारण (द्रव्य) के बिना कार्य की उत्पत्ति असंभव है, एसे कारण को 'निमित्तकारण' कहते हैं। जैसे - जुलाहा पट का निमित्त कारण है क्योंकि, जुलाहा के बिना पटरुप कार्य की निर्वृत्ति हो नहीं सकती। णियइ - नियति (स्त्री.)4/2085%; णियइवाइ (ण) - नियतिवादिन् (पुं.) 4/2087 जगत में जीवों को जो भी सुख, दुःख आदि का अनुभव होता हैं वे सभी भाव 'नियति' के अधीन है; काल, ईश्वर, स्वभाव, कर्म पुरुषार्थकृत कारणजन्य नहीं - एसी प्ररुपणा करनेवालों को 'नियतिवादी' कहते हैं। णियावाइ (ण) - नियतवादिन् (पुं.)4/2108 लोक नित्य है, वस्तु (पदार्थ) नित्य है, उत्पाद और व्यय (विनाश) आविर्भाव और तिरोभाव मात्र है। एकान्तरुप से ऐसी प्ररुपणा करनेवालों को 'नियतवादी' कहते हैं। णिव्वाण - निर्वाण (न.) 4/2121 आत्मा की कर्मजनित विकार से रहित स्वरुप स्थिति, सर्वद्वन्द्वमुक्त स्थिति, सकल कर्म के विरह से उत्पन्न सुख, सकल कर्मक्षयरुप आत्यन्तिक सुख, परम पद, मोक्ष स्थान की प्राप्तिरुप, कर्मक्षयरुप, ईषत्प्राग्भार नामक पृथ्वी के उपर लोकांत स्थित क्षेत्र (स्थान) को 'निर्वाण' कहते हैं। णिव्वाणवाइ (ण) निर्वाणवादिन (पं.) 4/2129 'निर्वाण' (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए तदनुरु प मार्ग के उपदेशक 'तीर्थंकरो' को 'निर्वाणवादी' कहते हैं। तक्क - तर्क, तत्क (पुं.) तक्र (नपु.) 4/2129 तर्क के अतिरिक्त 'तक्क' शब्द का संस्कृत में तक्र = छाछ और तत्क अर्थात् ईदृश (एसा) रुप भी होता हैं। संभवित पदार्थ/अर्थ के अस्तित्व के अध्यवसायरुप ऊहा को 'तर्क' कहते हैं। संशय उपर उठने के लिये सत् अर्थ की विचारणारुप (चिंतनात्मक) ज्ञान विशेष को 'तर्क' कहते हैं। रत्नाकरावतारिका के अनुसार - 'उपलम्भ - अनुपलम्भरुप प्रमाण के द्वारा जिसकी उत्पत्ति संभव है - एसा त्रिकालवर्ती साध्य-साधन संबन्ध का आद्य आलम्बन जिसके होने पर ही होता है, एसी आद्याकार संवेदनरुप ऊहा को 'तर्क' कहते तक्वाभास - तीभास - (पु.) 4/2170 तर्क का (तर्क के) लक्षण से रहित होना या तर्क की व्याप्ति का असत् होना तर्काभास' कहलाता हैं। तज्जीवतच्छरीरवाइ (ण) - तज्जीवतच्छरीरवादिन् (पुं.) 4/2172 जैसे पृथिव्यादि पांच भूतों से शरीर उत्पन्न होता है, वैसे उसी से आत्मा उत्पन्न होती है। बाल, पंडित, मूर्ख आदि प्रत्येक के शरीर में अलग-अलग आत्मा है। वह शरीर व्यापी है, सर्वव्यापी नहीं। शरीर का नाश होने पर आत्मा का भी नाश होता है। देहनाश होने पर आत्मा को अन्यत्र जाता नहीं देखा जाता है, परलोक आदि नहीं है, आत्मा स्वयंकृत कर्मो के फल का भोक्ता नहीं है" -इस प्रकार की प्ररुपणा करनेवाले नास्तिकों को 'तज्जीवतच्छरीरवादी' कहते हैं। तत्त - तत्व (नपुं.) 4/2180 स्वाभाविक पदार्थ (परम अर्थ), पदार्थ का स्वरुप, परमार्थ से उत्पन्न, परस्पर निरपेक्ष सामान्य विशेषात्मक जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध संवर, निर्जरा, मोक्षरुप तत्त्व; तथा धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल-जीव-कालरुप द्रव्य; और नित्यानित्य स्वभावयुक्त सामान्यविशेषात्मक शाश्वत चौदह रज्जुलोकरुप लोक (जगत, संसार) को 'तत्त्व' कहते हैं। तयणवत्थुक - तदन्यवस्तुक (पुं.) 4/2196 'तयण्णवत्थुक' प्राकृत शब्द का रुपान्तर 'तदन्यवस्तुक' हैं। 'तदन्यवस्तुक' शब्द उपन्यास और उदाहरण के भेद के रुप में प्रयुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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