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[120]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जोग - योग (पुं.) 4/1613
अप्राप्त ईप्सित वस्तु की प्राप्ति, बीजाधानादि भेद, पोषण, क्षेमकरण, संयोग, मेलन, वर्मादि धारण, शब्दादि का प्रयोग, सामुदायिक शब्द के अवयवार्थ के संबन्ध में, विधिकर्तानुकूल परिवार एवं संपत्ति के विषय में, द्रव्य से मन-वचन-काय के व्यापार के विषय में 'योग' शब्द का प्रयोग होता हैं।
यहाँ पर योग के द्रव्य-भाव, प्रशस्त-अप्रशस्त, मन-वचन-काया, सालम्बन-निरालम्बन, स्वकीय-परकीय, स्थान-वर्ण-अर्थ-आलम्बनएकाग्रता, प्रतीति-भक्ति-वचन-असङ्ग अनुष्ठान, संप्रज्ञात-असंप्रज्ञात, आत्मा-परमात्मा, वृषभानुजात-वेणुकानुजात-मञ्च-मञ्चादिमञ्च, छत्र-छत्रादिछत्रयुगनद्ध-धन-प्रीणित-मण्डुकप्लुत आदि अनेक भेदों का विस्तृत वर्णन किया गया हैं। णाणवाइ - ज्ञानवादिन् (पुं.)4/1993
यथावस्थित वस्तु (तत्त्व) के परिज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती हैं- ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक वाद या प्ररुपणा करनेवालों को 'ज्ञानवादी' कहते हैं। णास - नाश (पुं)4/2015
'णास' अर्थात् ध्वंस, अभाव। 'नाश' दो तरह से होता है(1) रुपान्तर परिणाम-यथा अंधकार का तेजस में।
(2) अर्थान्तर परिणाम- जैसे परमाणु से अणु की उत्पत्ति या अणु से द्वयणुक की उत्पत्ति । णत्थिअ - नास्तिक (पुं.) 4/1805
जीव नहीं है या परलोक नहीं है- एसी जिसकी बुद्धि है, उसे 'नास्तिक' कहते हैं। जीव नहीं है, जन्म नहीं है, (जीव को) इस लोक या परलोक में पुण्य-पाप आदि कुछ स्पर्श नहीं करता, सुकृत-दुष्कृतों का फल नहीं है, शरीर पंचमहाभूत रुप है, वातयोगयुक्त होने से प्राणवायु के द्वारा सभी क्रियाओं में प्रवर्तित होता है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच महाभूत (स्कन्ध) हैं, मन को मनजीविका कहते हैं, वायु जीव है, इस भव के प्रत्यक्ष जन्म रुप जीव का एक ही भव है, शरीर नाश के साथ आत्मा का और तत्कृत सर्व शुभाशुभ कर्मो का नाश होता हैं अतः परलोकादि कुछ भी नहीं है- एसी प्ररुपणा करनेवाले सभी लोगों को 'नास्तिक' कहा हैं।
यहाँ आत्मा (धर्मी) के विषय में एक 'चार्वाक' ही नास्तिक प्रतीत होता है और धर्म (आत्मा के विविध धर्म) के विषय में सभी परतीर्थिक 'नास्तिक' प्रतीत होते हैं। णाहिय - नास्तिक (पुं.) 4/2016
जैनागमों में आत्मा, परलोक, मोक्ष-कुछ भी नहीं है एसी मान्यतावाले चार्वाक (लोकायतों) को धर्मी (आत्मा) के विषय में नास्तिक और सभी परतीर्थको को धर्म के विषय में 'नास्तिक' कहा हैं णाय - न्याय (पुं.) 4/2002
जिसके द्वारा निश्चय से मोक्ष में जाने रुप गमन क्रिया हो उसे न्याय कहते हैं। अभिष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए सम्यग् उपाय को 'न्याय' कहते हैं। जीवन कर्म के अनादिकालीन आश्रय-आश्रयी भावसंबन्ध को जो दूर करता है, उसे 'न्याय' कहते हैं। अन्यत्र श्रुतोपदेश, निर्णायक, लोगों के अर्थ (धन), भूमि, द्रव्य आदि से सम्बन्धित लम्बे विवाद को भी दूर करना, मुमुक्षुओं के लिए आचरणीय सन्मार्ग, जिससे वस्तु की 'संवित्ति' प्राप्त होती हो, प्रस्तुत अर्थ का साधक प्रमाण, उपपत्ति, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य और शूद्रों का आजीविका रुप अनुष्ठान, विचलन रहित मार्ग और अतिदेश 'न्याय' कहलाता हैं। णिगमण - निगमन (न.) 4/2029
निश्चित गमन, निश्चित विषय में साध्य धर्म की पुनः प्राप्ति 'निगमन' कहलाता है। यह 'अनुमान' प्रमाण का दसवाँ अवयव हैं।
यहाँ 'निगमनभास' की भी व्याख्या करते कहा है कि, "साधन धर्म के साध्यधर्म में अथवा साध्यधर्म को दृष्टान्त धर्म में उपसंहरित करना 'निगमनाभास' कहलाता हैं। णिग्गहट्ठाण - निग्रहस्थान (न.) 4/20533; निग्गहट्ठाण - निग्रहस्थान - 4/2773
निग्रहस्थान के अन्तर्गत निग्रहस्थान का स्वरुप बताते हुए प्रतिज्ञाहानि आदि बाईस निग्रहस्थानों को स्पष्ट किया गया है। साधनाभास में साधनबुद्धि और दूषणाभास में दूषणबुद्धि विप्रतिपत्ति है, और साधन में दोष न दिखा सकना और दूषण का उद्धार न कर सकना अप्रतिपत्ति है, विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति भेद से निग्रहस्थान दो प्रकार का है। बाईस निग्रहस्थानों को तत्तत् शब्दों के अन्तर्गत भी स्पष्ट किया गया
णितियावाइ (ण) - नित्यावादिन् (पुं.)4/2071
मोक्ष की स्थिति नित्य नहीं है अर्थात् मोक्षप्राप्त जीव भी संसार में पुनः लेते है-ऐसी प्ररुपणा करनेवालों को 'नित्यावादी' कहते हैं। णिमित्तकारण-निमित्तकारण (न.) 4/2082
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