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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
यहाँ सभी ख्यातियों को उदाहरण देकर समझाया गया है, यथा
1. 'यह रजत हैं' इस ज्ञान में पुरोवर्ती शुक्तिशकल का आलम्बन होकर 'रजत' में 'यह' विशेषण दिया गया हैं, यहाँ पर प्रत्यक्ष 'रजत' से स्मृतिशक्ति भी प्रसंगयुक्त है जो कि विवेक से प्रतिभासित नहीं होती। इस प्रकार यह अविवेकख्याति हैं । 2. 'यह रजत है' - यह तो प्रतिभासमान वस्तुस्वरुप है वह न तो ज्ञानधर्म है ( क्योंकि ज्ञानधर्म तो अनहंकारास्पद होता है) और नही अर्थधर्म है (क्योंकि उसके द्वारा साध्य अर्थक्रिया का वहाँ (ज्ञान में) अभाव हैं। इस प्रकार वहाँ असत् ही प्रतिभासित होता है। इस प्रकार यह असत्ख्याति है ।
3. प्रतीतिसिद्ध अर्थ ही विपर्यज्ञान में प्रतिभासित होता है। मरीचिकाचक्र में जल पदार्थ की प्रतिभा है, उस देश की ओर उपसर्पण होने पर उत्तरकाल में जल के प्रतिभास का अभाव होने से उसकी असत्ता है, किन्तु जब दूर खड़े रहकर देखने पर जल प्रतिभासित होता है तब तो जल पदार्थ का ज्ञान होता है जो कि वहाँ नहीं है। इस प्रकार यह प्रसिद्धार्थख्याति है (अभिधान राजेन्द्र में विपरीतख्याति इसे ही कहा गया हैं) ।
4. 'शक्ति' में 'यह रजत है' ऐसा रजतप्रतिभास होता है जबकि उस शुक्तिबाह्य पदार्थ का प्रतिभास बाधककारण होने से उपपन्न नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि जैसा प्रतिभासित होता हो पदार्थ भी वैसा ही हो, क्योंकि वहाँ भ्रान्तत्व के अभाव का प्रसंग आयेगा। इसलिए अनादि अविद्यारुप वासना-संस्कार के सामर्थ्य से ज्ञान का ही यह आकार बाहर प्रतिभासित होता हैं । यह आत्मख्याति हैं ।
गुण (पुं, नपुं. ) - गुण (पुं.) 3 / 905
'गुण' शब्द के अनेक वाच्य हैं, जैसे-धनुष की प्रत्यंचा, अप्रधान, शुभ्र, प्रशस्तता । इसके अतिरिक्त द्रव्याश्रित 'धर्म' के अर्थ में भी गुण शब्द का प्रयोग हैं। गुणविशेष को भी गुण कहा जाता है, जैसे-स्मृति, जिज्ञासा, चिकीर्षा, जिगमिषा, आशंसा इत्यादि जीव के ज्ञानगुण के विशेष है। ज्ञान - ज्ञान विशेष, दर्शन-दर्शनविशेष और चारित्र - चारित्रविशेष भी गुण शब्द से कहे जाते हैं।
तृतीय परिच्छेद... [119 ]
अभिधानराजेन्द्र में उपरोक्त साधारण परिचय देते हुए गुण के पन्द्रह निक्षेप, मूल स्थान रूप गुण, गुण का लक्षण, गुण और पर्याय में भेद, द्रव्य, गुण और पर्याय में भेद, जैनदर्शन में स्वीकृत गुण आदि विषयों का परिचय दिया गया हैं।
गुणविसेसासय- गुणविशेषाश्रय (पुं.) 3 / 930
द्रव्य, गुण और कर्म के समुदाय को 'गुणविशेषाश्रय' कहते हैं । यहाँ प्रस्तुत शब्द का अनेक प्रकार से विग्रह कर उसका परिचय दिया गया हैं।
चव्वाग - चार्वाक (पुं.) 3 / 1166
लोकायत, भूतवादी, आत्मा-परलोक-मोक्ष- पुण्य-पाप आदि को नहीं माननेवालों को 'चार्वाक' कहते हैं। ये शरीरनाश के साथ ही आत्मा का भी नाश मानते हैं।
चाउज्जाम - चातुर्याम (पुं.) 3 / 1168
अहिंसा, सत्य, अदत्तादान (अचौर्य) और अपरिग्रह रुप चार महाव्रतमय धर्म को 'चातुर्याम' धर्म कहते हैं। ये मैथुन विरमण व्रत को अचौर्य और अपरिग्रह के अन्तर्गत मानते हैं । जैनों के मध्य के 22 तीर्थंकर चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं।
छल छल (न.) 3 / 1352, 1353
वंचना और कूट (कपट) प्रयोग को 'छल' कहते हैं। इसके तीन प्रकार हैं- वाक्छल, सामान्यछल और उपचार छल । जइच्छावाइ - यदृच्छावादिन् (पुं.) 4 / 1364
बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति के प्ररुपक वादी को 'यदृच्छावादी' कहते हैं ।
जाइ - जाति (स्त्री.) 4/1437
'जाई' शब्द का संस्कृत रुपान्तर 'जाति' है। जाति शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है, जैसे- जन्म, योनि, क्षत्रियादि वर्ण, सामान् सत्ता। इनमें सत्ता/सामान्य दार्शनिक पदार्थ हैं। यहाँ जैनदर्शन में स्वीकृत सत्ता एवं सामान्य का स्वरुप बताते हुए न्याय-वैशेषिकोक्त सत्ता / सामान्य का स्वरुप एवं जातिबाधकसंग्रह आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा की गयी हैं।
जीव जीव (पुं.) 4/1519
जो प्राणों को धारण करता है, जीवन बिताता (जीता) है, उपयोग (ज्ञान- दर्शनादि) रुप लक्षणवाला है, उसे 'जीव' कहते हैं । यहाँ पर चारों निक्षेप से जीव द्रव्य की सिद्धि, जीव का लक्षण, जीव का कथंचित् नित्यानित्यत्व, जीव और चैतन्य का भेदाभेद, जीव के विषय में नय का उपदेश, जीवों के भेद-प्रभेद, जीव का स्वरुप, उसके भङ्ग, जीव का प्रमाण एवं गत्यादि द्वारों से जीव का विस्तृत वर्णन किया गया है।
जुत्ति - युक्ति (स्त्री.) 4 / 1577
सर्व प्रमाण नयगर्भित, लिङ्गज्ञानादि के विषय में अनुमान के साधन को 'युक्ति' कहते हैं । वह असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक दोष रहित पक्षधर्मत्व, सपक्षत्व, विपक्षत्व व्यावृत्ति रुप होती हैं।
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