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[118]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रमाणमीमांसा में 'कार्यसम' जात्युत्तर का स्वरुप बताया गया हैं। अभिधानराजेन्द्र में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा प्रणीत सम्मतितर्क प्रकरण को उद्धत करते हुए इसका स्वरुप बताया गया हैं। जैसे कार्यत्वसामान्य के अनित्यत्वसाधकरुप से उपन्यास स्वीकार कर लेने पर धर्मभेद से विकल्पनवाले बुद्धिमत्कारणत्व के विषय में पृथ्व्यादि के कार्यत्वमात्र से साध्य अभीष्ट होने पर कार्यत्व आदि के विकल्पन से उपस्थित करनेवाले के, सामान्य कार्यत्व और नित्यत्व के विपर्यय में बाधकप्रमाण के बल से व्याप्ति की सिद्धि में कार्यत्वसामान्य शब्दादि धर्मी में उपलभ्यमान अनित्यत्व को साधता हैं। इस प्रकार वहाँ पर कार्यत्वमात्र के ही हेतुरुप से उपन्यास होने पर जो धर्मविकल्पन किया जाता है वह पूरे अनुमान के उच्छेदकरुप से कार्यसम जाति को प्रस्तुत करता हैं; यथा
'कार्यत्वान्यत्वलेशेन यत्साध्यासिद्धिदर्शनम्' । कम्म - कर्म (न.) 2/243
जिस क्रिया, व्यापार या योग से कार्य की निष्पत्ति होती हैं उसे तथा अनुष्ठान और सावध (जीवहिंसामय) कार्य को 'कर्म' कहते हैं। .
___ यहाँ पर कर्म के भेद-प्रभेद, भङ्ग, स्वरुप, शिलाभेद, नैयायिक-वैयाकरण सम्मत कर्म पदार्थ निरुपण, कर्म निक्षेप, स्वरुप, सिद्धि, कर्म के मूर्तत्व का आक्षेप एवं परिहार, जगद्विचित्रतापूर्वक कर्म की सिद्धि, जीव और कर्म का संबन्ध, अनादित्व, हेतुत्व, कर्म का पुण्यत्वपापत्व, सत्ता एवं अकर्मवादी, मूर्तवादी, ईश्वरवादी, स्वभाववादी, गोष्ठामाहिल, क्रियावादी आदि के मत का वर्णन कर उनका खंडन किया गया है। कम्मवाइ (ण) - कर्मवादिन् (पुं.) 6/341
जगत की समस्त विचित्रता केवल कर्म से ही कर्म के फल (विपाक) स्वरुप होती हैं। कर्म से ही सब कुछ है, पुरुष नहीं। इस प्रकार की कर्म के पक्ष में प्रतिज्ञा करके वाद करनेवाले को 'कर्मवादी' कहते हैं। इस सिद्धांत के द्वारा नियतिवादी और ईश्वरवादियों का निरासन किया गया हैं। कारण - कारण (न.) 3/465
जिसके द्वारा क्रिया की निष्पत्ति होती है, उस हेतु को 'कारण' कहते हैं। यहाँ पर कारण के भेद-प्रभेद का वर्णन किया गया है, साथ ही कारण और कार्य के भेदाभेद स्वरुप की दार्शनिक चर्चा जैन सिद्धांतानुरुप की गई हैं। कारणदोस - कारणदोष (पुं.) 3/468
'साध्य' के प्रति 'हेतु' के व्यभिचार को 'कारणदोष' कहते हैं। कालाच्चयावदिट्ठ - कालात्ययापदिष्ट (पुं.) 3/490
तत्संबन्धी क्रिया का समय (काल) बीत जाने के बाद अर्थ (पदार्थ) के एक देश (भाग) को कहनेवाले हेतु को 'कालात्ययपदिष्ट हेतु' (कालात्ययापदिष्ट दोष से गृहीत हेतु) कहते हैं। कालवाइ (ण) - कालवादिन् (पुं.) 3/492
"समस्त जगत काल (समय) के द्वारा निर्मित है, संसार में जो कुछ होता है, वह सब काल के आधीन है। जैसे, ऋतु विभाग, मनुष्य की शिशु-बाल-युवा-वृद्धादि अवस्थाएँ, फल-फूल आदि की उत्पत्ति आदि सभी कार्य काल से ही होते हैं" - इस प्रकार की प्ररुपणा करनेवाले वादी को 'कालवादी' कहते हैं। किरियावाइ - क्रियावादिन् (पुं.) 3/555
"ज्ञानादि रहित केवल क्रिया ही स्वर्ग और मोक्ष का साधन हैं। परलोक साधना के लिये केवल क्रिया ही पर्याप्त हैं" - एसी प्ररुपणा करनेवालों को 'क्रियावादी' कहते हैं। यहाँ पर क्रियावादी के 180 भेद भी दर्शाये हैं। . कुतक्क - कुतर्क (पुं.) 3/581
शब्द और अर्थ के विकल्परुप, अविद्या से निर्मित, प्रायः अज्ञान से उत्पन्न, सत्कार्य का अहेतु, कुटिल आवेशरुप तर्क को 'कुतर्क' कहते हैं। यहाँ कुतर्क का स्वरुप एवं फल (हानि), बताकर मुमुक्षुओं के लिये उसे त्याज्य बताया गया है। खणियवाइ - क्षणिकवादिन् (पुं.) 3/704
सर्व पदार्थो के एकान्त क्षणभङ्गरत्व (क्षण मात्र में नाश) प्रतिपादक बौद्धो को 'क्षणिकवादी' कहते हैं।
यहाँ पर बौद्धों के पांच स्कन्ध की पूर्वपक्ष में प्ररुपण कर उसका निरसन, क्षणिकत्व का प्ररुपणपूर्वक खंडन, उसके स्वीकार में होनेवाली व्यवहार हानि का विचार, वासना का निरुपण, सर्वथा विनाश रुप अभाव का प्ररुपण, क्षणभङ्गवाद में अनुत्पन्न व्यवहार का निरुपण, क्षणभङ्गवाद मानने से दीक्षा की विफलता बताते हुए अश्वमित्रादि बौद्धों को शिक्षा दी गई हैं। खाई - ख्याति (स्त्री.) 3/735
__दार्शनिक शब्द 'ख्याति' के लिए प्राकृत भाषा में 'खाई' शब्द प्रयुक्त हुआ हैं। ज्ञान के विषय में दर्शनशास्त्र में चार प्रकार की ख्याति मानी गयी हैं; 'अख्याति' 'अन्यथाख्याति', 'आत्मख्याति' और 'असत्ख्याति' । अख्याति का पर्याय विवेकाख्याति और अन्यथाख्याति का पर्याय विपरीताख्याति भी हैं। 'ख्याति' विवेचन प्रकरण में अनिर्वचनीय ख्याति नामक एक उपभेद भी बताया गया है।
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