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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
तृतीय परिच्छेद... [117]
अवणयावणयचउक्क - उपनयापनय चतुष्क (न.) 2/925
उपनय, अपनय के चारों प्रकार के वचन मिलाकर सोलह वचनों के वचन चतुष्क को 'उपनयापनय चतुष्क' कहते हैं। उवणासोवणय-उपन्यासोपनय (पुं.) 2/926
वादी के द्वारा अभिमत अर्थ की सिद्धि के लिए वस्तु का लक्षण कहने पर उसके विघटन के लिए प्रतिवादी के द्वारा जो विरु द्ध अर्थवाला उपनय या पर्यनुयोग उपन्यास अथवा उत्तर उपनय किया जाय, उसे 'उपन्यासोपनय' कहते हैं। उवमाण - उपमान (न.) 2/932
जिसके द्वारा द्राष्यन्तिक अर्थ की उपमा दी जाय, जो उपमान-उपमेय के निर्णायक रुप समान आलंबन हो - उसे 'उपमान' कहते हैं। यहाँ 'उपमान' प्रमाण के विषय में जैन सिद्धांतानुसार विस्तृत दार्शनिक चर्चापूर्वक इसे 'अनुमान' प्रमाण के अन्तर्गत माना गया हैं। उवलद्धि - उपलब्धि (स्त्री.) 2/940
'उवलद्धि' का संस्कृत रुपान्तर 'उपलब्धि' हैं। यह शब्द प्रमाणविज्ञान में बहुलता से प्रयुक्त हैं। अभिधानराजेन्द्र में उपलब्धि का अर्थ 'ज्ञान' किया गया हैं। यह 'ज्ञान' गुणवाच्यार्थवान् न होकर क्रिया (भाव) अर्थ में समझना चाहिए, जैसा कि स्पष्ट होता है
उपलम्भनमुपलब्धिः ज्ञाने । अर्थात् पदार्थ का आत्मज्ञान में प्रतिबिम्बन होना। इस प्रकार प्रत्यक्षादि सभी प्रमाणों से उपलब्धि हो सकती हैं। किन्तु यहाँ 'उपलब्धि' शब्द विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ पर इसके पाँच कारण बताकर पाँच भेद किये गये हैं - सादृश्यतः, विपक्षतः, उभयदर्शनतः, औपम्यत: और आगमतः - ये पाँच उपलब्धियाँ होती हैं। अभिधानराजेन्द्र में इन सभी को भेद-प्रभेद और उदाहरण के साथ समझाया गया है।
आगे प्रकारान्तर से भी उपलब्धि के दो भेद किये गये हैं : अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि। पुनः इनके भी उपभेदों का विस्तार से विवेचन करते हुए बौद्धादि मतों में स्वकृत उपलब्धि के स्वरुप का निरसन किया गया हैं। जिज्ञासु को यह सब 'अभिधान राजेन्द्र' से देखना चाहिए। ऊहा - ऊहा (स्त्री.) 2/1215
वितर्कात्मक तर्कबुद्धि और अध्याहार को 'ऊहा' कहते हैं। एगंतदिट्ठि - एकान्तदृष्टि (त्रि.) पृ 3/4
जिसकी दृष्टि निश्चयपूर्वक जीवादि तत्त्वों के विषय में (स्थिर) होती हैं उसे 'एकान्तदृष्टि' कहते हैं। 'एकान्तदृष्टि' शब्द का प्रयोग 'निष्प्रकम्प (दृढ) सम्यक्त्व' के विषय में होता हैं। एगंतवाय - एकान्तवाद (पुं.) पृ. 3/5
पदार्थ-निरुपण के विषय में नियमपूर्वक 'नित्य' या 'अनित्य' एक ही पक्ष के ग्रहण की प्रतिज्ञापूर्वक किये जानेवाले वाद को 'एकान्तवाद' कहते हैं। जैनदर्शन की दृष्टि में पदार्थ (वस्तु, सत्) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त होने से (तत्त्वार्थ सूत्र 5/30) एकान्तवाद का ग्रहण 'मिथ्यात्व' है अतः यहाँ पर प्रसंगत: आचार्यश्री ने सम्मतितर्क और स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार एकान्तवाद का खंडन भी किया हैं। और एकान्तवादियों के दोष बताते हुए कहा है- एकान्तवाद में सुख-दुःख, पुण्य-पाप आदि नहीं घटते । एकान्तवादी स्व (पक्ष की) प्रशंसा, एवं पर (पक्ष की) निंदा के आग्रही होने के कारण सर्वदा अनंत संसार में भ्रमण करते हैं। एगप्प - एकात्मन् (पुं.) 3/14; एकप्पवाय - एकात्मवाद (पुं.) 3/14
चेतन-अचेतन सर्व पदार्थ एक ही आत्मा के विवर्त हैं - इस प्रकार की अद्वैतवादियों की प्ररुपणा/प्रतिज्ञा 'एकात्मवाद' कहलाती
हैं।
एगस्सय - एकाश्रय (त्रि) 3/31
जिसका एक ही आश्रय/आधार/आलंबन होता है, उसे 'एकाश्रय' कहते हैं। 'एकाश्रय' शब्द का प्रयोग अनन्यगति, एकाधारवृत्ति और वैशेषिक दर्शनोक्त गुण के भेद के रुप में होता हैं। कज्जकारणभाव - कार्यकारणभाव (पुं.) 3/187
कार्य और कारण के सम्बन्ध को 'कार्यकारणभाव' कहते हैं। हेतु-हेतुमद्भाव के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। जैसे - घट और दण्ड में 'घट' दण्ड के प्रति कार्य है और 'दण्ड' घट का कारण है। अन्यान्यदर्शनों में 'कार्यकारणभाव' निम्नानुसार हैं
(1) सत्कार्यवाद (2) असत्कार्यवाद (3) सदसत्कार्यवाद
बौद्ध असत् कारण से कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। नैयायिक उत्पत्ति के पूर्व असत्कारणव्यापार से कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। सांख्य उत्पत्ति के पहले भी सत्कारण व्यापार मानते हैं। वेदान्ती सत् से विवर्त की उत्पत्ति मानते हैं। यहाँ इन सब का तर्कपूर्वक खंडन करते हुए कथंचित्सत् और कथंचित् असत् रुप पदार्थ से कार्य की उत्पत्ति होती हैं - ऐसे जैन सिद्धांत की प्ररुपणा की हैं। कज्जसम - कार्यसम (न) 3/201
'कार्यसम' शब्द के अर्थ में प्राकृत शब्द 'कज्जसम' आया है। यह जात्युत्तर (जाति) नामक अनुमान दोष हैं। सभी दर्शनों में
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