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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
तृतीय परिच्छेद... [125]
में दिया गया ज्ञान का विशेषण -'स्वपर व्यवसायि' स्व-समय प्रसिद्ध अर्थात् जैन सिद्धान्त द्वारा प्रतिष्ठित 'दर्शन' अर्थात् प्रमाण-प्रमेय मीमांसा रुप शास्त्र में प्रयुक्त प्रमाणभूत 'ज्ञान' का है। इससे व्यावृत्तिरुप यह अर्थ भी सुनिश्चित किया है कि अज्ञानरुप व्यवहारमूलक स्वरुप प्रवणता को ग्रहण नहीं करते हुए अर्थात् असद्भूत और मिथ्याज्ञान से भिन्न सद्भूत और सम्यग्ज्ञान का यह विशेषण हैं। इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक द्वारा 'स्व-पर व्यवसायि' विशेषण का सार्थकत्व स्पष्ट करते हुए अन्ययोगव्यवच्छेदपरक व्यावृत्ति स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि इस विशेषण से नैयायिक कल्पित सन्निकर्षादि अचेतन की प्रमाणभूतता पराकृत (दूर) कर दी जाती हैं। साथ ही बौद्धों के द्वारा स्वीकृत निर्विकल्प ज्ञान की प्रामाणिकता भी इसी से परास्त हो जाती हैं ।10 'व्यवसायि' विशेषण का दूसरा प्रयोजन जैन सिद्धान्त में संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरुप मिथ्याज्ञान से ज्ञान का व्यवच्छेद करना हैं ।।।
प्रमाण के स्वरुप के प्रकरण से आचार्यश्री ने अद्वैतवादी, मीमांसक, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक - इन वेदोपजीवी दार्शनिकों के द्वारा प्रतिपादित प्रमाण के स्वरुप के प्रत्याख्यान के साथ ही भूतचैतन्यवादी लौकायतिक एवं अन्य वेद प्रतिगामी दार्शनिकों के प्रमाण स्वरुप का भी प्रत्याख्यान किया है। प्रमाण शब्द के अन्तर्गत आचार्यश्रीने जिन विषयों का विमर्श किया हैं उनकी सूची निम्नानुसार हैं।
1. प्रमाण का लक्षण 2. प्रमाण ज्ञान ही है - इसका समर्थन 3. सन्निकर्ष विचार 4. नायनरश्मि विचार 5. निर्विकल्पकज्ञानप्रामाण्यवादियों का प्रतिपादन, ज्ञान के 'व्यवसायिक' विशेषण का समर्थन 6. ज्ञान का स्वतः -परतः प्रामाण्य, जैमिनी मत का निराकरण 7. मीमांसक मत निराकरण 8. द्रव्यादि चार प्रकार का प्रमाण 9. वाद के विषय में विचार एवं धर्मवाद की कर्तव्यता की मुख्यता का विधान 10. प्रमाण के स्वरुपपूर्वक प्रमाण की संख्या 11. प्रमाण के फल 12. प्रमाण और प्रमाण के फल को एकान्त अभिन्न माननेवाले बौद्धों के मत का निराकरण ।
इन विषयों के अन्तर्गत संशय-विपर्यय-अनध्यवसायरुप तीन प्रकार के मिथ्याज्ञान के स्वरुप को भी स्पष्ट किया गया हैं जो कि प्रमाणभूत तो नहीं हैं, परन्तु प्रमाण से विपरीतता युक्त होने के कारण प्रमाण के विषय हैं। क्योंकि जब तक मिथ्याज्ञान का स्वरुप न समझा जाय तब तक उससे व्यावृत्ति होना संभव नहीं।
यह समस्त विवरण आचार्यश्री के स्वयं के शब्दों में गुंफित और अत्यधिक विस्तृत है, साथ ही इस शोध-प्रबन्ध की परिधि से बाहर है इसलिए जिज्ञासुओं को वहीं से अवलोकन करना चाहिए।
जैनसिद्धान्त में प्रमाण के साथ प्रमाणैकदेश (नय) को भी स्वीकार किया गया है, और वह चार प्रकार के निक्षेपों के द्वारा पदार्थो का सम्यग्ज्ञान कराते हैं अतः यहीं पर नयों का विवरण भी दिया जाना उचित हैं। णय - (नय) (पुं.) 4/1852 'नय' शब्द की सार्थकता :
1. अनेक अंशवान् वस्तु के एकांश का अवलंबन करके वस्तु को ज्ञान का विषय बनाने हेतु ज्ञान की ओर ले जाना 'नय'
हैं। अथवा वस्तु की ओर से ज्ञान के आश्रय में जिसके द्वारा ले जाया जाय, उसे 'नय' कहते हैं। 2. अमुक स्वभाव से अमुक स्वभाव का परिच्छेद जिससे किया जाय, उसे 'नय' कहते हैं । 'नय' शब्द का प्रयोग अनंतधर्मात्मक वस्तु
के एकांश के परिच्छेद के अर्थ में किया गया है। 3. अनंत धर्मात्मक वस्तु से नियत एक धर्म के अवलंबन से वस्तु को प्रतीति का विषय बनाने के अर्थ में 'नय' शब्द प्रयुक्त
हैं। 9. ज्ञायते प्राधान्येन विशेषो गृह्यतेऽनेनेति ज्ञानम् । एतच्च विशेषणम् - अज्ञानपुरस्य व्यवहार धुराधौरेयतां अनादधानस्य सन्मात्रगोचरस्य स्वसमयप्रसिद्धस्य दर्शनस्य,...
- अ.रा.पृ. 5/443 10. सन्निकर्षाऽऽदेश्चाऽचेतनस्य नैयायिकाऽऽदिकल्पितस्य प्रामाण्यपराकरणार्थम् । तस्याऽपि च प्रत्यक्षरुपस्य शाक्यैर्निविकल्पकतया प्रामाण्येन जल्पितस्य,... I - वही 11. संशयाविपर्ययानध्यवसायानं च प्रमाणत्वव्यवच्छेदार्थं व्यवसायीति... । वही 12. अ.रा.पृ. 5/477 13. नयत्यनेकांशाऽऽत्मकं वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयतीति, नीयते वा अनेन तस्मिन् ततो वा नयनं नयः । - अ.रा.पृ. 4/1852; उत्तराध्ययन, | अध्ययन 14. नीयते परिच्छिद्यतेऽनेनास्मादिति वा नयः । अनंतधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छितौ । - वही
15. अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो नियतैकधर्मात्मकावलम्बनेन प्रतीतौ प्रापणे । - वही Jain Education International For Private & Personal Use Only
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