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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [287] 'गुप्ति' शब्द की व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि मन-वचन काय का कुशल योगों में प्रवर्तन और अकुशल (अप्रशस्त) योगों से निवर्तन 'गुप्ति, कहा जाता है। आत्मा में आनेवाले आगन्तुक कचरे (कर्म रुपी कचरा) का निरोध करना 'गुप्ति' कही जाती है। मुमुक्षु का आत्मसरंक्षण के विषय में अशुभ योगों का निग्रह 'गप्ति' है। संवर, तयालीसवीं गौण अहिंसा।4, आत्यन्तिक रक्षा, संलीनता, मन, वचन, काया का गोपन करना (सम्यग् निग्रह करना), गुप्ति है”। गुप्ति के भेद : __ अभिधान राजेन्द्र कोश एवं अन्य जैनागमों में गुप्ति के तीन भेद दर्शाये हैं 1. मनोगुप्ति 2. वचनगुप्ति 3. काय गुप्ति मनो गुप्ति : अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार अशुभ पदार्थो/विषयों के चिन्तन से मन का नियंत्रण करना, 'मनोगुप्ति' है" । आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने मनोगुप्ति की परिभाषा बताते हुए कहा है कि, "कल्पना (संकल्पविकल्प) के जाल से सर्वथा मुक्त, समता भाव में सुप्रतिष्ठित (स्थिर), मन का आत्मा (आत्मारुपी उद्यान/आराम) में लयलीन होना, उसे विद्वानों के द्वारा 'मनोगुप्ति' कहा जाता है। " नियमसार के अनुसार रागद्वेष से मन परावृत्त होना, यह मनोगुप्ति है।4। पुरुषार्थसिद्धयुपाय पीठ पीछे किसी की निंदा नहीं करना चाहिए एवं किसी भी दो व्यक्तियों की बात-चीत में उनके द्वारा बिना बुलाये बीच-बीच में नहीं बोलाना चाहिए। (3) एषणा समिति : मुनि के द्वारा संयम निर्वाह एवं धर्माराधना हेतु मनवचन-काया और करण-करावण-अनुमोदन रुप नव कोटि (प्रकार) शुद्ध, गवेषणा-ग्रहणेषणा-ग्रासैषणा के उद्गम-उत्पाद, शंकित, धूमादि 42 दोषों से रहित आहार, जल, रजोहरण, मुहपत्ति, वस्त्र, शय्या, पाट-पाटला, आसन, दण्ड, दण्डासन आदि ग्रहण करना, एषणा समिति हैं। एषणा समिति तीन प्रकार की हैं(1) गवेषणा - दोष रहित आहर, पानी, वस्त्र, पात्र, उपधि पुस्तक आदि को एवं वसति (रहने हेतु स्थान) ढूंढना। (2) ग्रहणेषणा - उसे दोष रहित ग्रहण करना। (3) ग्रासैषणा - आहारादि को उपयोग में लेते समय धूमादि दोषों से बचकर वापरना। (4) आदानभाण्डमात्रक निक्षेपणा समिति : भाण्ड अर्थात् उपकरण, मात्र अर्थात् - पात्रादि । मुनि के द्वारा दंड, दण्डासण, आसन, रजोहरण, मुहपत्ति, संधारा, आदि संयम के उपकरण, पात्र, मात्रक (प्याला), मिट्टी का घडा आदि तथा वस्त्रादि को एवं पुस्तकादि ज्ञान के उपकरणों को अच्छी तरह से प्रतिलेखन-प्रमार्जनपूर्वक ग्रहण करना या रखना आदानभाण्डमात्रकनिक्षेपणा समिति है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में इसे आदान-निक्षेपण समिति कहा है25 । आदानभाण्डमात्रक निक्षेपणा समिति के भङ्ग- इसके सात भङ्ग हैं, इनमें से अंतिम भङ्ग ही प्रशस्त होने से ग्राह्य (आचरणीय) हैं, शेष नहीं26। (1) पात्रादि प्रतिलेखन नहीं करना, प्रमार्जन नहीं करना। (2) पात्रादि प्रतिलेखन करना, प्रमार्जन नहीं करना। (3) पात्रादि प्रतिलेखन नहीं करना, प्रमार्जन नहीं करना। (4) पात्रादि का दुःप्रतिलेखन करना, दुःप्रमार्जन करना। (5) पात्रादि का दुःप्रतिलेखन नहीं करना, दुःप्रमार्जन करना। (6) पात्रादि का दुःप्रतिलेखन करना, दुःप्रमार्जन नहीं करना। (7) पात्रादि का अच्छी तरह से प्रतिलेखन करना, प्रमार्जन करना। (5) उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-शिङ्गाण-परिष्ठापनिका समिति : मल, मूल, थूक, श्लेषण, प्रस्वेद आदि का सम्यक् प्रकार से प्रतिलेखित-प्रमार्जित स्थंडिल भूमि पर त्याग करना ‘परिष्ठापनिका' समिति है। उपरोक्त परठने योग्य त्याज्य पदार्थों को मुनि एकान्त स्थान, अचित स्थान, दूर, छिपा हुआ, बिल रहित, छेद रहित, चौडा, दावाग्नि से दग्ध, हल से जुता हुआ, मसान (श्मशान), खार सहित भूमि, त्रस जीवों से रहित, जन रहित, हरी घासादि से रहित, प्रासुक भूमि पर जहाँ लोग जैनशासन या साधु-साध्वी की निंदा या विरोध न । करें और परठते रोके नहीं, एसे स्थान पर दृष्टि-प्रतिलेखन कर (अच्छी तरह देखकर) मल-मूत्र-मूत्रादि का त्याग करें- यह मुनि की पारिष्ठापनिका समिति हैं28 | तत्त्वार्थ सूत्र में पारिष्ठापनिका समिति को उत्सर्ग समिति कहा है। 22. अ.रा.पृ. 5/1545 से 1550; राजवार्तिक 9/5; ज्ञानार्णव-18/8-9: जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/341 23. अ.रा.पृ. 3/72; स्थानांग, 3, 5 वाँ ठाणां; सूत्रकृताङ्ग-1/1; धर्मसंग्रह, 2 अधिकार; उत्तराध्ययन, 6 ठा और 24 वाँ अध्ययन; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश4/341 अ.रा.पृ. 27240 7/423; ; स्थानांग, 5/3; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/341; उत्तराध्ययन-24/13, 14 25. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ 4/339, 341 26. अ.रा.पृ. 2/240 आवश्यक बृहवृत्ति 4/105 पर टीका 27. अ.रा.पृ. 2/761; समवयाङ्ग, 5 वाँ समवाय 28. अ.रा.पृ. 4 'थंडिल' शब्द; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/341, 342; तत्त्वार्थ सूत्र 9/5 पर तत्त्वार्थ भाष्य 29. तत्त्वार्थ सूत्र-9/5 30. अ.रा.पृ. 3/933; स्थानांग 3/1; मूलाचार 331; द्रव्यसंग्रह-35 पर टीका 31. वही; आवश्यक मलयगिरि, प्रथम खंड 32. वही; धर्मसंग्रह, अधिकार 3, भगवती आराधना-115 पर विजयोदया टीका 33. वही; विशेषावश्यक भाष्य 34. वही; प्रश्नव्याकरण-1 संवर द्वार 35. बृत्कल्पसभाष्य वृत्ति, । उद्देश 36. वही; पाक्षिक सूत्र सटीक 3 37. अ.रा.पृ. 3/933; तत्त्वार्थसूत्र 9/4 38. अ.रा.पू. 3/933; स्थानांग-3/1; तत्त्वार्थसूत्र 9/4 पर तत्त्वार्थभाष्य; सवार्थसिद्धि 9/4, पृ. 411; मूलाचार 5/135-136; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 2/248 39. अ.रा.पृ. 6/83; उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 24 40. वही; योगशास्त्र 1/41 41. नियमसार 66, 69; ज्ञानार्णव 18/15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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