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________________ [288]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के अनुसार मन का सम्यक्ततया निरोध करना, 'मनो गुप्ति' हैं।42 काय गुप्ति :अभिधान राजेन्द्र कोश में मनोगुप्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं।3 अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार काय का अशुभ व्यापार 1. आर्तरौद्रध्यानानुबन्धिनी कल्पना जाल के वियोगस्या प्रथमा से गोपन (रक्षण) करना, 'कायगुप्ति' है। । गमनागमन करते हुए, चलते मनोगुप्ति । हुए, किसी भी पदार्थ को ग्रहण करते हुए, स्यन्दन (बाधा रहित 2. शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिनी गमनागमन) आदि क्रियाओं का गोपन करना, 'कायगुप्ति' हैं किसी मध्यस्थपरिणतिस्मा द्वितीया मनोगुप्ति । स्थान में बैठते-उठते, सोते हुए, किसी भी पदार्थ या स्थान के उपर कुशल-अकुशल मनोवृत्ति निरोध के द्वारा से उल्लंघन करते हुए, प्रलङ्घन (सामान्य उल्लंघन) करते हुए, इन्द्रिययोगनिरोधावस्थाभाविनी आत्मारामतास्या तृतीया व्यापार (इन्द्रियविषयक प्रवृत्ति) करते हुए, स्थान में रहते हुए संरम्भ मनोगुप्ति । (अभिधान), समारम्भ (दृष्टि, मुष्टि या अन्य हिंसासूचक मुखादि से मनोगुप्ति के उत्तराध्ययन सूत्रोक्त भेदों को उद्धृत करते हुए जनित अभिघात (हिंसा), और आरम्भ (जीव हिंसामय कायिक प्रवृत्ति) आचार्यश्रीने मनोगुप्ति के निम्नांकित चार प्रकार उदाहरण सहित प्रस्तुत में कायिक प्रवृत्ति का नियंत्रण करना, 'काय गुप्ति' हैं53 | नियमसार किये हैं के अनुसार बंधन, छेदन, मारण, आकुंचन (संकोचन), प्रसारण इत्यादि 1. सत्या मनोगुप्ति - जगत् में जीवादि तत्त्व विद्यमान हैं - कायिक क्रियाओं की निवृत्ति 'काय गुप्ति' है । अथवा औदारिकादि इस प्रकार सत्य (सत्) पदार्थों का मन में चिन्तन करना। शरीर की क्रियाओं से निवृत्त होना कायगुप्ति है, अथवा हिंसा चोरी मृषा मनोगुप्ति - 'जीव नहीं है' -इस प्रकार से मन में आदि पाप क्रियाओं से परावृत्त (दूर) होना कायगुप्ति है। असत् चिन्तन करना। काय गुप्ति के प्रकार:सत्यामृषा मनोगुप्ति- आम्रवृक्षबहुल वन में अन्य बेर, जाम, 1. सर्वथा योगनिरोध अवस्था में, या परिषह, उपसर्गादि जामुन, नीम, पीपल आदि के भी वृक्ष होने पर भी मन के होने की संभावना होने पर भी निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्गादि करना में से 'वह आम्रवन है' - एसा चिन्तन करना। - प्रथम प्रकार की कायगुप्ति हैं। 2. शयन-आसन-निक्षेप-आदान (अन्य-वस्त्र-पात्रादि का ग्रहण) के विषय में स्वच्छन्दता का त्याग 4. असत्यामृषा मनोगुप्ति - घट लाना, मुझे पुस्तक दीजिये, -इत्यादि मन में आदेश-निर्देशादि वचन और व्यवहार का कर गुरु को पूछकर गुर्वाज्ञापूर्वक शरीर, संस्तारक (संथारा की) भूमि, उपलक्षण से उपकरणादि प्रतिलेखन, प्रमार्जनादि समयोचित क्रियाकलाप चिन्तन करना। करना - द्वितीय प्रकार की 'कायगुप्ति' हैं। मनोगुप्ति के अतिचार : कायगुप्ति के अतिचार :भगवती आराधना के अनुसार रागादिविकार सहित स्वाध्याय मन की एकाग्रता के बिना शरीर की चेष्टाएँ निरुद्ध करना, में प्रवृत्त होना, मनोगुप्ति का अतिचार हैं।45 अनगार धर्मामृत के जहाँ लोग भ्रमण करते हैं, एसे सार्वजनिक स्थान में एक पाँव अनुसार रागद्वेषादिरुप कषाय व मोहरुप परिणामों में (मन से) वर्तन, ऊपर करके खडे रहना, एक हाथ ऊपर कर खडे रहना, मन में मन में शब्दार्थज्ञान की विपरीतता और आर्त-रौद्र ध्यान-मनोगप्ति अशुभ संकल्प करते हुए काय से चञ्चल रहना, आप्ताभास हरिहरादिक के अतिचार हैं। की प्रतिमाओं के सामने उनकी आराधना करते हुए से खडे रहना वचन गुप्ति : या बैठना, सचित भूमि पर या बीजाकुरयुक्त भूमि पर रोष से, अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार मनोगुप्ति की तरह ही दर्प (अभिमान) से खडे रहना या बैठना, शरीरममत्व का त्याग वचनगुप्ति के चार प्रकार बताये गये हैं - 1. सत्या 2. मृषा 3. सत्यामृषा न करना या कायोत्सर्ग के दोषों को न त्यागना - 'कायगुप्ति' और 4. असत्यामृषा। इन चारों प्रकार के वचनों का गोपन करना, के अतिचार हैं। अर्थात् इन चारों प्रकार की भाषाओं के कारण होनेवाले कर्म बन्धनों से आत्मा की रक्षा करना 'वचन गुप्ति' है।7। नियमसार केअनुसार 42. पुरुषार्थसिद्धयुपाय 202 स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा युक्त वचनों का परिहार अथवा 43. अ.रा.पृ. 6/83; धर्मसंग्रह, अधिकार 3; निशीथ चूर्णि, । उद्देश असत्य भाषणादि से निवृत्त होना अथवा मौन धारण करना 'वचन 44. अ.रा.प्र. 6/83; उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 24 गुप्ति' हैं।48 भगवती आराधना के अनुसार जिससे प्राणियों को उपद्रव 45. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 2/250 46. वही; अनगार धर्मामृत 4/159 होता है अथवा जिससे आत्मा अशुभ कर्म का विस्तार करता है, 47. अ.रा.पृ. 6/887; उत्तराध्ययन, 24 अध्ययन; निशीथचूर्णि, 1 उद्देश एसे भाषण से आत्मा का परावृत होना (दूर रहना), 'वचनगुप्ति/वाग्गुप्ति' 48. नियमसार 67, 69 है । अथवा संपूर्ण प्रकार के वचनों का त्याग (मौन धारण करना) 49. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 2/249 'वाग्गुप्ति' हैं। 50. वही पृ. 2/250; अनगार धर्मामृत 4/160 वचनगुप्ति के अतिचार : 51. वही पृ. 2/250; अनगार धर्मामृत 4/160 52. वही; उत्तराध्ययन, अध्ययन 24 अनगार धर्मामृत के अनुसार कर्कशादि वचनोच्चारण अथवा 53. वही विकथा करना और मुख से हुंकारादि द्वारा या हाथ या भ्रकुटिचालनादि 54. नियमसार 68 क्रियाओं के द्वारा उसे इङ्गित करना - ये दो वचन गुप्ति के 55. वही, 70 अतिचार हैं। 56. अ.रा.पृ. 3/449; धर्मसंग्रह, अधिकार 3 57. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/250 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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