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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन गुप्तियों का माहात्म्य : मूलाचार में इन तीनों गुप्तियों का महत्त्व बताते हुए कहा है कि "जैसे खेत की रक्षा के लिए बाड होती है, अथवा नगर की रक्षा के लिए खाई तथा कोट होता है, उसी तरह पाप को रोकने के लिए संयमी साधु के ये गुप्तियाँ होती हैं 58 । इस प्रकार इन पाँच समिति, तीन गुप्ति रुप के सम्यक् पालन से मुनि सर्व संसार भ्रमण से अष्ट प्रवचनमाता शीघ्र मुक्त होता $59 समिति से समित और गुप्तियों से गोपित पूर्वोक्त महाव्रतों, और पञ्चाचार के पालन से आत्मा का स्वाभाविक धर्म प्रकट होता है जो कि अन्तरात्मा द्वारा स्वयं भी अनुभव किया जाता है और चतुर्थ परिच्छेद... [289] साथ ही उसका प्रतिफल बाहर भी स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होने लगता है । कभी वह क्षमा के रुप में आचरण में प्रतिबिम्बित होता है तो कभी मार्दव या इसी प्रकार के अन्य गुणों के रुप में । ये धर्म आत्मा की स्वाभाविक परिणति है। जैनाचार्योने संक्षेप में दश यतिधर्मो के रुप में प्रतिपादित किया है। कहीं कहीं पर नाम में भिन्नता हो सकती है। इसका एक कारण यह भी है कि वस्तु तो अनन्तधर्मात्मक हैं। आगे के शीर्षक में यतिधर्म के नाम से शास्त्रों में वर्णित दश धर्मो का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा हैं। 1 58. मूलाचार 334 59. अ.रा. पृ. 5/786 उत्तराध्ययनसूत्र, 24/27 Jain Education International संघचक्र की सदा जय हो संजमतवतुंबारय-स्स नमो सम्मत पारियलस्स । अप्पचिक्कस्स जओ, होउ सया संघचक्कस्स ॥ हिंसादि पंचाश्रवविरमण; पंचेन्द्रिय निग्रह; कषायचतुष्कजय एवं त्रिदण्डविरतिरुप सत्रह प्रकार के संयम एवं बाह्याभ्यन्तर बारह प्रकार के तपरुप आरों एवं सम्यकत्वरुप भ्रमि (बाह्य पृष्ठ भाग) से (अजोड चक्र) संघ (रुपी) चक्र की सदा जय हो !!! युक्त अप्रतिचक्र भदं दमसंघसूरस्स । परतित्थियगहपहना-सगस्स तवतेयदित्तलेसस् । नाणुज्जोयस्स जए, भद्दं दमसंघसूरस्स ॥ कपिलादि परतिथिकों रूपी ग्रहों की दुर्नयलक्षणा प्रभा को नाश करनेवाले, तप-तेज से उज्जवल, देदीप्यमान, लोक में ज्ञान - उद्योत (प्रकाश) फैलानेवाले उपशमप्रधान संघ (रुप) सूर्य का कल्याण हो । भद्दं संघसमुद्दस्स भद्दं धिइवेलापरि-गयस्स सज्झायजोगमगरस्स । अक्खोहस्स भगवओ, संघसमुद्दस्स दस्स ॥ मूलगुण एवं उत्तरगुण रुपी धृति (धैर्य) के विषय में प्रवर्धमान उत्साहयुक्त आत्म- परिणामरुप जलवृद्धियुक्त, कर्मविदारण करने में शक्तिसम्पन्न स्वाध्याययोगरुप मगरमच्छों से भरपूर तथा परीषह एवं उपसर्गो में भी अक्षुब्ध / निष्प्रकम्प, भगवान के समग्र ऐश्वर्य (आठ प्रातिहार्य), रुप, यश, धर्म, प्रयत्न (पुरुषार्थ), केवलज्ञानरुपी श्री समूह से सुशोभित विस्तृत संघ (रुप) समुद्र का कल्याण हो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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