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________________ [290]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन दस यतिधर्म अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'अणगारधम्म' शब्द पर सर्वविरतिचारित्रधर मुनि के धारण करने योग्य दस प्रकार के यतिधर्मो का वर्णन किया है 1. खंती - (क्षान्ति) 2. मद्दव (मार्दव) 3. अज्जव (आर्जव) 4. मुत्ती (मुक्ति) 5. तव (तप) 6 संजम (संयम) 7. सच्च (सत्य) 8. सोय (शौच) 9. आकिंचण (आकिञ्चन्य) 10. बंभ/बंभचेर (ब्रह्मचर्य)। तत्त्वार्थ सूत्रकारने इससे किञ्चिद् भिन्न दस प्रकार के यतिधर्मो का वर्णन किया है 1. उत्तम क्षमा 2. उत्तम मार्दव 3. उत्तम आर्जव 4. उत्तम शौच 5. उत्तम सत्य 6. उत्तम संयम 7. उत्तम तप 8. उत्तम त्याग 9. उत्तम आकिञ्चन्य 10. उत्तम ब्रह्मचर्य । (1) क्षान्ति : स्वयंभूस्तोत्रानुसार 'क्षान्ति' और 'शान्ति' शब्द एकार्थवाची हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'क्षान्ति' के निम्नांकित अर्थ बताये गये हैं - (1) आक्रोशयुक्त वचन श्रवण करने पर भी क्रोध का त्याग ।। (2) सहन शक्ति में समर्थ या असमर्थ साधक का सर्वथा क्रोधत्याग। (3) कर्कश भाषा सहन करना। (4) क्रोध के उदय का निरोध । (5) कषाय का उपशम, तितिक्षा।' (6) शुक्ल ध्यान का प्रथम आलम्बन ।। (7) प्रथम श्रमणधर्म (यतिधर्म) 'क्षान्ति' हैं।" (8) क्रोधादि दोषों का निराकरण करना ।12 क्षान्ति की प्राप्ति का क्रम : आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार साधक को दीक्षाजीवन में प्रथमतः वचन शान्ति होती है, तत्पश्चात् धर्मक्षान्ति होती है, क्योंकि प्रथम वचनानुष्ठानपूर्वक अध्ययनादि के द्वारा साधक को उसमें रति (ज्ञानरमणता) होती है, जिससे तन्मयता होने पर साधक असङ्गभाव को प्राप्त होता है। क्षान्ति के भेद :(1) उपकार क्षान्ति - ये मेरे उपकारी है, अत: इनके वचन सहन करने योग्य हैं - एसा सोचकर क्षान्ति रखना 'उपकार क्षान्ति' क्षमा धर्म : तत्त्वार्थ सूत्रकार वाचकश्री उमास्वाति महाराजने दसविध यतिधर्म में 'खंति' के पर्यायवाची 'क्षमा' धर्म का वर्णन किया है।5 अत: यहाँ पर यथाप्रसंग क्षमा धर्म का भी संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। __'क्षमा' (खमा) शब्द क्षमूष धातु से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है। जैनागमों में, सहनकरना, क्षमा करना, क्रोध के अभावपूर्वक माफ करना, सहिष्णुता, सत्येतर (जूठे) वचनों के श्रवण से क्रोधोदय होने की स्थिति में भी आत्मा को क्रोध से दूर रखना, उदय प्राप्त क्रोध को निष्फल करना, अपराध को माफ करना । -आदि अनेक अर्थो में 'क्षमा' शब्द का प्रयोग किया गया हैं।16। क्षमा प्रथम धर्म है। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार क्रोध प्रीति का विनाशक है। क्रोध कषाय के उपशमन के लिए क्षमाधर्म का विधान है। क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है।18 जैन परम्परा में अपराधी को क्षमा करना और स्वयं के द्वारा जिसके प्रति अपराध किया गया है, उससे क्षमा-याचना करना साधक का परम कर्तव्य है। जैन साधक का प्रतिदिन यह उद्घोष होता है कि मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूँ और सभी प्राणी मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है। महावीर का, श्रमण साधकों 1. अ.रा.पृ. 1/279; दशवैकालिक नियुक्ति-6/14 2. तत्त्वार्थसूत्र-9/6 एवं उस पर तत्त्वार्थभाष्य 3. स्वयंभूस्तोत्र 16,39 4. अ.रा.पृ. 3/692 5. द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका 27 6. धर्मसंग्रह, अधिकार 3 7. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन । 8. औपपातिक सूत्र 9. दर्शनशुद्धि सटीक 10. समवयांग,समवाय 9 II. स्थानांग 4/1 12. सर्वार्थसिद्धि 9/12 13. अ.रा.पृ. 3/692; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 29/6 14. वही, वही 29/7 15. तत्त्वार्थ सूत्र-9/6 16. अ.रा.पृ. 3/714 17. दशवैकालिक सूत्र-8/38 ___18. वही-8/39 19. आवश्यक सूत्र, पगाम सिज्झाय, वंदित्तु सूत्र-49, 50 (2) अपकार क्षान्ति - यदि मैं इसके दुर्वचन सहन नहीं करूँगा तो यह मेरा अपकारी बनेगा - एसा सोचकर क्षमा धारण करना 'अपकार क्षान्ति' हैं। विपाक क्षान्ति - क्रोधादि कषाय के कटुफल इसलोक और परलोक में अनर्थ परम्पराकारक हैं - एसा सोचकर क्षमा धारण करना 'विपाक क्षान्ति' हैं। (4) वचन क्षान्ति - 'क्षान्ति (क्षमा) से मेरा राग है' - एसा आलम्बन मन में धारण कर क्षमा धारण करना 'वचन क्षान्ति' हैं। (5) धर्म क्षान्ति - शान्ति (क्षमा) आत्मा का शुद्ध स्वभाव है। जैसे चंदन वृक्ष पर घाव (छेद) करनेवाले कुठार को भी चंदन अपने स्वभाव से ही अपनी सौरभ से सुरभित करता है, वैसे आत्मा में भी शान्ति (क्षमा) स्वाभाविक रुप से रहती है - एसा सोचकर सभी के ऊपर क्षमा धारण करना 'धर्म क्षान्ति' हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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