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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [291] के लिए यह आदेश था कि साधुओं ! यदि तुम्हारे द्वारा किसी का काया की एकता को 'आर्जव' कहा हैं । (इसका विशेष वर्णन अपराध हो गया है, तो सबसे पहले क्षमा माँगो। जब तक क्षमा- माया कषाय के अन्तर्गत किया गया हैं। याचना न कर लो भोजन मत करो, स्वाध्याय मत करो, शौचादि (4) मुक्ति धर्म :कर्म भी मत करो, यहाँ तक कि अपने मुँह का थूक भी गले से
लोभ के सर्वथा त्याग रुप भावना को 'मुक्ति' कहते हैं।42 नीचे मत उतारो। अपने प्रधान शिष्य गौतम को लाये हुए आहार बाह्याभ्यन्तर पदार्थो/विषयों में तृष्णा का नाश 'मुक्ति' हैं ।43 उत्तराध्ययन को रखवाकर पहले आनन्द श्रावक से क्षमा याचना के लिए भेजना सूत्र में निर्लोभता को 'मुक्ति' कहा है। औपपातिकसूत्र आदि ग्रंथों इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर की दृष्टि में क्षमा-धर्म में लोभ के उदय का निरोध करना 'मुक्ति' मानी गई हैं।45 स्थानांगसूत्र का कितना अधिक महत्त्व था।20 जैन परम्परा के अनुसार प्रत्येक आदि ग्रंथों के अनुसार धर्मोपकरण में भी मूर्छा नहीं रखना 'मुक्ति' साधक को प्रात:काल एवं सायंकाल, पक्षान्त में, चातुर्मास के अन्त है। सूत्रकृताङ्ग में सर्वकर्मनाश को 'मुक्ति' माना है।47 पञ्चसंग्रह में और संवत्सरी पर्व पर सभी प्राणियों से क्षमा-याचना करनी होती में भवोपग्राही कर्मो के नाश को 'मुक्ति' कहा है।48 आतुरप्रत्याख्यान" है। जैन समाज का वार्षिक (संवत्सरी) पर्व 'क्षमावाणी' के नाम में 'मोक्षमार्ग' को और आवश्यकचूर्णि में आत्मा की निसङ्गता (कर्मरहित से भी प्रसिद्ध है। जैन आचार-दर्शन की मान्यता है कि यदि श्रमण अवस्था) को मुक्ति कहा गया हैं।50 स्थानांग में आगे सर्वकर्ममुक्ता साधक पक्षान्त तक अपने क्रोध को शान्त कर क्षमा-याचना नहीं ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी के ऊपर सिद्धस्थान को 'मुक्ति' कहा गया कर लेता है तो उसका श्रमणत्व समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार है।। पाईयलच्छीनाममाला में 'परम-पद' को 'मुक्ति' कहा है।52 गृहस्थ उपासक यदि चार महीने से अधिक अपने हृदय में क्रोध
त्याग :के भाव बनाये रखता है और जिसके प्रति अपराध किया है, उससे
अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों से विमुख क्षमा-याचना नहीं करता तो वह गृहस्थ-धर्म का अधिकारी नहीं रह
होना, त्याग है। नैतिक जीवन में त्याग आवश्यक है। बिना त्याग पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति एक वर्ष से अधिक तक अपने
के नैतिकता नहीं टिकती। अतएव साधु के लिए त्याग-धर्म का क्रोध की तीव्रता को बनाये रखता है और क्षमा याचना नहीं करता
विधान किया गया है। त्याग से इन्द्रिय और मन के निरोध का वह सम्यक्-श्रद्धा का अधिकारी भी नहीं होता है और इस प्रकार जैनत्व से भी च्युत हो जाता है।।
20. उपाशक दशांग-1 अध्ययन क्षमा का फल :
21. बारसासूत्र - समाचारी विभाग क्षमा धारण करनेवाली आत्मा के कर्म क्षय होते हैं; उसे
22. अ.रा.पृ. 3/715
23. अ.रा.पृ. 6/103 चित्त प्रसन्नता प्राप्त होती है, सर्वजीवों के प्रति मैत्रीभाव प्राप्त होताहै,
24. वही भावविशुद्धि होती है, राग-द्वेष नष्ट होते हैं; सातों भयों को दूरकर
25. प्रवचन सारोद्धार, द्वार 66; उत्तराध्ययनसूत्र 29 वह निर्भय होता है।
26. आवश्यक बृहद्वृत्ति, अध्ययन 4 (2) मार्दव धर्म :
27. दशवैकालिक 10/19 मार्दव अर्थात् कोमलता24, नम्रता25, मान का त्याग26,
28. औपपातिकासूत्र
29. कल्प सुबोधिका सटीक 1, अधिकार जाति आदि के अभिमान का त्याग, मान के उदय का निरोध,
30. भगवती सूत्र 1/6 मान का अभाव, अनङ्ग अर्थात् काम पर विजय, मान कषाय 31. ज्ञाताधर्मकथांग 1/1 का निग्रह", मानजनित अक्खडपन का त्याग ।
32. आचारांग 1/6/ मार्दव का फल :
33. अ.रा.पृ. 6/107; स्थानांग, ठाणा-8; सूत्रकृताङ्ग 1/2/2
34. अ.रा.पृ. 1/104; उत्तराध्ययन, अध्ययन 29 मार्दव से जीव अहंकार रहित होता है; मृदु (कोमल) बनता
35. अ.रा.पृ. 1/215; स्थानांग 5/1 है, सकल भव्य जीवों के मन को संतोष रुप होता है, द्रव्य और
36. वही, धर्म संग्रह; अधिकार-8 भाव से नम्र बनता है। नम्र बनकर जाति, कुल, बल, रुप, तप, 37. अ.रा.पृ. 1/215; दशवैकालिक, अध्ययन 10; स्थानांग 5/1 ज्ञान (श्रुत), लाभ और एश्वर्य33 -इन आठों मद का क्षय करता है।34 38. स्थानांग 2/1 मार्दवगुणयुक्त व्यक्ति पर गुरुओं का अनुग्रह होता हैं। इसका विस्तृत
39. समवयांग, समवाय 31 विवेचन इसी परिच्छेद में "मान कषाय" एवं "विनय (तप)" उपशीर्षक
40. सर्वार्थसिद्धि 9/9
41. भगवती आराधना 46 पर विजयोदयी टीका के अन्तर्गत किया गया हैं।
42. अ.रा.पृ. 6/3143; (3) आर्जव धर्म :
43. वही; धर्मसंग्रह, अधिकार 3 आर्जव अर्थात् ऋजुता । राग-द्वेष रहित सामायिक युक्त कर्म 44. वही; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 29 या भाव 'आर्जव' कहलाता है, इसे संवर भी कहते हैं।5 मन
45. वही; धर्मसंग्रह, अधिकार 3; पाक्षिकसूत्र सटीक
46. वही, स्थानांग; प्रश्नवव्ययाकरण-संवर द्वार; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 27 वचन-काय की वक्रतारहित अर्थात् मायारहित क्रिया आर्जव धर्म है।
47. अ.रा.पृ. 6/318; सूत्रकृताङ्ग 2/2 दूसरों के द्वारा फंसाने पर या दूसरों को फंसाने के लिए भी माया
48. वही; पञ्चसंग्रह, 2 द्वार (कपट) नहीं करना 'आर्जव' हैं। स्थानांगसूत्रानुसार आर्जव धर्म तृतीय 49. वही; आतुरप्रत्याख्यान 66 श्रमणधर्म है38, और समवयांगसूत्रानुसार दसवाँ योगसंग्रह है। 50. वही; आवश्यक चूणि, अध्ययन 4 सर्वार्थसिद्धि के अनुसार योगों का वक्र न होना 'आर्जव' हैं। भगवती 51. वही; स्थानांग 8/3 आराधना में मन की सरलता को और पञ्चविंशतिका में मन-वचन
52. वही; पाइयलच्छीनाममाला 20
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