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________________ [292]... चतुर्थ परिच्छेद - अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अभ्यास किया जाता है। संयम के लिए त्याग आवश्यक है। सामान्य निम्नानुसार हैरुप से त्याग का अर्थ छोडना होता है। अतएव साधुता तभी सम्भव 1. उपेक्षा संयम 2. अपहृत संयम । है जब सुख-साधना एवं गृह-परिवार का त्याग किया जाये। साधु (1) उपेक्षा संयम :जीवन में भी जो कुछ उपलब्ध है या नियमानुसार ग्राह्य है, उनमें देश-काल के विधान को समझनेवाले, स्वाभाविक रुप से कुछ को नित्य छोडते रहना या त्याग करते रहना जरुरी है। गृहस्थ से शरीर से विरक्त और त्रिगुप्तिधारक व्यक्ति के राग और द्वेष रुप जीवन के लिए भी त्याग आवश्यक है। गृहस्थ को न केवल अपनी चित्तवृत्ति का न होना 'उपेक्षा संयम' कहलाता है।75 वासनाओं और भोगों की इच्छा का त्याग करना होता है, वरन् अपनी (2) अपहृत संयम :सम्पत्ति एवं परिग्रह से भी दान के रुप में त्याग करते रहना आवश्यक अपहृत संयम मुख्यत: दो प्रकार का है- (अ) इन्द्रिय अपहृत है। इसलिए त्याग गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए ही आवश्यक संयम और (आ) प्राणी अपहत संयम। पाँच इन्द्रियों और मन के है। वस्तुतः लोकमंगल के लिए त्याग-धर्म का पालन आवश्यक विषयों का निरोध इन्द्रियसंयम है, और चौदह प्रकार के जीवों की है। न केवल जैन परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में रक्षा करना प्राणिसंयम है। भी त्याग-भावना पर बल दिया गया है। बोधिचर्यावतार में आचार्य (ख) संयम के सत्रह प्रभेद :शान्तिरक्षित ने इस सम्बन्ध में काफी विस्तार से विवेचन किया है।53 अभिधान राजेन्द्र कोश में और अन्य जैन ग्रंथों में सत्रह (5) तप धर्म : प्रकार का संयम अनेक प्रकार से वर्णित है, यथातप धर्म का वर्णन आगे पृष्ठ क्र. 309 पर है। __(1) प्रवचनसार में 5 समिति, 5 इन्द्रियसंवर, तीन गुप्ति (6) संयम धर्म : और 4 कषायजय को संयम कहा गया है। पञ्चसंग्रह के प्राकृताधिकार आभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'संयम' की व्याख्या में पाँच महाव्रतधारण, पाँच समिति पालन, चार कषायजय और तीन करते हुए कहा है कि सावध योगों का सम्यक् त्याग संयम दण्ड (अशुभ मन-वचन-काय) के त्याग रुप सत्रह प्रकार का संयम है, अथवा जिसमें आत्मा पाप व्यापार-समारम्भ से नियमपूर्वक दर्शाया गया है। संयमित होता है, वह संयम है।56 अथवा जिसमें प्राणातिपात (2) स्थानांग सूत्र के अनुसार पञ्चास्रव का त्याग, पञ्चेन्द्रिय मृषावाद (अनृत)-अदत्तादान-अबद्ध-परिग्रह के त्यागरुप सुंदर नियम निग्रह, चार कषायजय और मन-वचन-काय के तीन दण्डों से विरतिरुप हैं - एसे चारित्र को संयम कहते हैं । अथवा पाप का सम्यक् संयम सत्रह (5 +5+4+ 3 = 17) प्रकार का है। त्याग; सर्वसावद्यारम्भ से निवृत्ति"; मन-वचन-काय की विशुद्धिपूर्वक (3) समवयांग सूत्र में एकेन्द्रिय (पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, हिंसा का सर्वथा त्याग; पृथ्वीकायादि जीवों की रक्षा1; जीवदया62; और वनस्पति) के प्रति संयम के पाँच प्रकार; त्रस जीवों (द्वीन्द्रिय, सर्वविरति अङ्गीकरण, सम्यग् अनुष्ठान; सामायिकादि चारित्र, 53. जैन विद्या के आयाम खण्ड-6 पृ. 520 पृथ्वीकायादि जीव विषयक संघट्ट, परिताप और उपद्रवण का त्याग 54. अ.रा.पृ. 7/87 संयम कहलाता है। 55. वही उत्तराध्ययन सूत्र में दया, संयम, लज्जा, जुगुप्सा, निष्कपटता 56. वही (अच्छलना), तितिक्षा, अहिंसा और ह्री (लज्जा) को एकार्थ में संयम 57. वही, कर्मग्रंथ 4/12 पर विवेचन कहा है । धवला टीका में सम्यक् नियंत्रण को 'संयम' कहा है।68 58. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 28 प्रवचनसार प्रक्षेपक में बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग, मन-वचन 59. आचारांग 1/2/5 60. दर्शनशुद्धि सटीक, तत्त्व 5 काया से अनारम्भ, इन्द्रिय विषयक विरक्ति और कषायक्षय को संयम 61. स्थानांग 4/1 कहा है। 62. कल्पसुबोधिका 1/6 चारित्र पाहुड में इन्द्रिय-संवर, पाँच व्रत, 25 क्रिया, पाँच 63. आतुरप्रत्याख्यान 62 समिति और तीन गुप्ति को संयम कहा है। बारस अणुवेक्खा में 64. आवश्यक मलयगिरि, खण्ड 1, अध्ययन । व्रत और समितियों का पालन, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति (अशुभ) 65. आवश्यक मलयगिरि, खण्ड । का त्याग, और इन्द्रियजय को संयम कहा है।1 66. स्थानांग 7/3 जैन दर्शन के अनुसार पूर्व संचित-कर्मो के क्षय के लिए 67. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 3 तप आवश्यक है और संयम से भावि कर्मो के आस्रव का निरोध 68. धवला टीका 7/2,1; 3/7/3 69. प्रवचनसार, प्रक्षेपक 240-1 होता है। संयम मनोवृत्तियों, कामनाओं और इन्द्रिय-व्यवहार का नियमन 70. चारित्रापाहुड 28 करता है। संयम का अर्थ दमन नहीं, वरन् उनको सम्यक् दिशा 71. बारस अणुवेक्खा 76 में योजित करना है। संयम एक ओर अकुशल, अशुभ एवं पाप 72. जैन विद्या के आयाम खण्ड-6 पृ. 518-19 जनक व्यवहारों से निवृत्ति है तो दूसरी ओर शुभ में प्रवृत्ति है। 73. अ.रा.पृ. 7/88 दशवैकालिकसूत्र में कहा है कि अहिंसा, संयम और तपयुक्त धर्म 74. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/137, 138 ही सर्वोच्च शुभ (मंगल) है।2 75. वही, पृ. 4/137; राजवार्तिक 9/9/15/596/29; चारित्रसार 65/7, 75/2 76. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/138; मूलाचार 418 संयम के भेद : 77. प्रवचनसार मूल 240 (क) संयम के दो भेद : 78. पंचसंग्रह, प्राकृताधिकार 27 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में दो प्रकार से संयम के भेद-प्रभेद 79. अ.रा.पृ. 7/87; स्थानांग 3/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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