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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [293] चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय) के प्रति संयम के चार प्रकार; अजीवकाय, धर्म है।88 सत्य धर्म का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत शोध प्रबंध के द्वितीय प्रेक्षा, उपेक्षा, परित्याग (अवहट्ट), प्रमार्जना, मन, वचन और काया परिच्छेद में द्वितीय महाव्रत के वर्णन में किया जा चुका है। सम्बन्धी संयम के सात प्रकार-इस प्रकार से भी सत्रह प्रकार का (8) शौच धर्म :संयम दर्शाया है।80
जैन परम्परा में 'शौच' का अर्थ मानसिक पवित्रता है। पृथ्वीकायिकादि संयम - पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा
स्थानांगसूत्र के अनुसार शुचि भाव अथवा शुचिकर्म को 'शौच' कहते न करना, उन्हें कष्ट, परिताप, दुःख नहीं पहुँचना, उनका दुःखमय हैं।89 महाव्रत (पालन) को शौच धर्म कहा है। निरतिचार संयम संयोग नहीं कराना-पृथ्वीकायिकादि संयम हैं।"
पालन करना 'शौच' धर्म कहलाता है। चोरी नहीं करना- यह अजीव संयम - पुस्तक, वस्त्र (उपलक्षण से पात्र, शय्या, आसन भी भाव से 'शौच' कहलाता है।92 आचारांग के अनुसार सर्वप्रकार एवं अन्य उपकरण) आदि को प्रतिलेखन (पडिलेहण) - प्रमार्जन
की शुद्धिरुप समता व्रत को धारण करना 'शौच' कहलाता हैं। किये बिना उपयोग में नहीं लेना, पाँचों प्रकार के तृण (साल आदि
तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार लोभरहित प्रवृत्ति (लोभ कषाय का त्याग) के) का त्याग करना (उनका प्रतिलेखन दुष्कर होने से), पाँचों प्रकार
शौच धर्म का लक्षण है। अर्थात् भावों की विशुद्धि, कल्मषता के एवं अन्य भी सभी प्रकार के चमडे, चमडे के आसन, वस्तुएँ
का अभाव और धर्म के साधनों में भी आसक्ति न होना 'शौचआदि उपयोग का सर्वथा.त्याग करना अजीवकाय संयम है। 2
धर्म' हैं।" प्रेक्षा संयम - वस्त्र, उपकरण, वसति (मुनि के रहने का स्थान)
आचार्य पद्मनन्दि ने कहा है कि "परस्त्री एवं परधन की आदि का बराबर ध्यानपूर्वक और शास्त्रोक्त विधिपूर्वक प्रत्युपेक्षण (चारों
अभिलाषा न करता हुआ जो चित्त षट्काय जीवों की हिंसा से रहित ओर से निरीक्षण) करना 'प्रेक्षा संयम' हैं।83
होता है, इसे ही दुर्भेद्य आभ्यन्तर कलुषता को दूर करनेवाला उत्तम उपेक्षा संयम - यह दो प्रकार से हैं -
शौच धर्म कहा जाता हैं। (क) यतिव्यापारापेक्षा - मुनि को संयम से विषाद प्राप्त होता
शौच के प्रकार :देखकर अन्य मुनि के द्वारा उसे संयम हेतुप्रेरणा करना
अभिधान राजेन्द्र कोश में शौच धर्म के अनेक प्रकार के 'यतिव्यापार-उपेक्षा संयम' हैं।
भेद दर्शाये गये हैं(ख) गृहस्थव्यापारापेक्षा - गृहस्थ को शस्त्रादि जीवहिंसामय
(क) प्रथम प्रकार - अधिकरणों का व्यापार करता हुआ देखकर उससे मुक्त होने
(1) पृथ्वी शौच - मिट्टी के द्वारा शुद्ध होना । हेतु प्रेरणा करना' गृहस्थव्यापारापेक्षा संयम' हैं।
(2) अप् शौच - जल के द्वारा शुद्ध होना ।
तेजः शौच - अग्नि से या राख से शुद्धि करना। अवह संयम - संयम जीवन में प्रतिष्ठापनायोग्य (त्याज्य) पदार्थो
मंत्र शौच - शुचिविद्या के द्वारा मंत्र से शुद्ध होना। को विधिपूर्वक निर्जीव भूमि पर परहना अवहट्ट (परित्याग) संयम
(5) ब्रह्म शौच - ब्रह्मचर्य पालनरुप कुशल अनुष्ठान से हैं।
शुद्ध रहना। प्रमार्जना संयम - उपाश्रय, वस्त्र, पात्र, उपकरण,रजोहरणादि से
(ख) द्वितीय प्रकार - तथा दृष्टि से बार-बार चारों ओर से देखना, शुद्धि करना प्रमार्जना
उपरोक्त पाँच प्रकारों में से पहले के चार भेद द्रव्यशौच के संयम हैं।86 अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार मुनि वर्षाऋतु में तीन
80. अ.रा.पृ. 7/89; समवयांग, समवाय 17 बार (दोनों समय पडिलेहण के समय और प्रथम पोरिसी पूर्ण होने 81. अ.रा.पृ. 7/88; 89,, 1/841, 842 के समय) और शेषकाल में दो बार (सुबह उपधि पडिलेहण के साथ 82. अ.रा.पृ. 7/88, 89 प्रकाश होने पर और दिन के चतुर्थ प्रहर के प्रारंभ में संध्या पडिलेहणके 83. अ.रा.पृ. 5/1095 समय) दंडासन से उपाश्रय का प्रमार्जन करें। प्रमार्जन करके जो धूलादि
84. अ.रा.पृ. 2/1137, 1138 इकट्ठी हो, उसे जयणा (यतना) पूर्वक छाँव में त्याग करें (विसर्जित
85. अ.रा.पृ. 2/801; आचारांग 2/5/2; सूत्रकृतांग 1/4/1
86. अ.रा.पृ. 5/441; आचारांग 2/1/6; निशीथ चूर्णि, उद्देश 2 एवं उद्देश 3 करें); उछाले नहीं।87
87. अ.रा.पृ. 5/249, 442; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/137 यद्यपि यहाँ रजोहरण, दंडासनादि से भूमिशोधन को प्रमार्जन
88. अ.रा.पृ. 7/271, 273; सूत्रकृतांग दीपिका 1/6; सूत्रकृतांग 1/12; धर्मसंग्रह एवं चक्षु से देखने को पडिलेहण कहा है, परंतु परिष्ठापनायोग्य भूमि सटीक 3/41; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/270 आदि को तो दृष्टिप्रमार्जन ही होता है और उस हेतु भी मुनियों के अ.रा.पृ. 7/1165; तत्त्वार्थसूत्र 9/6 पर तत्त्वार्थभाष्य व्यवहार में प्रमार्जन शब्द का प्रयोग किया जाता हैं।
90. वही; स्थानांग 9/3 ___मनोवचनकाय संयम - मन, वचन और काय सम्बन्धी
91. वही; धर्मसंग्रह, अधिकार 3 व्यापार में संयम-मनोवचनकाय संयम हैं, अन्य शब्दों में इन्हें 'त्रिगुप्ति'
92. वही; बृहत्कल्पभाष्य सवृति 1/2
93. वही; आचारांग 1/6/5; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा 397 भी कहा जाता हैं।
94. तत्त्वार्थसूत्र 9/6 पर तत्त्वार्थ भाष्य, पृ. 388; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. (7) सत्य धर्म :- .
4142 प्राणियों के लिए पीडा रहित, हिंसा रहित, हितकारी, प्रियकारी, 95. तत्त्वार्थसूत्र 9/6 पर तत्त्वार्थभाष्य, प. 388, 389 पथ्य, मित वचन बोलना सत्य धर्म है, अथवा जिनभाषित वस्तुतत्त्व 96. पद्मनन्दिपञ्चविशतिका 1/94 का यथास्थित वस्तुविकल्पना का चिन्तन या उपदेश करना सत्य 97. अ.रा.पृ. 7/1165; स्थानांग 5/3
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