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रहते हैं।103
[294]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अन्र्तगत आते हैं, ब्रह्मशौच को भाव शौच कहा गया है।
- मुनि का त्याग धर्म है। 12 सवार्थसिद्धि के अनुसार संयत के (ग) तृतीय प्रकार -
योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग है।।13 राजवार्तिक में सचेतन (1) सत्य शौच (2) तप शौच (3) इन्द्रियनिग्रह शौच
और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहा है।।14 भगवती (4) जीवदया शौच, और (5) जल शौच ।”
आराधनानुसार मुनियों के लिए योग्य एसे आहारादि चीजें देना, तत्त्वसार में शौच धर्म के चार भेद बताये हैं - 1. भोग त्याग धर्म है।।15 पञ्चविंशतिका के अनुसार सदाचारी पुरुष के 2. उपभोग 3. जीवन 4. इन्द्रियविषय - इन चार प्रकार के लोभों द्वारा मुनि के लिए जो प्रेमपूर्वक आगम का व्याख्यान किया जाता का त्याग - शौच धर्म हैं ।100
है, पुस्तक दी जाती है तथा संयम की साधनभूत पिच्छी (मयूरपुच्छनिर्मित राजवार्तिक के अनुसार (1) जीवन (2) इन्द्रिय (3) आरोग्य प्रमार्जनी) आदि भी दी जाती है, उसे त्याग धर्म कहा जाता है।।16 (4) उपभोग - इन चार प्रकार के लोभ के त्याग रुप शौच धर्म प्रवचनसार के अनुसार निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और भी चार प्रकार का है।101 (जिनपूजा संबंधी शौच धर्म (शुद्धि) का आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति त्याग है।17 वर्णन जिन पूजा के वर्णन में परिच्छेद-4 (ख) में यथास्थान किया
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने त्याग के भेद बताते जायेगा)।
हुए कहा है कि बाह्याभ्यन्तर भेद से त्याग दो प्रकार का है।।18 शौच का फल :
सर्वार्थसिद्धि के अनुसार दो प्रकार का त्याग बाह्य और आभ्यन्तर शौच धर्म से स्वशरीर के प्रति जुगुप्सा, अन्य के साथ उपधि के त्याग रुप है। राजवार्तिक के अनुसार आभ्यन्तर त्याग असङ्गम, सत्त्वशुद्धि, मानसिक प्रीति, चित्तस्थैर्य, इन्द्रिजय, आत्मदर्शन- भी (1) यावज्जीव (जीवन पर्यन्त) और (2) नियतकाल (सीमित समय) योग्यता, संतोष, सुख, इष्ट दर्शन (देव दर्शन), विशिष्ट लब्धि की - एसे दो प्रकार से हैं ।120 पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अनुसार उत्सर्ग प्राप्ति, समाधि और मोक्ष की प्राप्ति होती है।102 शुचि आचारवाले रुप निवृत्ति त्याग कृत, कारित, अनुमोदनारुप मन, वचन व काय निर्लोभी व्यक्ति का लोक में सन्मान होता है। उसमें विश्वासादि गुण (3x3) भेद से नव प्रकार का है, और अपवादरुप निवृत्ति त्याग
... तो अनेक प्रकार का है।121 (9) आकिञ्चन्य धर्म :
इस प्रकार साधु अपने जीवन में विहित आचार का पालन जो साधक धन, स्वर्ण आदि बाह्य द्रव्य और मिथ्यात्वादि करता हुआ व्यवहारधर्म से युक्त होता है। और भावों में निश्चयधर्म भावरुप किञ्चन (परिग्रहमात्र) से मुक्त हो; परिग्रहरहित हो - वह प्रकट कर लेता है। 'अकिञ्चन' कहलाता है।104; उसके भाव को 'आकिञ्चन्य धर्म' कहते हैं ।105 'यह मेरा है' -इस प्रकार के भाव अर्थात् मू» से निवृत्त
98. अ.रा.पृ. 7/1165, 3/1278; पञ्चाशक विवरण 4/9 होना 'आकिञ्चन्य धर्म' है ।106 आकिञ्चन्यधर्मयुक्त साधक कर्मनिर्जरा
99. वही; स्थानांग 5/3
100. तत्त्वसार 5/16-17 के लिए देह के भी ममत्त्व का नाश करता है/शरीर को भी निर्जरा
101. राजवार्तिक 9/6/8 हेतु नष्ट करने योग्य मानता है।107 (इसका विस्तृत वर्णन अपरिग्रह
102. अ.रा.पृ. 4/2226; द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका 9/3-4 महाव्रत में किया गया हैं)
103. राजवातिक-9/6/27; अनगार धर्मामृत-6/27 (10) ब्रह्मचर्य धर्म :
104. अ.रा.पृ. 1/125; उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन 3 ब्रह्मचर्य धर्म का वर्णन पूर्व में चतुर्थ महाव्रत वर्णन के
105. अ.रा.पृ. 2/57 साथ किया जा चुका है।
106. दशवैकालिक 6/22; अनगार धर्मामृत 6/54
107. आवश्यक बृहद्वृत्ति अध्ययन 4; अ.रा.पृ. 2/57; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश तत्त्वार्थ सूत्र, बारस अणुवेक्खा, पञ्चविशतिका, द्रव्यसंग्रह
1/224 आदि ग्रंथों में 'मुक्ति' नामक चतुर्थ धर्म के बजाय आठवें यतिधर्म
108. तत्त्वार्थ सूत्र-9/6 पर तत्त्वार्थ भाष्य; सवार्थ सिद्धि 9/6; बारस अणुवेक्खा में 'त्याग धर्म' को संग्रहीत किया है।08, अतः यहाँ त्याग धर्म का 70;पद्मनन्दिपञ्चविशंतिका 1/7; द्रव्यसंग्रह 35 पर टीका, पृ. 145 भी परिचय दिया जा रहा है।
109. अ.रा.पृ. 3/1171; पञ्चवस्तुक सटीक 1/8 त्याग धर्म :
110. अ.रा.पृ. 3/1171 अभिधान राजेन्द्र कोश में त्यागधर्म की व्याख्या करते
111. बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरानपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः । तत्त्वार्थभाष्य
9/6/8, पृ. 391 हुए आचार्यश्री ने कहा है कि "सम्यक् प्रवचन अर्थात् जिनप्रवचन
112. बारस अणुवेक्खा 78 (आगम) में कथित विधि पूर्वक मन-वचन-काया से आरंभ-परिग्रह
113. सर्वार्थ सिद्धि 9/6, पृ. 413 में प्रवृत्ति नहीं करना 'त्याग' कहलाता हैं" 1109 बाह्याभ्यन्तर परिग्रह
114. राजवार्तिक 9/6/18 का त्याग साधु का त्यागधर्म कहलाता है।110 तत्त्वार्थभाष्य में कहा 115. भगवती आराधना 46 पर विजयोदया टीका, पृ. 154 है कि "धन-धान्य-खेत-मकानादि बाह्य एवं मिथ्यात्व, कषाय, 116. पद्मनन्दिपञ्चविशंतिका 1/101 नोकषायादि आभ्यन्तर परिग्रह एवं उपधि, शरीर, अन्न, जल आदि
117. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/397 पर उद्धृत
118. अ.रा.पृ. 3/1171 के आश्रित भाव-दोषों का त्याग करना मुनि का 'त्याग धर्म' हैं ।।।।
119. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/397 बारस अणुवेक्खा के अनुसार मुनि के द्वारा "पर द्रव्यों के मोह
120. वही को छोडकर संसार, देह और भोगों से उदासीनतारुप परिणाम रखना" 121. पुरुषार्षसिद्धयुपाय 76
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