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________________ [286]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अष्ट प्रवचनमाता (समिति-गुप्ति) जैनावाङ्मय में अष्ट प्रवचनमाता एक पारिभाषिक शब्द है; अष्ट प्रवचन माताओं में पांच समितियों और तीन गुप्तियों का समावेश है। इनका स्वरुप निम्न प्रकार से प्राप्त हैसमिति : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'समिति' की व्याख्या करते हुए कहा है कि, 'सम्' उपसर्गपूर्वक इण् गतौ धातु में क्तिन् प्रत्यय होने पर 'समिति' शब्द निष्पन्न होता है। सुंदर एकाग्र परिणाम की चेष्टा, सम्यक्प्रवृत्ति, सम्यक् प्रकार से जीव हिंसा का निरोध', सम्यग् गमन, सम्यक् प्रवर्तन", समागम'; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार चलने-फिरने में, बोलने-चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने-रखने में और मलमूत्र निक्षेपण करने में यत्नपूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना समिति है। समितियों के पाँच भेद : 4. भाव : उपयोगपूर्वक/सावधानीपूर्वक चलना। अभिधान राजेन्द्र कोश में एवं अन्य जैनागम ग्रंथों में समिति तीर्थंकर परमात्माने मुनि को पुष्ट आलम्बन (विशेष कारण) के पाँच भेद' दर्शाये हैं -1. ईर्या समिति 2. भाषा समिति 3. एषणा के बिना रात्रि में विहार की अनुज्ञा नहीं दी है20 । समिति 4. आदानभण्डमत निक्खेवणा (निक्षेपणा) समिति 5. (2) भाषा समिति :उच्चारपासवण-खेलजल्लसिंधाणपारिद्धावणिया समिति (उच्चार-प्रस्रवण अभिधान राजेन्द्र कोश में भाषा समिति का परिचय देते निष्ठीवन-श्लेष्म-मल-परिष्ठापनिका समिति)। हुए आचार्यश्रीने कहा है कि, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, आगे अभिधान राजेन्द्र कोश में स्थानांग सूत्र को उद्धृत मौखर्य (मुखरता) और विकथा (राज, देश, भक्त, स्त्र्यादि की कथा) करते हुए कहा है कि उपरोक्त पाँच समितियों के साथ मन:समिति, रहित निरवद्य वचन प्रवृत्ति 'भाषा समिति' कहलाती है।। मुनि को वचनसमिति और कायसमिति मानने पर आठ समितियाँ होती है।। स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जानेवाले स्व पर हितकारक, मन:वचनकायसमितियों को गुप्ति नाम भी दिया गया है। इन आठों निरर्थक बकवासरहित, मित, स्फुटार्थ, व्यक्ताक्षर और असन्धिग्ध वचन समितियों अर्थात् पाँच समितियों और तीन गुप्तियों (मनोएप्ति, वचनगुप्ति, बोलना 'भाषा समिति' है। मिथ्याभिधान, असूया (इर्ष्या), प्रियभेदक, कायगुप्ति) का एकाभिधान 'अष्ट प्रवचनमाता' हैं। इन आठों समितियों अल्पसार, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्मविधायक, निंदित, देशकाल में द्वादशांग समाहित होने से अथवा इन आठों से द्वादशांग की विरोधी और चापलूसी आदि वचन दोषों से रहित भाषण करना चाहिए। उत्पत्ति होने से अथवा द्वादशांग या सङ्घ का आधार होने से समितिगुप्ति को प्रवचनमाता/अष्ट प्रवचनमाता कहते हैं। ये अष्ट प्रवचन 1. अ.रा.पृ. 7/432 माता मुनि के ज्ञान, दर्शन, और चारित्र की सदा ऐसे रक्षा करती 2. वही, आवश्यक बृहद्वृत्ति, अध्ययन-4 3. वही, प्रश्नव्याकरणांग-1 संवर द्वार; राजवार्तिक-9/2/2; सर्वार्थसिद्धिहैं जैसे कि पुत्र का हित करने में सावधान माता अपायों से उसको 9/2 बचाती हैं।4। ये समितियाँ निम्नानुसार हैं 4. वही, प्रवचन सार-240; भगवती आराधना-115 पृ. 267 (1) ईर्या समिति : 5. अ.रा.पृ. 77432 सम्यक्तया चक्षुर्व्यापार (उपयोग) पूर्वक गमन करना ईर्या 6. वही; उत्तराध्ययन-अध्ययन-24 समिति है।5। धर्मसंग्रह में कहा है कि, "दीक्षित मुनि के लिए 7. वही; समवयांग-5 समवाय आवश्यक प्रयोजन होने पर त्रस स्थावर जीवों के अभय दानदाता 8. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/338 9. अ.रा.पृ. 7/432; समवयांग-समवाय 5; उत्तराध्ययन-24; चारित्र पाहुडजाते समय जीव रक्षा और स्व-शरीर रक्षा के लिए सामने युग मात्र 37; तत्त्वार्थ सूत्र-9/5; मूलाचार-5/101 (चार हाथ प्रमाण) क्षेत्र (स्थान, रास्ता, भूमि) की ओर देखते हुए 10. अ.रा.पृ. 7/432; स्थानांग 8/3; मूलाचार-51100 गमन करना,ईर्या समिति कहलातीहै । निशीथ चूणि के अनुसार "जीव 11. अ.रा.प्र. 5/785; समवयांग, समवाय-8; उत्तराध्ययन-24/2: जैनेन्द्र सिद्धान्त रक्षा हेतु युग प्रमाण भूमि देखते हुए अप्रमादी मुनि का संयम जीवन कोश-3/148 की आवश्यक क्रिया एवं गोचरी (आहार चर्या) आदि हेतु जो गमन 12. अ.रा.पृ. 7/432, 5/785; आवश्यक चूणि-459; पाक्षिक सूत्र सटीक क्रिया, उसे 'ईर्यासमिति' कहते हैं"17। आवश्यक बृहवृत्ति रथ, 13. अ.रा.पृ. 5/785; समवयांग-समवाय-8; उत्तराध्ययन, अध्ययन-24/1 बैलगाडी आदि वाहनों के गमनागमन से एवं सूर्य की किरणों की 14. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/148 15. अ.रा.पृ. 2/659 गरमी से प्रासुक (अचित) मार्ग पर युग मात्र (चार हाथ प्रमाण) दृष्टि 16. वही, धर्मसंग्रह, अधिकार-3; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/339; उत्तराध्ययन, रखकर गमनागमन करना ईर्या समिति कहलाती हैं। । अध्ययन-4 यह ईर्या समिति द्रव्यादि भेद से चार प्रकार से हैं19 17. अ.रा.पृ. 2/659; निशीथ चूर्णि, | उद्देश 1. द्रव्य : जीवादि द्रव्यों को देखकर संयम विराधना और आत्म 18. अ.रा.पृ. 2/659; आवश्यक बृहद् वृत्ति, 4 अध्ययन विराधना से बचकर चलना। 19. वही, उत्तराध्ययनसूत्र सटीक, अध्ययन 4 क्षेत्र : चार हाथ प्रमाण सन्मुख भूमि देखते हुए चलना। 20. अ.रा.पृ. 2/659 3. काल : सूर्य प्रकाश में (दिन में) गमन करना। 21. अ.रा.पृ. 5/1555; समवायाङ्ग-समवाय 5; उत्तराध्ययनसूत्र सटीक 34/ 9-10; नियमसार-62;जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ 4/340 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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