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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [285] इन दोषों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया हैं दोषों से बचने के लिए अष्ट प्रवचनमाताओं का पालन करना आहाकम्म निमंतण, पडिसुणमाणो अइक्कमो होई। जैनधर्म के प्राण रुप है। उदाहरण के लिए सत्यमहाव्रत पालन करने पयभेयाइ वइक्कम गहिए तइयो तरो गिलिए। हेतु यथावस्थित पदार्थ का यथावत् निरुपण करने का विधान है। वहीं पर अतिक्रम आदि के स्वरुप को समझाते हुए कहा गया किन्तु वाग्गुप्ति पालन करनेवाला तो अनावश्यक भाषण ही नहीं करता, है कि साधुओं के लिए विहित क्रिया का उल्लंघन अतिक्रमादि के इससे स्खलन के अवसर कम हो जाते हैं। अष्ट प्रवचन माताओं अन्तर्गत आते हैं ।50 इनमें उत्तरोत्तर दोषाधिक्य हैं। वहीं पर उदाहरण के बिना व्रतों का पालन पूर्ण नहीं होता, इसलिए आगे के शीर्षक के द्वारा इन्हें और भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया हैं में अष्ट प्रवचनमाताओं के विषय में संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित अनुशीलन जैस कोई साधुआधाकर्म दोष से विभावित होता हुआ जो प्रस्तुत किया जा रहा है। उसे लेने का निश्चय करता है वह अतिक्रम का दोषी है; उसके ग्रहण के निमित्त पदभेद करनेवाला व्यतिक्रम का दोषी है; ग्रहण करनेवाला अतिचार का दोषी है और इस प्रकार से आधाकर्म दोष युक्त आहार 49. अ.रा.पृ. 1/8 का सेवन करनेवाला अनाचार का दोषी है। इससे यह स्पष्ट होता 50. अतिक्रमव्यतिक्रमादयः साधुक्रियोल्लङ्घनरुपा:.....- अ.रा.पृ. 1/2 है कि दोष यदि आरम्भिक अवस्था में और मन तक ही सीमित 51. एतेष्वतिक्रमादिषूत्तरोत्तरं दोषाधिक्यम्....... - अ.रा.पृ. 1/8 है तो वह अतिक्रम है, दोषयुक्त आचरण करने में उपक्रमशीलता 52. I.....,आधाकर्मणा विभावितः सन् यः प्रतिश्रृणोति सोऽतिक्रमे वर्तते, व्यतिक्रम है, प्रयत्नसंलग्नता अतिचार है और दोषयुक्त आचरण की तद्ग्रहणनिमित्तं पदभेदं कुर्वन् व्यतिक्रमे, गृह्णानोऽतीचारे बुञ्जोनोऽनाचारे । एवमन्यदपि परिहारस्थानमधिकृत्यातिक्रमादयो ज्ञानपीयाः । अन्तिम परिणति अनाचार है। - अ.रा.पृ. 1/8 (संघनगर ! तुम्हारा कल्याण हो ।) गुणभवणगहणसुयरयण-भरियदंसणविसुद्धरत्थागा। संघनगर! भदंते, अक्खडचरित्त पागरा ॥ पिंडविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रहादि विशुद्ध दर्शन/सम्यकत्वरुपी शेरीवाला एवं अखण्ड चारित्ररुपी मजबूत किल्ले से सुरक्षित हे संघ (रुप) नगर । तुम्हारा कल्याण हो !!! ( संघरथ का कल्याण हो ।) भदं सीलपडागूसियस्स, तवनियमतुरयजुत्तस्स। संघरहस्स भगवओ, सज्झायसुनंदिघोसस्स ॥ 18000 शीलाङ्गरुपी ध्वजा-पताका जिस पर लहरा रही है, तप-नियमरुप अश्वों से युक्त है एवं जहां वाचनादि पंचविध स्वाध्याय रुप वादित्रों का नाद सतत गुंजायमान है; भगवन्त के ऐसे संघरथ का कल्याण हो । (संघपद्म का कल्याण हो ।) कम्मरयजलोहविणिग्गयस्स सुयरणदीहनालस्स । पंचमहव्वयथिरक-नियस्स गुणकेसरालस्स ॥ सावगजणमहुअरिपरि-वुडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स । संघ पउमस्स भदं समणगणसहस्सपत्तस्स ॥2॥ ज्ञानावरणादि आठों प्रकार के कर्मरुपी रज एवं जन्मकारणरुप संसार-समुद्र से विशेषप्रकार से निर्गत (बाहर आये हुए), श्रुतज्ञानरुप रत्नों की दीर्धनाल से युक्त, पंचमहाव्रतरुपी स्थिर कणिकावाले, उत्तरगुणरुपी केसरीवाले, श्रमणगणरुप सहस्रों पत्तोंवाले, श्रावकगणरुपी भ्रमरों से परिमण्डित (धिरा हुआ), जिनेश्वररुप सूर्य के तेज (प्रकाश/वाणी/धर्मदेशना) से बोधित (प्रफुल्लित) होनेवाले संघरुपी पद्म/कमल का कल्याण हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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