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[284]... चतुर्थ परिच्छेद
(ज)
1. समिति (घृणा) गुप्ति आदि के पालन का फल मिलेगा या नहीं ? ऐसी विचिकित्सा देशविचिकित्सा है। 2. चरणकरणरुप ब्रह्मचर्य, परिषहजय, उपसर्गसहन आदि समस्त धर्माचरण का फल मिलेगा या नहीं ? आदि चित्तभ्रम 'सर्वविचिकित्सा' है 35 |
(घ) अमूढदृष्टि अन्य धर्मी, कुतीर्थिकों की अनेक प्रकार की ऋद्धि, पूजा, समृद्धि, वैभव आदि देखने पर भी आकर्षित नहीं होना, अमूढदृष्टि 'दर्शनाचार' हैं । 36
(s) उपबृंहण - तपस्वी की वैयावृत्त्य (सेवा) करना तथा अन्य (साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकादि) को तप, विनय, स्वाध्यायादि सद्गुणों से युक्त देखकर उनकी प्रशंसा करना, 'उपबृंहण' दर्शनाचार है। 37
(च) स्थिरीकरण - रोगादि कारण से या प्रमादवश या अज्ञानवश जो साधु संयम में शिथिल हो रहा हो, उसे वचनादि से प्रेरणा देकर संयम में स्थिर करना 'स्थिरीकरण' कहलाता है। 38 उपलक्षण से धर्माराधना में या धर्मश्रद्धा में अस्थिर श्रावक-श्राविका में धर्म के प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न करना भी 'स्थिरीकरण' हैं। (छ) वात्सल्य - आचार्य, ग्लान (रोगी) प्राघुणक (विहार कर आये हुए), बाल, तपस्वी, नवदीक्षित वृद्धादि साधु की साधु के द्वारा आहार, पानी, उपधि आदि से भक्ति करना; उन्हें समाधि उत्पन्न करना 'वात्सल्य' कहलाता है। श्रावकों के द्वारा चतुर्विध संघ की आहार- पानी आदि के द्वारा भक्ति करना या साधर्मिक की भक्ति करना भी वात्सल्य दर्शनाचार हैं। 39
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) भाषा समिति (3) एषणा समिति (4) आदान भाण्डनिक्षेपणा समिति (5) उच्चारप्रस्रवण खेलजल्लसिंघाण पारिष्ठापनिका समिति (6) मनो गुति (7) वचन गुप्ति (8) काय गुप्ति ।
4. तपाचार4 :
चौथा आचार है तपाचार । इच्छानिरोधरुप अनशनादि बारह प्रकार के तप का सेवन करना तपाचार है । तपाचार के बारह भेद बतलाये गये हैं। छः प्रकार का बाह्य तप और छः प्रकार का आभ्यन्तर तप 5 | अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश व प्रतिसंलीनता ये बाह्य तपाचार है", जबकि प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग और ध्यान - ये आभ्यन्तर तपाचार है" ।
5. वीर्याचार 48 :
पाँचवाँ आचार है वीर्याचार। वीर्य इति वीर्याचारः । वीरियं णाम शक्ति ।' - वीर्य अर्थात् आत्मशक्ति । अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए उपर्युक्त चारों आचारों के छत्तीस भेदों के पालन में आत्मशक्ति का उपयोग करना यह वीर्याचार है। इसके छत्तीस भेद हैं। ज्ञानाचार के आठ भेद, दर्शनाचार के आठ भेद, चारित्राचार के आठ भेद और तप आचार के बारह भेद, ये सब मिलकर वीर्याचार के छत्तीस भेद कहे गये हैं। पाँच आचारों के प्रत्येक भेद-प्रभेद पर विस्तृत विवेचना अभिधान राजेन्द्र कोश में यथास्थान व्यवस्थित रुप से तत्तत् शब्द पर की गयी हैं।
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प्रभावना - धर्मकथा, प्रतिवादी के ऊपर विजय प्राप्ति, उग्र तप, प्रवचन, विशिष्ट लब्धि आदि के द्वारा सर्व प्रकार से प्रयत्नपूर्वक जिन शासन की उन्नति हो, एसे कार्य करना 'प्रभावना' नामक दर्शनाचार हैं।
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यद्यपि जिनशासन / प्रवचन शाश्वत होने से तीर्थंकर भाषित होने से या सुरासुरनमस्कृत होने से स्वयं ही दीप्तिमान है, दर्शनशुद्धि का इच्छुक आत्मा स्वयं जो विशिष्टगुण होता है, वह आर्य वज्रस्वामी के समान शासन प्रभावना करता है। क्योंकि शासन की मलिनता से धर्म की हानि, निंदा आदि होने से वह मिथ्यात्व का हेतु है जो संसारभ्रमण का कारण, पाप का साधन, घोर कर्मविपाक युक्त और सर्व अनर्थो की वृद्धि करानेवाला है। जबकि शासनोन्नत्ति हेतु किया गया यथाशक्ति प्रयत्न सम्यक्त्व का हेतु, सर्वसुखों का निमित्त, मोक्षसुखदाता, तीर्थंकर नामकर्म बंध का औरसर्व संपत्तियों का कारण हैं 40
3. चारित्राचार :
तीसरा आचार है चारित्राचार | आठ प्रकार के कर्मों के समूह को जो रिक्त बनाये उसे चारित्र अथवा सर्वसावद्ययोगनिवृत्ति को चारित्र कहा गया है।41 यह चारित्राचार पञ्चसमिति और त्रिगुप्ति रूप है । चारित्र के पाँच प्रकार बताये गये हैं- (1) सामायिक चारित्र (2) छेदोपस्थापनीय चारित्र (3) परिहार विशुद्धि चारित्र (4) सूक्ष्मसंपराय चारित्र और (5) यथाख्यात चारित्र 142
इन पाँचो चारित्रों में समिति और गुप्ति का पालन अनिवार्य है। इसलिए समिति गुप्ति के पालन को ही 'चारित्राचार' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसके आठ भेद हैं 43 - (1) ईर्या समिति
आचार के दोष :
लोक में 'सदाचार' और 'दुराचार' इन दो शब्दों का प्रचुर प्रयोग देखा जाता हैं। यहाँ 'आचार' का तात्पर्य सदाचार वर्ग के आचरण से है, किन्तु फिर भी यहाँ पर प्रयुक्त 'आचार' शब्द दार्शनिक दृष्टि से भी निश्चित अर्थ का व्यञ्जक है। इस आचरण में दोष लगने पर दोषों के गाम्भीर्य के अनुसार उनका वर्गीकरण किया गया है, यथा - अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । अभिधान राजेन्द्र कोश में ये चारों दोषों का उलेख आहार सम्बन्धी दोषों के विवरण आया है । किन्तु ये केवल आहार में ही नहीं, अपितु अन्यत्र भी हो सकते हैं, अतः इनका परिहार आवश्यक है। दोषों को जाने बिना उनका परिहार भी नहीं हो सकता, अतः दोषों को जानना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि गुणों को। अभिधान राजेन्द्र कोश में
35.
अ. रा.पू. 6/1190
36.
अ.रा. पृ. 1/748; निशीथ सूत्र- 1/26
37.
अ. रा. पृ. 2/1011; निशीथ सूत्र- 1/27; उत्तराध्ययन-अध्ययन-28
38.
अ. रा. पृ. 4/2411, 2436; निशीथ सूत्र - 1/ 28
39. अ. रा. पृ. 6/796; उत्तराध्ययन- 28 अध्ययन; निशीथ चूर्णि -1/29 40. अ.रा.पृ. 5/438, 439; हारिभद्रीय अष्ट -23; निशीथ चूर्णि-- 1/31; 41. अ.रा. पृ. 3/1141
42. अ.रा. पृ. 3/1152
43.
अ. रा. पृ. 3/1150, 5/786; मूलाचार-288, 297; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
1/240
44. अ.रा. पृ. 3/2207; मूलाचार-345, 346, 360; परमात्मप्रकाश टीका-7/ 13; द्रव्यसंग्रह टीका-52/219; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/240, 241
45. अ. रा. पृ. 4/2207-2208
46. अ.रा. पृ. 4/2200-2208
47.
48.
अ.रा. पृ. 4/2207 2208
अ. रा.पू. 6/1409; मूलाचार - 4/3; द्रव्यसंग्रह टीका - 52/219; जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश-1/241
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