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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [283] सूत्रों को संस्कृत में परिवर्तित नहीं करना 'व्यंजनाचार' नामक
इस प्रकार की शङ्का न करना 'निशङ्कित' दर्शनाचार है। ज्ञानाचार है। व्यंजनों (उञ्चरित ध्वनियों) के परिवर्तन से सूत्रों भव्यात्मा को एसी शंका से बचना चाहिए क्योंकि 'जिनप्रणीत' सूत्र के पदों की नियुक्ति में परिवर्तिन हो जाने से उनका अर्थ के एक अक्षर में भी शंका करने से जीव मिथ्यादृष्टि होता है; इसमें बदल जाता है; जिससे अर्थ में भेद हो जाने से चारित्रभेद, जिनवचन ही हमारे लिए प्रमाण है। अत: निःशङ्कित दर्शनाचार चारित्रभेद से अमोक्ष और अमोक्ष से दीक्षादि क्रिया की निष्फलता का पालन करना चाहिए। होती है। इसलिए सूत्र के किसी भी अक्षर, बिन्दु या पद (ख) निष्कांक्षित - अर्थात् 'कांक्षारहित होना' - 'कांक्षा' का लक्षण का कभी भी परिवर्तन नहीं करना चाहिए। यह 'व्यंजनाचार'
बताते हुए निशीथ सूत्र में कहा है - "कंखा है, इसका अनिवार्य रुप से पालन करना चाहिए।16
अण्णोण्णदंसणग्गहो" अर्थात् अन्य-अन्य दर्शनों की अर्थाचार - 'सूत्र' के अभिप्राय या तात्पर्य को 'अर्थ' कहते
अभिलाषा करना ।28 अन्य दर्शनों में क्षमा, अहिंसा आदि हैं। सूत्रोक्त बिन्दु, अक्षर, पद आदि का सूत्रों के अभिप्राय
धर्मो के अंशमात्र दर्शन से मिथ्यात्व मोहनीय का उदय होने से विरुद्ध अर्थ नहीं करना 'अर्थाचार' है। सर्वप्रथम तीर्थंकर
से अन्यान्य दर्शन ग्रहण करने का जीव का परिणाम 'कांक्षा' अर्थ की देशना देते हैं, तत्पश्चात् उसी के आधार पण गणधर
है। वह दो प्रकार से है30 अंतर्मुहूर्त में सूत्र की रचना करते हैं। अतः अर्थ मुख्य है,
1. देश कांक्षा - अन्य सौगत (बौद्ध) आदि एक ही दर्शन क्योंकि कुल-गण-संघ-समिति के विषय में तथा समाचारी
की अभिलाषा करना। (आचारनियम) प्ररुपणा में सूत्रधर से अर्थधर प्रमाण माना जाता
सर्वकांक्षा - सभी धर्मों में अहिंसादि धर्मों का प्रतिपादन
किया गया है, अतः सभी दर्शन समान हैं, एसा मानकर है। अत: अर्थ के बिना सूत्र अनाश्रित (आधार रहित) हो
सभी धर्मो को ग्रहण करना या धर्म के फल के रुप जाते हैं, इसलिए सूत्रविरुद्ध अर्थ की प्ररुपणा नहीं करनी
में ऐहिक (इहलौकिक) आमुष्मिक (पारलौकिक) फलों चाहिए; अर्थभेद नहीं करना चाहिए।18
की कांक्षा करना'सर्वकांक्षा' हैं। (ज) व्यञ्जनार्थतदुभयाचार - तीर्थकरप्रणीत सूत्र और अर्थ दोनों
यहाँ कांक्षा के गृद्धि, आसक्ति, स्त्री आदि की अभिलाषा के अक्षर, बिन्दु या पद में परिवर्तन/भेद नहीं करना
करना, तीव्राभिलाषा, भोगेच्छा आदि अर्थ भी बताये गये हैं। इन 'व्यञ्जनार्थतदुभयाचार' है। इससे उपरोक्त दोषोत्पत्ति होने से
कांक्षाओं से रहित होना -'नि:कांक्षिताचार' हैं। प्रवचन निरर्थक सिद्ध होने पर दीक्षादि क्रिया निष्फल हो
(ग) निर्विचिकित्सा - विचिकित्सा रहित होना 'निविचिकित्सा' जाने की स्थिति में शासनमालिन्य का प्रसङ्ग आता है। अतः
कहलाता है। चित्तविप्लव अर्थात् मतिभ्रम, आशंङ्का या धर्मफल इससे बचने हेतु आठों प्रकार के ज्ञानाचार का पालन करना
में भ्रमयुक्त शङ्का करना । विचिकित्सा का लक्षण बताते चाहिए।
हुए कहा है - संतम्मि वि वितिगिच्छा, सज्झेज्ज ण मे 2. दर्शनाचार :
अयं अट्ठो''33 - यह कार्य होगा या नहीं? अथवा प्रत्यक्ष दर्शनाचार को सम्यक्त्वाचार भी कहते हैं। 'दर्शन' अर्थात्
में यह एसा है; परोक्ष में इस तप-संयम-परिषहादि का फल सम्यक्त्व। निःशंकितादिरुप से सम्यक्त्व की शुद्ध आराधना करना मिलेगा या नहीं? यह 'विचिकित्सा' है। साधु के मलमलिन 'दर्शनाचार' है। इसके भी आठ भेद हैं- (क) निःशंकित (ख) वस्त्र, पात्र, उपकरणादि देखकर निंदा, गर्हा या दुर्गछा करना - नि:कांक्षित (ग) निर्विचिकित्सा (घ) अमूढदृष्टि (डा उपबृंहण (च) दूसरे प्रकार की विचिकित्सा है। यह दो प्रकार से है - स्थिरीकरण (छ)वात्सल्य और (ज) प्रभावना ।। अभिधान राजेन्द्र कोश
16. अ.रा.पृ. 6/797; निशीथ चूणि 1/17, 18 में आचार्यश्रीने इन आठों प्रकार के दर्शनाचार का वर्णन निम्नानुसार
17. अ.रा.पृ. 1/506; स्थानांग-2/1 किया है।
18. अ.रा.पृ. 4/1995; निशीथ चूणि 1/22 (क) निःशंकित - 'निःशंकित' का अर्थ है शंका के अभाव से अ.रा.पृ. 6/766; निशीथ चूणि 1/20
युक्त । अतः 'शंका' को समझना आवश्यक है। अभिधान 20. अ.रा.पृ. 4/2436 राजेन्द्र कोश के अनुसार 'संशय करना', 'शंका' है।24 श्री
21. अ.रा.पृ. 4/2436; उत्तराध्ययन-28/31; प्रज्ञापना सूत्र-132; निशीथ सूत्र
1/23; मूलाचार-200-2013; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ 1/240 जिनेश्वरप्रणीत धर्मास्तिकायादि पदार्थों और जीवादि तत्त्वों का
22. अ.रा.पृ. 4/2436 मतिदौर्बल्य (बुद्धिमान्द्य) के कारण सम्यक् प्रकार से अवधारण
23. अ.रा.पृ. 4/2436 नहीं करने से 'क्या यह एसा है ?' या 'एसा है या नहीं?'
24. अ.रा.पृ. 4/2436; निशीथ चूणि-1/24 एसा संशय करना 'शंका' हैं।25 यह 'शंका' दो प्रकार से
अ.रा.पृ. 7/35%8 हो सकती है
26. अ.रा.पृ. 7/35-36
27. अ.रा.पृ. 7/35 1. देशशंका - किसी विषय में अंशतः भी शंका करना।
28. अ.रा.पृ. 3/164; निशीथ सूत्र-1/24 जैसे - समान होने पर भी जीवों में भव्य और अभव्य
29. अ.रा.पृ. 3/164; भगवती सूत्र-1/1 भेद कैसे हो सकते हैं? -यह देशशंका हैं।
30. अ.रा.पृ. 3/1643 सर्वशंका - समस्त द्वादशाङ्ग गणिपिटक प्राकृत भाषा 31. अ.रा.पृ. 3/164; सूत्रकृताङ्ग-1/15; में ही बना है, अथवा किसी कुशल व्यक्ति द्वारा कल्पित 32. अ.रा.पृ. 6/1190 है, इस प्रकार की शङ्गा 'सर्वशंका' हैं।26
33. अ.रा.पृ. 6/1190; निशीथ सूत्र-1/24 34. अ.रा.पृ. 6/1190
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