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[282]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
पञ्चाचार
जब तीर्थंकर परमात्मा धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं; तब सर्वप्रथम वे आचार मार्ग का उपदेश देते हैं।, क्योंकि आचार ही परम और चरम कल्याण का साधकतम हेतु हैं।
जिसका आचरण किया जाये उसे 'आचार' कहते हैं। 'आचार' की विस्तृत परिभाषा पूर्व में बताई जा चुकी है अतः यहाँ इस विषय में पिष्टपेषण नहीं करते हुए यहाँ 'आचार' के भेद-प्रभेद की चर्चा करते हुए पञ्चाचार का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। आचार के भेद-प्रभेदों को बताते हुए आचार्यश्रीने आचार दो प्रकार से बताया है -
(1) दव्याचार - गुण पर्याययुक्त द्रव्य का पर्यायान्तर को प्राप्त करना
'द्रव्याचार' हैं। (2) भावाचार- ज्ञानाचर, दर्शनाचार, चारित्रचार, तपाचार और वीर्यचार
- ये पाँच भावाचार हैं । अभिधान राजेन्द्र कोश में और जैनागम ग्रंथो में भी कहीं पहले दर्शनाचार का तो कहीं पहले ज्ञानाचार का कथन किया गया है। इसका कारण केवलज्ञानी को प्रथम केवलदर्शन और तत्पश्चात् युगपत् केवलंज्ञान उत्पन्न होता है, उस अपेक्षा से कहीं दर्शनाचार को पहले कहा है, और संसारी जीव को चाहे विशिष्ट ज्ञान हो या न हो, सामान्य ज्ञान होने पर ही श्रद्धा अर्थात् सम्यग्दर्शन होता हैं; इस अपेक्षा से कहीं पर ज्ञानाचार का कथन पहले किया गया है। वस्तुतः उसमें कोई तात्त्विक भेद नहीं हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीने आचार के भेदों का स्थानांग सूत्रोक्त संबन्ध बताते हुए कहा है कि आचार दो प्रकार का है
ज्ञानाचार और नो ज्ञानाचार; नोज्ञानाचार के दो भेद हैं - दर्शनाचार और नोदर्शनाचार; नोदर्शनाचार के दो भेद हैं - चारित्राचार
और नो चारित्राचार, नो चारित्राचार के दो भेद हैं - तप आचार और वीर्याचार । इस प्रकार आचार के ये पाँचो भेद आपस में एक-दूसरे से संबंधित हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोश में इन आचार-प्रभेदों का वर्णन करते हुए ज्ञानाचार के आठ, दर्शनाचार के आठ, चारित्राचार के आठ, तप आचार के बारह और वीर्याचार के छत्तीस भेद बताये हैं। 1. ज्ञानाचार :
प्रथम आचार है ज्ञानाचार। सम्यक् तत्त्व का ज्ञान कराने के कारणभूत श्रुतज्ञान की आराधना करना ज्ञानाचार है। अर्थात् नये ज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त ज्ञान की रक्षा के लिए जो आचरण आवश्यक हैं, उसे ज्ञानाचार कहते हैं। परमात्मप्रकाश के अनुसार "निजस्वरुप में, संशय-विमोह विभ्रमरहित जो स्वसंवेदना ज्ञानरुप ग्राहकबुद्धि सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका आचरण ज्ञानाचार है। स्थूल दृष्टि से इसके आठ भेद
(ख) विनयाचार - मतिज्ञानादि पाँचों प्रकार के ज्ञान और ज्ञानी
कीआशातना का त्याग, भक्ति, बहुमान और प्रशंसा (सद्भूत गुणोत्कीर्तना) विनय (विनयाचार) नामक ज्ञानाचार हैं।" बहुमानाचार - अन्तरात्मा की प्रीति, चित्त के प्रमोदभाव पूर्वक गुणानुराग एवं गुणपक्षपात के साथ ज्ञान और ज्ञानी का विविधप्रकार से भक्ति सहित सम्मान करना 'बहुमान' नामक ज्ञानाचार है। इससे गुरु द्वारा अल्पसूत्रपाठ अध्यापन कराने पर भी अधिक ज्ञानलाभरुप फल होता है। उपधानाचार - साधु-साध्वी के द्वारा अङ्ग-उपाङ्गादि सिद्धांतो (जैनागम ग्रंथों) को पढने के लिए आयंबिल, उपवास अथवा निवी(एक प्रकार का तप) आदि के तपपूर्वक गुरु (आचार्य) के समीपसूत्रों के योगोद्वहन की क्रिया करना या गृहस्थ के द्वारा श्री पञ्चमङ्गल महाश्रुतस्कंध (नमस्कार महामंत्र) आदि आवश्यक सूत्रों की उपवासादि तप पूर्वक उपधान तप आराधना करना 'उपधान' नामक ज्ञानाचार है । सम्यक् प्रकार से उपधान तप की आराधना से आराधक 'निर्वाण' (मोक्ष) प्राप्त करता
3.
(ड अनिवाचार - श्रुतदाता गुरु एवं पठित श्रुत का अपलाप/
निंदा न करना, या किसी के पूछने पर जिनसे वह ज्ञान अर्जित किया हो, उन्हीं का नाम बताना - यह 'अनिह्नव' नामक ज्ञानाचार है। व्यंजनाचार- जो सूत्रों के अभिप्राय को प्रगट करते हैं, उन्हें व्यंजन कहते हैं। तीर्थकर प्रणीत प्राकृत भाषा के सूत्रों के
बिन्दु, अक्षर, पद आदि में परिवर्तन नहीं करना या प्राकृत 1. आचारां नियुक्ति-8 2. अ.रा.पृ. 2/376,, 389
अ.रा.पृ. 2/369, 330, 368; विशेषावश्यक भाष्य-3/933; 4. अ.रा.पृ. 2/368, 369
अ.रा.पृ. 2/369, स्थानांग-2 ठाणां अ.रा.पृ. 2/369 ज्ञानं श्रुतज्ञानं तद्विषय आचारः। श्रुतज्ञानविषये कालाध्ययनविनयाध्यापनऽऽदिरुपे व्यवहारे।
अ.रा.पृ. 4/1994 8. परमात्मा प्रकाश - 7/13 9. अ.रा.पृ. 4/1994, 4/2211; मूलाचार-269 10. अ.रा.पृ. 3/496, 497; निशीथ चूर्णि-1/9 से 12 11. अ.रा.पृ. 6/1153; निशीथ चूर्णि 1/9 से 12 12. अ.रा.पृ. 5/1303, 1304; निशीथ चूणि 1/14 13. अ.रा.पृ. 2/1076; उत्तराध्ययनसूत्र-11 अध्ययन; आचारांग-1/9/1 14. अ.रा.पृ. 2/1080; सेन प्रश्न-3/186 15. अ.रा.पृ. 1/333, 334; निशीथ चूणि 1/16
(क) कालाचार (ख) विनयाचार (घ) उपधानाचार (ङ) अनिवाचार (च) व्यंजनाचार (छ) अर्थाचार (ज) तदुभयाचार। (क) कालाचार- स्वसमुत्थ (आत्मोत्पन्न) और परसमुत्थ (अन्योत्पन्न)
अस्वाध्यायकाल का त्याग कर स्वाध्यायकाल अर्थात् शास्त्रपढने योग्य काल में सूत्रादि का अध्ययन, अध्यापन, स्वाध्यायादि करना 'कालाचार' नामक ज्ञानाचार हैं।10
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