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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [281] रौद्रध्यानजनक स्थान को भवभीरु, पापभीरु ब्रह्मचारी मुनि त्याग पञ्चम महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ।6। -
अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रश्न व्याकरणांग और आचारांग के 2. स्त्रीजनमध्य में कथादि वर्जन - साधु को स्त्रियों की पर्षदा में
अनुसार तथा चारित्र पाहुड के अनुसार मुनि की पञ्चम महाव्रत की रक्षा इष्टार्थ अर्थात् हास्य-रुप-श्रृंगारयुक्त, मोहजनक, विलासयुक्त, करनेवाली पाँच भावनाएँ हैं इस प्रकार हैं - मुनि के द्वारा पाँचों इन्द्रिय गर्वयुक्त, अनादरकारी कथा नहीं कहना चाहिए।
संबंधी मनोज्ञ-अमनोज्ञ किसी भी प्रकार के प्राप्त होनेवाले या न होनेवाले 3. स्त्रीरुपनिरीक्षण वर्जन - स्त्रियों के हास्य, कथा, विकारचेष्टा,
1. शब्द 2. रुप 3. गंध 4. रस एवं 5. स्पर्श, दोनों ही स्थितियों में रागहस्तन्यासादि, गति विलास, क्रीडा, नृत्य, नाटक, लावण्य,
द्वेष रोष, आकांक्षा, मोह, प्राप्ति, लोभ, तोष, हास्य, स्मृति, आक्रोश, रुपाकृति, वस्त्रालङ्कार, विभूषा अङ्गोपाङ्गादि का निरीक्षण नहीं
अपमान, तर्जना, कोप, रुदन, करुणा, निन्दा, द्रव्यनाश, वध, जुगुप्सा, करना चाहिए।
आदि कुछ भी नहीं करना, नहीं कराना, करनेवालों की अनुमोदन नहीं पूर्वकृत क्रीडादि स्मरण वर्जन - पूर्व में गृहस्थ जीवन में
करना। गृहस्थावास में की गई क्रीडादि, पूत्रादि के विवाहादि, मुण्डन
सद्भावनाओं का फल :संस्कारादि, इन्द्र-महोत्सवादि तथा अन्य भी श्रृंगाररसयुक्त किसी
ये महाव्रत संबंधी 25 भावनाएँ और अनित्यादि बारह भावनाएँ भी घटना का सम्मरण नहीं करना। प्रणीत भोजन वर्जन - साधु नियम से ही मधु (शहद), मक्खन,
आत्मा को भावित करने योग्य हैं। इन सद्भावनाओं से भावित शुद्ध मांस, मदिरा - इन चार का तो यावञ्जीव त्यागी ही होता है।
आत्मा (अन्तरात्मा) चारित्रवान् जीवरुप जहाज संसाररुप समुद्र में सदागम और घी, दूध, दही, तेल, गुड-शक्कर, पक्वान्न आदि भी अत्यधिक
(जैनागम) के श्रवण से अधिष्ठित होकर तपरुप अनुकूल पवन के द्वारा मात्रा में नहीं लेता, साथ ही आहार में ये छ: विगईयाँ भी एक
सर्वद्वन्द्व (समस्या) को दूरकर सर्वदुःखरुप संसार से पार होकर मोक्षरुपी साथ नहीं लेना चाहिए तथा दिन में भी बार-बार भोजन नहीं
तीर को प्राप्त करता हैं ।162 करना। आचारांग में ये भावनाएँ निम्नानुसार हैं।601. स्त्री कथा का त्याग
160. अ.रा.पृ. 5/1262 से 1265; आचारांग-2/3 2. मनोहर इन्द्रियादि आलोकन त्याग
161. अ.रा.पृ. 5/562 से 5/567; प्रश्न व्याकरण-पञ्चम संवर द्वार; आचारांग3. पूर्वकृत क्रीडादि स्मरण त्याग
2/3; चारित्र पाहुड-36 4. प्रमाणातिरिक्ताहार व प्रणीत भोजन त्याग
162. अ.रा.भा. 5/1515; उत्तराध्ययन-19 अध्ययन; आचारांग-1/1/1, 2/15: 5. स्त्री-पशु-नपुंसकसंसक्त शयानादि त्याग।
सूत्रकृताङ्ग-1, श्रुत स्कंध, 15 वाँ अध्ययन
| सत्सङ्गति ।
पुष्णाति गुणं मुष्णा - ति दूषणं सन्मतं प्रबोधयति ।
शोधयते पापरजः, सत्सङ्गतिरङ्गिनां सततम् ॥1॥ सद्यः फलन्ति कामाः, वामाः कामा भयाय न यतन्ते । न भवति भवभीतितति - र्जिनपतिनतिमतिमतः पुंसः ॥2॥
गुरुसेवाकरणपरो, नरो न रोगैरभिद्रुतो भवति । ज्ञानसुदर्शनचरणौ - राद्रियते सद्गुणगुणैश्च ।॥ प्रौढस्फूर्तिनिरुपम - मूर्तिः शरदिन्दुकुन्दसमकीर्त्ति । भवति शिवसौख्यभागी, सदा दयाऽलंकृतः पुरुषः ॥4॥ जलमिव दहनं स्थलमिव, जलधिर्मंग इव मृगाधिपस्तस्य ।
इह भवति येन सततं, निजशक्त्या तप्यते सुतपः ॥5॥ तं परिहरति भवार्त्तिः, स्पृहयति सुगतिविमुञ्चते कुगतिः । यः पात्रशाच्च कुरुते, निजकं न्यायार्जितं वित्तम् ॥6॥
- अ.रा.पृ. 5/1584
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