SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [280]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन महाव्रतों के रक्षार्थ भावनाएँ प्रथम महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ : अभिधान राजेन्द्र कोश में 'सर्वथा प्राणातिपातविरमण व्रत' की रक्षा के लिए पाँच भावनाओं का वर्णन करते हुए प्रश्नव्याकरणांग और आचाराङ्ग; दोनों ही अंगसूत्र के पाठों को उद्धृत किया गया है ।148 प्रश्नव्याकरणांग के अनुसार प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ निम्नानुसार हैं।49 1. ईर्यासमिति का पालन 2. मनःसमिति का पालन 3. वचनसमिति (भाषा समिति) का पालन 4. शुद्धाहारगवेषणा-एषणासमिति का पालन 5. आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति का पालन । आचारांग में कुछ भिन्न प्रकार से वर्णन प्राप्त होता है, यथा - 1. ईयासमितिपालन 2. मनोदुष्प्रणिधान त्याग 3. सावधवचन का त्याग 4. आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समिति 5. आलोकितपान भोजन 150 चारित्र पाहुड में 1. वचन गुप्ति 2. मनोगुप्ति 3. ईर्यासमिति 4. आदान निक्षेपण समिति और 5. एषणासमिति। - इन प्रवचनमाताओं को ही प्रथम महाव्रत की पाँच भावना के रुप में वर्णित किया गया हैं। द्वितीय महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ : आचार्यश्रीने सत्य महाव्रत/सर्वथा मृषावाद विरमण व्रत की रक्षा हेतु पाँच भावनाओं का वर्णन करते हुए निम्नांकित निर्देशों का उल्लेख किया हैं।521. अनुवीचि भाषण - वाणी विवेक अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार से संयम-विवेक युक्त सत्य वचन बोलना। 2. क्रोध त्याग - क्रोध-द्वेषादि से असत्य, अप्रिय, परपीडाकारी वचन का त्याग करना। 3. लोभ त्याग लोभी होकर द्रव्यादि के लोभ से झुठ नहीं बोलना। 4. भय त्याग - भय से असत्य नहीं बोलना 5. हास्य त्याग - मस्ती-मजाक में हँसी से भी कपटयुक्त, असंबद्ध वचन, परपरिवाद, परनिंदा, परपीडाकारक, गुप्तबात प्रकट करनेवाले, हिंसाजनक, संयमनाशक वचन नहीं बोलना।। तृतीय महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ :1. विविक्त वसति वास - (निर्दोष वसति में रहना) मुनि के द्वारा देवकुल, सभा, प्याऊ, परिव्राजकादि के आश्रम, वृक्षमूल, उद्यान, गुफा, रथशाला कुपितशाला (भाण्डागार), श्मशान, पर्वतगृह, उपाश्रयादि स्त्री-पशु-नपुंसक रहित, अचित्त निर्दोष स्थान में निवास करना 'विविक्त वसति वास' नामक प्रथम भावना हैं 153 2. अनुज्ञातसंस्तारक ग्रहण - (उपाश्रय में उपलब्ध वस्तुओं की । भी अनुज्ञा लेना) अर्थात् मुनि जिस वसति या उपाश्रय में ठहरने हेतु उसके स्वामी से अनुज्ञा प्राप्त करें, उससे उपाश्रय में रहें वहाँ पर रखे हुए पाट, पाटिया, संथारा, तृण, भस्मादि का उपयोग करने हेतु पुनः आज्ञा प्राप्त करें। यदि आज्ञा प्राप्त हो तो ही उन्हें उपयोग में ले सकते हैं, अन्यथा नहीं। और यह आज्ञा प्रतिदिन पुनः पुनः लेनी चाहिए।154 3. शय्या परिकर्मवर्जन - पाट-पटिये, शय्या, संथारा हेतु वृक्षादि के छेदन-भेदन नहीं कराना। जिस आश्रय में मुनि निवास करें वहाँ जैसी शय्या मिले उसमें राग-द्वेष न करें। पवनादि हेतु उत्सुक न हो । दंश-मशकादि से क्षुब्ध न हों, धुआँदि न करावें और संयम, संवर एवं समाधि में (समभाव में) स्थिर रहकर अध्यात्म में चित्त स्थिर करें।155 अनुज्ञापित भोजन ग्रहण - मुनि के द्वारा तृण, भस्म, दोषरहित आहार, जल, उपधि, वस्त्र-पात्र, शय्या, वसति आदि भी प्रमाणोपेत और स्वामी की आज्ञा प्राप्त करके ही ग्रहण करना ।156 सार्मिक विनय - केवल उपवासादि ही तप नहीं है; विनय भी तप हैं अतः सार्मिक का अर्थात् साधु को साधु का विनय करना चाहिए। अपने द्वारा लाये अन्नादि या अपने पास रहने वाले उपधि एवं उपकरणादि साधर्मी साधु को देना; ज्ञानाभ्यासी को सुखसाता पूछना, यथायोग्य वंदनादि करना, सूत्रार्थ पूछनाश्रवण करना, उपाश्रयादि में प्रवेश करते समय निसीहि एवं निष्क्रमण करते समय आवस्सिहि बोलना, ग्लान, तपस्वी, इत्यादि साधुओं की सेवा करना, उनसे कलह-कर्मबंध नहीं करना इत्यादि 'सार्मिक विनय भावना' कहलाती हैं।157 चारित्र पाहुड में तृतीय महाव्रत की शून्यागार, विमोचितवास, परोपरोध, एषणाशुद्धि और साधर्मियों से विसंवाद नहीं करना - ये पाँच भावनाएँ बतायी गयी हैं। 158 चतुर्थ महाव्रत रक्षार्थ पाँच भावनाएँ।59 : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने चतुर्थ महाव्रत के रक्षणार्थ पाँच भावनाएँ दर्शायी गयी हैं - 1. स्त्री संक्तताश्रयवर्जन- स्त्रीसंसक्त शय्या, आसन, गृह, आँगन, आकाश (खुली जगह), गवाक्ष, आश्रय, वसति, उपाश्रय, उद्यान, मण्डप, वेश्यायतन (उसकी गली में से आवागमन भी निषिद्ध हैं), श्रृंगार भवन, मनोविभ्रम उत्पादक कोई भी स्थान, आर्त 148. अ.रा.पृ. 1/874 से 877 149. प्रश्नव्याकरणाङ्ग-1 संवर द्वार 150. आचारांग-2/3 151. चारित्र पाहुड-32 152. अ.रा.पृ. 1/330-31-32; प्रश्न व्याकरण-2 संवर द्वार 153. अ.रा.पृ. 1/543-544; प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 154. अ.रा.पृ. 5/544; प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 155. अ.रा.पृ. 5/545% प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 156. अ.रा.पृ. 5/545; प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 157. वही 158. चारित्र पाहुज-34 159. प्रश्न व्याकरण-4 संवर द्वार; अ.रा.पृ. 5/1263 से 1266 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy