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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [279] रज नष्ट हो जाती है। निर्वात स्थान में जैसे दीपक प्रज्वलित नहीं स्वर्गादि सुख और मोक्ष सुखदायक, कल्याणकारी, सुखकारी, मोक्ष रहता वैसे ही मूर्छा रहित को समस्त जगत् अपरिग्रहरुप है; उसे का कारण, सुखानुबन्धकारी, हितकारी हैं। 44 मोक्ष प्राप्त करते क्षणमात्र देर नहीं लगती।139 महाव्रतों में दोष लगने का कारण :आचार्यश्रीने अपरिग्रही मुनि का शब्द चित्र खिचते हुए कहा अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने मुनि के द्वारा महाव्रतों है - "अपरिग्रही मुनि सुख-दुःख रहित, तपस्वी, क्षान्त-दान्त, त्यागी, में दोष लगने के कारणों का विवरण करते हुए कहा है कि "पूर्व में धन्य, सर्वप्राणिमित्र, ममत्वरहित, अकिञ्चन, संसार संबंधी लोक व्यवहार अज्ञान, महाव्रतों को गुरुमुख से श्रवण नहीं करने से वास्तविक धर्मबोध से मुक्त, निर्लेप, सुविमल, निरञ्जन, वीतरागद्वेषमोह, गुप्तेन्द्रिय, सौम्य, नहीं होने से, तदनुसार आचरण नहीं होने से अथवा धर्म (महाव्रत, को दीप्ततेज, निश्चल, सर्वसहिष्णु, तेजस्वी, शीलवान्, समभावी, जात अंगीकार करने पर भी मद्य, विषय, कषायादि प्रमादों से अज्ञानता सामर्थ्य, शुद्ध हृदय, अप्रमत्त, निष्प्रकम्प, निरालम्ब, मोक्षसाधनैकदृष्टि, (बालभाव) से, चित्त व्युकुलता या मोहाधीनता से, आलस्यादि से, प्रतिबन्धरहित, अप्रतिहतविहारी, निर्भय, विद्वान् जितेन्द्रिय, परिषहजेता, द्यूतादि क्रीडा के कारण, ऋद्धि-रस-साता इन तीनों गारवों की गुरुता - निरतिचार संयम, नि:कांक्षी, बुद्धिमान, अक्षोभी, और उपशान्त होता अभिमान से, क्रोधादि चारों कषायों के उदय से, पाँचों इन्द्रियों से उत्पन्न आर्तध्यान से, कर्मों के भार से, और सातावेदनीय कर्मोदय से प्राप्त सुख जैन मुनि के श्वेतवस्त्र विधान का हेतु : भोगों की आसक्ति के कारण महाव्रत ग्रहण करने पर भी इनमें दोष लगने सफेद रंग विकाररहितता, वीतरागता, निर्मलता, शांति, क्षमा, की संभावना रहती हैं।145 संतोष त्याग और परिष्कृत बोध का प्रतीक है। जैनदर्शन में इसे शुक्ल महाव्रत पालन से लाभ :लेश्या कहते हैं। सफेद वस्त्र धारण करनेवालों की आत्मा में ये गुण आचार्यश्रीने कहा है कि "जिस प्रकार जंगल में आशीविष प्रकट होते हैं, नेतृत्व क्षमता प्राप्त होती/बढती है, आत्म-शांति की सर्प को नकली नागिन के द्वारा पकडा या वश किया जाता है, वैसे ही वृद्धि होती है, विशिष्ट आरोग्य, ऊर्जा की प्राप्ति होती है। मुनि का छट्ट-अट्ठमादि तप, ध्यान, कायोत्सर्ग, रस (विगई धी आदि) त्याग, जीवन शांतिमय, समतामय, साधनामय होता है। अत: मुनि के वस्त्र आदि के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके क्रोधादि कषायों के ऊपर विजय श्वेत (सफेद) होते हैं। प्राप्ति की जाती हैं और इस प्रकार पञ्चमहाव्रत के पालन के द्वारा साधु सर्वथा रात्रि भोजन विरमण : षष्ठ महाव्रत : मोक्ष प्राप्त करता हैं।146 महाव्रतपालक अहिंसक मुनि के सान्निध्यमात्र अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि, "द्रव्य से हिंसक प्राणी भी (आपसी या अन्य प्रकार के समस्त) वैर का त्याग से अशन (आहार), पान, खादिम, स्वादिम (सौंठ, जीरा, लौंग इत्यादि करते हैं। सत्यवक्ता को बिना किये भी सभी योग (यज्ञादि पूजन पाठ) तथा दवा की गोली), क्षेत्र से अर्थात् ढाई द्वीप में, काल से दिन आदि का फल प्राप्त होता है, वचनसिद्धि प्राप्त होती हैं। अचौर्य व्रतधारी (अँधेरे में या बिजली प्रकाश में) या रात्रि में और भाव से तिक्त, की संपत्ति कोई ले नहीं सकता, उसे सभी दिशाओं के रत्न प्राप्त होते हैं। कटु, काषाय, खट्टा, मीठा या खारा पदार्थ या राग से अथवा द्वेष उसको भूमि आदि में गडा हुआ गुप्त धन प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य से वीर्य से मन-वचन-काय से सर्वथा रात्रि भोजन करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, लाभ (वीर्य रक्षा भी) होती है और वीर्य के ऊर्ध्वगमन से शरीर-इन्द्रियऔर करनेवालों की अनुमोदना करुंगा नहीं" - यह मुनि का सर्वथा मन का विशिष्ट विकास होने से विशिष्ट ज्ञान, लब्धियाँ, सिद्धियाँ प्राप्त रात्रि भोजन विरमण व्रत है(रात्रिभोजनसंबंधी दोष एवं रात्रिभोजनत्याग होती हैं। अपरिग्रही को शांति-संतोष, अहिंसा पालन होता है। अतः से होनेवाले लाभ का वर्णन शोधप्रबंधक के प्रस्तुत अध्याय में श्रावकाचार अहिंसापालन, आत्महित और मोक्ष की प्राप्ति हेतु महाव्रतों का पालन के वर्णन में यथास्थान किया जायेगा)। करना चाहिए।147 इसी प्रसंग में आचार्यश्रीने विशेषावश्यक भाष्य को उद्धत जैनागमों में मुनि को इन पाँच महाव्रतों की सुरक्षा हेतु सतत करके यह स्पष्ट कर दिया है कि रात्रिभोजनविरमण व्रत में जीवहिंसा इन पाँचो महाव्रतों की पञ्चीस-प्रत्येक की पाँच-पाँच) भावनाओं को का त्याग होता है, अत: अहिंसा पालन से समस्त व्रतों का पालन मन में चिन्तन कर मन को इन भावनाओं से भवित करने को कहा गया होने से तथा समस्त व्रतों का संरक्षण होने के कारण तथा इसके है। आचार्यश्री ने लिखा है - बिना व्रती मुनि के महाव्रत परिपूर्ण नहीं माने जाते, प्राणातिपातादि की निवृत्ति रुप महाव्रतों की दृढता के लिए अतःरात्रिभोजनविरमण व्रत मूलगुण हैं।143 मुनि को बार-बार इन भावनाओं का अभ्यास करना चाहिए, क्योंक महाव्रतों का माहात्म्य : भावनाओं के अनभ्यास से महाव्रत मलीन होते हैं। ये भावनाएँ इस अभिधान राजेन्द्र कोश में जैनागमानुसार इन पाँचो महाव्रतों प्रकार हैंका माहात्म्य बताते हुए कहा है कि "महाव्रतमय यह मुनिधर्म 139. अ.रा.पृ. 5/556; ज्ञानसार-25 अष्टक केवलिप्रकाशित, प्राणीमात्ररक्षक, सत्य से व्याप्त, विनयोत्पन्न, क्षमा 140. अ.रा.पृ. 5/561, 562; प्रश्न व्याकरण-5/10, 11, 12 - संवर द्वार से श्रेष्ठ, सुवर्णरजतालंकारादिरुप परिग्रहरहित, इन्द्रियमनोत्पन्न, नवविध 141. जैनाचार विज्ञान, पृ. 22 ब्रहगुप्तियुक्त, पचन-पाचनादि आरम्भरहित, निर्दोषाजीविकादर्शी, 142. अ.रा.पृ. 6/541, 5/294 संचयरहित, शीतोष्णादि में भी अग्न्यादिसंघट्टरहित, कर्मनाशक, 143. अ.रा.पृ. 6/541; विशेषावश्यक-1242, 1243 मिथ्यात्वादिदोषनाशक, गुणग्राही, इन्द्रियविशुद्धिकारक, 144. अ.रा.पृ. 5/287 से 295 145. वही सर्वसावद्ययोगविरतिकारक, पञ्चमहाव्रतयुक्त, मोदकादि के संचयरहित, 146. अ.रा.पृ. 5/265, 266, 267 हठाग्रह, ममत्त्व इर्ष्यादि विसंवाद से रहित, संसार समुद्र से पार करानेवाला, 147. अ.रा.पृ. 6/181, 182; द्वात्रिशद् द्वात्रिशिका-21/6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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