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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [63] हमारी कालगणना के अनुसार यह अवधि 13 वर्ष 6 महिने और • वि.सं. 1940 से वि.सं. 1961 (प्राकृत विवृत्ति-परिशिष्ट अ.रा.को.) 11 दिन होती है। जो कि तिथियों की क्षयवृद्धि के कारण 8 दिन तक वर्ष/संवत् गिनने पर यह सिद्ध होता है कि, अभिधान का अंतर है। इसलिए इस अवधि पर अंत:साक्ष्य उपलब्ध होने के राजेन्द्र कोश का निर्माण 22 वर्षों में हुआ। कारण संशय के लिये कोई अवकाश नहीं हैं। संशोधकद्वयने जैन दीक्षा ग्रहण (वि.सं. 1953 एवं 1954) परंतु उपोद्घात के लेखक संशोधक द्वय के शब्दों में 22 के साथ ही जैनागमों का तीव्र गति से गंभीर अध्ययन करते वर्ष तक परिश्रम करके इस ग्रंथ की रचना हुई। इस कथन से समय अपने गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. रचनावधि में महान अंतर दृष्टिगोचर होता हैं। क्योंकि अंत: साक्ष्य से निर्माणाधीन श्री अभिधान राजेन्द्र कोश (मूलग्रंथ का निर्माण से बलवान बाह्य साक्ष्य नहीं होता इसलिए संशोधकद्वय ने विषयवस्तु वि.सं. 1946 से) एवं उसका प्रथम उपक्रम (पाइय सदबुहि) के विभाग की भांति ही अंत: साक्ष्य के विरुद्ध मतभेद किया हैं। के बारे में असंदिग्ध जानकारी प्राप्त की होगी। हमारी दृष्टि में इसका समाधान यह है कि इसकी रचना 'अभिधान राजेन्द्रः' के नाम से आरब्ध हुआ 'पाइय सदबुहि' तो उपर्युक्त अवधि में पूरी हुई, लेकिन मूल विषय-वस्तु के अतिरिक्त वि.सं. 1960 में सूरत (गुजरात) में पूर्ण हुआ एवं उसके परिशिष्ट भी इसके अग्र भाग और पश्चम भाग भी अवयवी के ही अवयव के रुप में प्राकृत विवरण (व्याकृति/विवृत्ति) वि.सं. 1961 होते हैं, इसलिए इसकी सत्यता हेतु हम प्राकृत कोश (प्रथम उपक्रम में कुक्षी (म.प्र.) में पूर्ण हुआ। अत: संशोधकद्वय की दृष्टि जो कि, 'श्री अभिधान राजेन्द्रः' के नाम से प्रारंभ हुआ और बाद में प्रथम उपक्रम (वि.सं. 1940) से परिशिष्ट (वि.सं. 1961) में इसे 'पाइय सदबुहि' नाम दिया गया) के प्रारंभ की तिथि निम्नाङ्कित तक अभिधान राजेन्द्र कोश के निर्माण में 22 वर्ष लगे। तथ्यों के आधार पर प्राप्त कर सकते हैं - यह कथन युक्तियुक्त ठहरता हैं। वि.सं. 1940 में राजगढ चातुर्मास करके उसी वर्ष फाल्गुन उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर संशोधक द्वय का यह कथन सु. सप्तमी को धामन्दा (म.प्र.) में प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात् कथमपि असमीचीन नहीं है कि 22 वर्षों का परिश्रम इस उग्रविहारी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के वि.सं. ग्रंथ की रचना में लगा। १९४० में ही अहमदाबाद पहुँचते ही विदेशी विद्वानोंने हमने यहाँ पर रचनावधि का सामञ्जस्य बैठाने का प्रयास उनसे संपर्क किया हो और उनसे हुए वार्तालाप से आचार्यश्रीने किया है, इसमें हमारी कोई दुरभिसंधि नहीं है किन्तु उपर्युक्त सभी उसी समय संकल्प करते हुए जैनागम संबंधी प्राकृत शब्दकोश तथ्य युक्तियों एवं ठोस प्रमाणों पर आधारित है। की रचना का प्रारंभ किया हो, तो यह समय वि.सं. 1940 11. अ.रा.भा. 7, अंतिम प्राकृत एवं संस्कृत प्रशस्ति ही माना जायेगा। 12. अभिधान राजेन्द्र, उपोद्घात पृ. 2 13. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि का रास, उत्तरार्द्ध, अंतिम ढाल-लेखक रायचंदजी [ 'सर्वेषां भाजनं विनयः' । "विणया णाणं णाणाउ, देसणं दंसणाहिं चरण तु । चरणाहिंतो मोक्खो, मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥॥" "विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषा फलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरति-विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥2॥ संवरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् । तस्माक्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥3॥ योगनिरोधाद् भवस-न्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां, सर्वेषां भाजनं विनयः ॥4॥ - अ.रा.पृ. 6/337 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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