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________________ [64]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 6. अभिधान राजेन्द्र कोश का एकनिष्ठ परिचय के C. D. माध्यम से में एक पुस्तक के रुप में भी निबद्ध किया जाये तो भी विषय-वस्तु का विभाग अवश्यंभावी हो जाता है आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने निजबुद्धि के अनुसार वैज्ञानिक ढंग से संपूर्ण विषय-वस्तु को 7 (सात) भागों में विभक्त किया था, जिसे यथावत रुप में प्रकाशित कर श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्रीसंघने जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत किया हैं। इस विषय में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के शब्दो में ही प्रस्तुत विषय के समर्थन में प्राप्त प्रमाण अग्रलिखित हैं 1. सप्तम भाग को छोड़कर सभी (1 से 6) भागों को प्रारंभ करते हुए मंगलाचरण दिये गये हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य श्री बुद्धिपूर्वक विषय-वस्तु के विभाग करते हुए शिष्टपरम्परा के अनुसार मंगलाचरण किया है। तृतीय भाग के मंगलाचरण में 'तइयम्मि' 4 | अभिधान राजेन्द्र कोशकी रचना की पृष्ठभूमि जैनागम साहित्य को समझने में सहायक, पूर्ण एवं वैज्ञानिक शब्दकोश का न होना रहा है। इस कारण आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने जैन आगमों को समझने में सहायक हो सकनेवाले इस महाकोश की रचना की है। आचार्यश्री का कथन है कि "इसमें जैनआगमों के सभी विषयों के सभी शब्दों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । 2 संपादकों के द्वारा प्रशस्ति लिखते समय यह स्पष्ट किया गया है कि "इस कोश में सर्वज्ञ के द्वारा निरुपित, गणधर के द्वारा निवर्तित ( रचित) सूत्र, उन पर उपलब्ध सभी प्राचीन सूत्र, वृत्ति, भाष्य, निर्युक्ति, चूर्णि आदि में गुंथे हुए सभी दार्शनिकसिद्धांत, इतिहास, शिल्प, वेदांत, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि में दर्शित शब्दों के वाच्य पदार्थों के युक्तायुक्तत्व का निर्णय किया गया है । यह कोश विस्तृत भूमिका, उपोद्घात, प्राकृत-व्याकृति, प्राकृत शब्दों के रुप-इत्यादि परिशिष्टों से अलंकृत है - " श्री सर्वज्ञ प्रपित - गणधर निवर्तिताऽद्यस्विनोपलभयंमानाऽशेष- सूत्र - तद्वृत्ति-भाष्य-निर्युक्ति-चूर्ण्यादिनिहितसकलदार्शनिक सिद्धान्तेतिहास- शिल्प- वेदान्त-न्याय-वैशेषिकमीमांसादि-प्रदर्शितपदार्थयुक्ता युक्तत्त्वनिर्णायकः । बृहद् भूमिको - पोद्घात-व्याकृति-प्राकृतशब्द-स्मावल्यादिपरिशिष्टसहितः । अभिधान राजेन्द्र कोश अर्धमागधी भाषा के साथ-साथ सभी प्राकृत भाषा भेदों का मौलिक कोश ग्रंथ है । इस शब्दकोश में छोटे-बड़े 60,000 शब्द, सहस्राधिक सूक्तियाँ, 500 से अधिक कथोपकथाएँ, साढे चार लाख श्लोक संग्रहीत है। इस कोश में आये हुए शब्दों पर व्याख्या भाग प्रचुर रुप में उपलब्ध है अभिधान राजेन्द्र कोश : भाषा शैली: 1 अभिधान राजेन्द्र कोश में आये हुए शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि ने इस कोश में सबसे पहले अकारादि वर्णानुक्रम से प्राकृत शब्द, इके बाद उसका संस्कृत में अनुवाद दिया है। इसके बाद लिङ्ग, व्युत्पत्ति और तत्पश्चात् उन शब्दों के जैनागमों में प्राप्त विभिन्न अर्थ संदर्भ सहित दिये हैं और यथास्थान आवश्यकतानुसार शब्द की सिद्धि व्याकरण के सूत्रों के साथ दी है । यथास्थान समास आदि का भी संकेत दिया है। विषय वस्तु का विभाग एवं उसके प्रमाण: अभिधान राजेन्द्र कोश में करीब 60,000 शब्दों का ससंदर्भ अर्थ एवं विस्तृत व्याख्या दी गयी है। इतनी विशालकाय विषयवस्तु को एक पुस्तकाकार में निबद्ध किया जाना असंभव है। क्योंकि उपलब्ध कागज का भार ही इतना हो जाता है, जो किसी व्यक्ति से सहजतया उठाया जाना संभव नहीं है और फिर यदि ऐसा मान भी लिया जाये तो उस पुस्तक को एक जिल्द में बाँधना संभव नहीं हो सकता। इस पर भी यदि आधुनिक युग में कम्प्यूटर यंत्र Jain Education International 2. 3. 4. यद्यपि सप्तम भाग के प्रारंभ में (मुद्रित ग्रंथ में) मंगलाचरण नहीं दिया है परंतु अन्त में ग्रंथकर्ता के द्वारा पूर्णता विषयक लोक प्राकृत भाषा में एवं ग्यारह श्लोकप्रमाण प्रशस्ति संस्कृत भाषा में दी है किन्तु इसमें सप्तम भाग का या सप्तम भाग की समाप्ति का उल्लेख नहीं किया गया परंतु प्रशस्ति से यह ग्रंथ यही पर समाप्त हुआ ऐसा अभिप्राय होता है | 1. 2. 3. 4. 5. 6. इस प्रकार चतुर्थ भाग के मंगलाचरण में 'चउत्थभागं'' ('चतुर्थभागं'संस्कृत) की, पञ्चम भाग के मंगलाचरण में 'भागम्मि य पञ्चम्मि ('भाग पंचमें' - संस्कृत) और इसी प्रकार षष्ठ भाग के मंगलाचरण में 'छट्टे भागे' ('षष्ठे भागे' - संस्कृत) 7 शब्द के द्वारा क्रमशः तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ भाग के प्रारंभ की सूचना दी गयी है। 7. घण्टापथ के बाद का श्लोक- अ. रा. भा. 4 प्रथमावृत्ति की प्रस्तावना एवं उपोद्घात- अ. रा. भा. 1 अभिधान राजेन्द्र का प्रथम (मुख्य) पृष्ठ, प्रथमावृत्ति । वाणिं जिणाणं चरणं गुरुणं, काऊण चित्तम्मि सुयप्पभावा । सारंगहीऊण सुयस्स एयं वोच्छामि भागे तइयम्मि सव्वं ॥ नमिऊण वद्धमाणं, सारं गहिऊण आगमाणं च । अहुणा चउत्थभागं वोच्छं अभिहाणराइंदे ॥ - अ. रा. भा. -3- मंगलाचरण वीरं नमेऊण सुरेसपुज्जं सारं गहेऊणं साहूण सङ्काण य बोहयं तं वोच्छामि भागम्मि य पञ्चम्म | - अ. रा. भा. 5, मंगलाचरण सिरि वद्धमाणसामि नमिऊण जिणागमस्स गहिऊण । सारं छट्ठे भागे, भवियजणसुहावहं वोच्छं ॥ अ. रा. भा.6, मंगलाचरण 8. (क) वासे पुण्णरसंकचन्दपडिए चित्तम्मि वासे वहे, हत्थे भे सुहतेरसीबुहजए पखेय सुम्भे गए । सम्मं संकलिओ य सूरयपुरे संपुण्णयं संगओ, राइंदायरिएण देउ भुवणे इंदकोसो सुहं || (ख) - अ. रा. भा. -4 मंगलाचरण तयागमाओ। For Private & Personal Use Only - अ. रा. भा. 7, प्राकृत में पूर्णता सूचक प्रशस्ति श्लोक धनवन्यभूत्तर्कयुगाङ्गपृथ्वीवर्षे सियाणानगरेऽस्य सृष्टिः । पूर्णोऽभवत् सूर्यपुरे ह्यविघ्नं शून्याङ्गध्येकमिते सुवषे ॥ - अ. रा. भा. 7, प्रशस्ति संस्कृत श्लोक - 10 www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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