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[62]... द्वितीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
5.अभिधान राजेन्द्र कोश का रचनाकाल एवं स्थान
शुभारम्भ :
शिष्यों के साथ चर्चा से गुरुदेवश्री को यत्र-तत्र बिखरे हुए तथा जीर्ण-शीर्ण अनमोल ग्रंथों को एक ही ग्रंथ में आबद्ध करने का एसा साधारण बल मिला कि प्रातः होते ही अपने नित्य-नियम के कार्यों से निवृत्त होकर वि.सं. 1946 में आश्विन शुक्ल द्वितीया के दिन प्राकृत के महान् कोश की रचना का शुभारम्भ किया।
'श्री अभिधान राजेन्द्र प्राकत महाकोश' नामक इस विश्वकोश के लेखन कार्य का शुभारंभ स्वयं ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ग्रंथ रचना में सहयोगी आचार्य श्रीमद् विजय धनचंद्र सूरीश्वरजी (तत्कालीन मुनि श्री धनविजयजी) एवं ग्रंथ-संशोधक उपाध्याय श्री मोहन विजयजी जो कि ग्रंथ-रचना के प्रारंभ के समय वहीं थे एवं संपादक-द्वय आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी (तत्कालीन मुनि दीपविजयजी), आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी' तथा वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी के अनुसार वि.सं. 1946 आश्विन शुक्ला द्वितीया के दिन राजस्थान के जालोर प्रांत के अन्तर्गत स्थित सियाणा नगरमें श्री हेमचंद्राचार्य के उपदेश से परमार्हत राजा कुमारपाल द्वारा निर्मित श्री सुविधिनाथ जिनालय के निकट संघवी शेरी में स्थित पोरवालों की धर्मशाला (पौषधशाला) में किया था। लेखन विधि :
___ आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज के अनुसार 'अभिधान राजेन्द्र कोश' की रचना के समय आज की तरह पेन, बालपेन आदि आधुनिक लेखन-सामग्री उपलब्ध नहीं थी। आपके अनुसार आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सरीश्वरजी प्रतिदिन नारियल की कटोरी में देशी पद्धति से निर्मित स्याही में भीगा कपडा रखते और बरु की कलमसे दिनभर लिखा करते। सूर्यास्त के पूर्व कपडे को सुखा देते और दूसरे दिन फिर उसी कपडे को पानी में भिगोकर अपना लेखनकार्य प्रारंभ करते।' समयावधि :
दृढ संकल्पबल-मनोबल, एवं आत्मिक साहस के साथ चौदह वर्षों तक उनका यह लेखन-कार्य अबाध गति से चलता रहा। इसी बीच उन्होंने मारवाड, गुजरात और मालवा के विभिन्न प्रदेशों में लम्बे-लम्बे उग्र विहार किये। छट-अट्रमादि तपस्याँ भी की, एवं प्रतिष्ठा, अंजनशलाका, भागवती दीक्षा प्रदान आदि अनेक धार्मिक एवं सामाजिक कार्य भी संपन्न किये। समाज के बिछुडे लोगों को भी आपस में मिलाया।
चातुर्मास काल को छोडकर, वे गाँव में एक दिन और शहर में 5 दिन से अधिक बिना कारण कहीं कभी भी नहीं ठहरे। ऐसी विषम परिस्थिति में उन्होंने यह कार्य किया- यह बडे आश्चर्य
की बात है। सतत विहार में लगे रहना, विपक्षियों के तर्को का उत्तर देना, उपवास-छट्ठ-अट्ठमादि तप करना और अनेक प्रकार के उपसर्ग सहन करना और इन सबके साथ अपने दिमाग का संतुलन न खोते हुए करीब 10,000 रोयल पेजी (मुद्रित) पृष्ठों के ग्रंथ का निर्माण करना। सचमुत ही बडा कठिन कार्य है परंतु श्रीमद् अपने निश्चय में अडिग रहे, अन्ततः उन्होंने यह महान् 'ज्ञानकोश' (विश्वकोश) पूरा कर ही लिया। अभिधान राजेन्द्र कोश की पूर्णाहूति :
"वासे पुण्णरसंकचन्दपडिए चित्तम्मि मासे वरे, हत्थे भे सुहतेरसीबुहजए पक्खे य सुम्भे गए। सम्म संकलिओ य सूरयपरे संपण्णयं संगओ; राइंदायरिएण देउ भुवणे राइंदकोसो सुहे॥"
__ अर्थात् विक्रम संवत् 1960 (पूर्ण-0, रस-6, अंक-9' चंदपिडे-1, 'अङ्कानां वामतो गतिः'- इस नियम के अनुसार 1960) में चैत्र मास में शुक्ल पक्ष में तेरस, बुधवार के दिन हस्त नक्षत्र के योग में आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने सूर्यपुर/सूरत (गुजरात) में यह राजेन्द्र कोश पूर्ण किया। वर्तमान उदयपुर (मूलतः निम्बाहेडा, जि. चितौड, राजस्थान) के निवासी श्री ओमप्रकाश डांगीने अभिधान राजेन्द्र कोश के निर्माण की कालगणना करते हुए लिखा है कि "इस कोश का निर्माण 13 साल, 6 महिने और 3 दिन में पूरा हुआ था।"10
प्रारंभ की तिथी से समापन की तिथी तक कालगणना करने पर यह समय साधारण रुप से 13 वर्ष, 6 महिने और 11 दिन होता है, परंतु तिथियों के क्षय के कारण 8 दिन का अंतर संभव है। रचनावधि के विषय में भ्रम और विशेष वक्तव्य :
ग्रंथकर्ता के शब्दों में अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रारंभ एवं समापन की जो तिथियाँ दी गयी हैं उस पर कालगणना करते हुए इसकी रचनावधि 13 वर्ष, 6 महिने और 3 दिन मानी है। किन्तु 1. अ.रा.भा. 7, प्रशस्ति संस्कृत श्लोक 10 2. वही, श्लोक 9
उपाध्याय श्री मोहन विजयजी विरचित गुर्वष्टकम्, श्लोक, अ.रा.भा.3, प्रथमावृत्ति उपोद्घात पृ. 2 एवं मुनि श्री दीपविजयजी रचित गुर्वष्टकम्, अ.रा.भा.3, प्रथमावृत्ति तथा मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी रचित गुर्वष्टक-श्लोक, अ.रा.भा.3,
प्रथमावृत्ति 5. श्री अभिधान राजेन्द्र कोश विशेषांक : शाश्वत धर्म, फरवरी- 1990.
पृ. 19 वही, पृ. 20, वि.सं. 2060, माघ सुदि नवमी, आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन
सूरि के प्रवचन, सियाणा (राजस्थान) 7. श्री अभिधान राजेन्द्र कोश विशेषांक : शाश्वत धर्म, फरवरी- 1990,
पृ. 20
वही 9. अ.रा.भा. 7 के अंत में प्राकृत में लिखित प्रशस्ति श्लोक ___10. विश्वपूज्य, प्रस्तावना
8.
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