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________________ 4. अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [223] 4. उत्पत्ति कषाय - कषाय उत्पन्न होने के हेतुभूत द्रव्य, शब्द, आवर्त) जैसा और लोभ कषाय आमिषावर्त (मांसादि हेतु समडी (शकुनिका रुप, विषय इन्द्रियां, क्षेत्र आदि जिसके निमित्त से कषाय पक्षी) के द्वारा आकाश में चक्कर लगाने जैसा दर्शाया हैं। उत्पन्न होता हो, उसे 'उत्पत्ति कषाय' कहते हैं। आवरण शक्ति की अपेक्षा से कषाय के भेदः5. प्रत्यय कषाय - अविरति, आस्रवाद्रि बन्ध कारण, जो जीव के आत्म कल्याण हेतु मोक्ष मार्ग की आराधना में कषाय के अन्तरङ्ग कारण हैं, उन्हें 'प्रत्यय कषाय' कहते हैं। बाधा पहुंचाने में कषायों की शक्ति के अनुसार क्रोधादि कषाय के 6. आदेश कषाय - अन्तरङ्ग कषाय होने पर भी यह कलुषित चार भेद हैं है, -एसा प्रतीत होना 'आदेश कषाय' कहलाता है। 1. अनन्तानुबंधी - जो अनन्त भवों का अनुबंध कराता है; 7. भाव कषाय - जीव के मोहनीय कर्मोदयजनित कषाय जीव को अनन्त भव तक संसार में भ्रमण कराता है वह परिणाम 'भाव कषाय' कहलाता है अनन्तानुबंधी क्रोधादि कषाय कहलाता है। भाव कषाय के भेद-प्रभेद: अप्रत्याख्यानीय - जिसके उदय से जीव अणुव्रत, सामायिक भाव कषाय चार प्रकार का है 1. क्रोध, 2. मान, 3. माया आदि देशविरति धर्म का प्रत्याख्यान नहीं कर सकता, उसे और 4 लोभ। 'अप्रत्याख्यानीय' कषाय कहते हैं। स्थान की अपेक्षा से कषाय के भेदः 3. प्रत्याख्यानीय - जिसका उदय होने पर जीव सर्व सावद्य क्रोधादि कषाय जिन स्थानों में प्रतिष्ठित होते हैं तदनुसार व्यापार का त्याग करके पञ्च महाव्रतरुप सर्वविरतिधर साधु उनके चार भेद निम्नानुसार है व्रत ग्रहण नहीं कर सकता, उसे 'प्रत्याख्यानीय' कषाय 1. आत्म प्रतिष्ठित - स्वयं के द्वारा किये गए ऐहिक कार्यों कहते हैं। का फल समझ में आने पर स्वयं के द्वारा स्वयं के प्रति संज्वल - जिसके कारण सर्वविरतिधर मुनि भी इन्द्रियार्थ कुद्ध होना। से पीडित होता है, जो यथाख्यात चारित्र का अवरोधक पर प्रतिष्ठित - जब अन्य लोग किसी कारणवश या कारण हैं उसे 'संज्वलन' कषाय कहते हैं। आक्रोशादिपूर्वक हम में क्रोधादि कषायों को उदय में लाते इन अनंतानुबंधी आदि कषायों के साथ योजना होने पर हैं तब वह क्रोधादि कषाय 'पर प्रतिष्ठित' कहलाता है। क्रोधादि चारों भावकषायों के 16, 64 आदि अनेक भेद-प्रभेद होते 3. तदुभय प्रतिष्ठित - जब उस प्रकार का ऐसा कोई अपराध हैं अतः अब इन भावकषायों का परिचय दिया जा रहा हैं। होने पर स्वयं एवं अन्य दोनों के उपर क्रोधादि कषाय होना क्रोधः'तदुभव प्रतिष्ठित' कहलाता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 4. अप्रतिष्ठित - स्वयं या अन्य के किसी भी प्रकार के "जिसके द्वारा अन्य पर क्रोधित हुआ जाता है, कोप, रोष, अक्षान्तिपरिणति, कारण या निमित्त के बिना केवल क्रोध वेदनीय (कषाय आत्मा के विचाररहित परिणाम का प्रगट स्फुरण, स्व पर अप्रीतिलक्षण, वेदनीय) कर्मों के कारण उदय में आया कषाय 'अप्रतिष्ठित' क्रोध मोहनीय के उदय से उत्पन्न जीव की परिणति विशेष, जातिकहलाता है। कुल-रुप-बलादि का उदय, कृत्य-अकृत्यरुप विवेक का समूलनाशक उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा से कषाय के भेदा: प्रज्वलनात्मक स्वरुप को क्रोध कहा है।10 जिन स्थानों के विषय में कषाय उत्पन्न होते हैं, तदाश्रित जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है - अपने और पर के उपघात भेद निम्नानुसार हैं या अनुपकार आदि करने के क्रूर परिणाम; हृदयदाह, अंगकम्प, नेत्ररक्तता 1. क्षेत्र प्रतीत्य - क्षेत्राश्रित कषाय उत्पन्न होना; जैसे-नारकी और इन्द्रियों की अपटुता आदि के निमित्तभूत जीव के परिणाम को जीवों को नरकाश्रित कषायों का उदय होना; इसी प्रकार क्रोध कहा है।। द्रव्य संग्रह में कहा है कि जीव के अन्तरङ्ग परिणाम तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि को वे जिस क्षेत्र/स्थान में हैं, में क्षोभ उत्पन्न करनेवाले तथा बाह्य विषय में अन्य पदार्थों के सम्बन्ध तदाश्रित कषायों का उदय होना। से क्रूरता आवेशरुप क्रोध है।12। 2. वस्तु प्रतीत्य - सचेतन-अचेतन पदार्थ के विषय में क्रोध मानसिक और उत्तेजनात्मक आवेग है। क्रोध में क्षमता कषायोत्पत्ति होना। और तर्कशक्ति प्रायः शिथिल हो जाती है। क्रोध करने से शरीर में 3. शरीर प्रतीत्य - सुरुप, सुन्दराकार या दुःस्थित, बीभत्स । संताप होता है, शरीर कांपने लगता है, उसकी कान्ति बिगड जाती शारीरिक रुपादि के कारण कषायोत्पत्ति होना। है, आँखों के सामने अंधियारा छा जाता है, कान बहेरे हो जाते है, 4. उपधि प्रतीत्य - रजोहरण-मुखवस्त्रिका इत्यादि ओघ मुख से शब्द नहीं निकलता है स्मृति लोप हो जाती है तथा गुस्से उपकरण या वस्त्रादि उपधि स्वरुप औपग्रहिक उपकरण का 5. अ.रा.पृ. 3/395 चोरादि के द्वारा अपहरण होने की स्थिति में या अन्य किसी 6. अ.रा.पृ. 3/396-97 कारणवश कषायोत्पत्ति होना । अ.रा.पृ. 3/397, स्थानांग-4/I आवर्त के दृष्टान्त से कषायों के भेदः 8. अ.रा.पृ. 3/396, स्थानांग-4/4 9. अ.रा.पृ. 3/397 क्रोध कषाय खरावर्त (समुद्रादि के चक्र विशेष के आवर्त) 10. अ.रा.पृ. 3/683 जैसा, मान कषाय अन्नतावर्त (पर्वत शिखरारोहण मार्ग या हवा के 11. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/175 चक्रवात वायु) जैसा, माया कषाय गूढावर्त (केंदुक या लकडी के 12. वही-2/176 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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