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[224]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में आकर मनुष्य मार-पीट भी करता है।
के प्रति तिरस्कार रुप भाव को 'मान' कहते हैं, विज्ञान, ऐश्वर्य, जाति क्रोध जब बढता है तब युयुत्सा को जन्म देता है। युयुत्सा में कुल, तप और विद्या के निमित्त से उत्पन्न उद्धततारुप जीव का परिणाम अमर्ष और अमर्ष से आक्रमण का भाव उत्पन्न होता है। मनोविज्ञान के मान हैं, ऐश्वर्यादि के विस्तार से होनेवाला आत्म-अहंकार 'मान' हैं।" अनुसार क्रोध और भय में यह मुख्य अन्तर है कि क्रोध के आवेश में
भगवती सूत्र में मान के बारह नाम बतलाए हैं। प्रत्येक आक्रमण का और भय के आवेश में आत्मरक्षा का प्रयत्न होता है। में मान के विविध स्तरों की व्याख्या है20जैन विचारणा में सामान्यतया क्रोध के दो रुप मान्य हैं।
1.मान - अपने किसी गुम पर अहंवृत्ति 2. मद - अहंभाव क्रोध के दो भेदा :
में त्मयता 3. दर्प - उत्तेजना पूर्ण अहंभाव 4. स्तम्भ - अविनम्रता 1. द्रव्य क्रोध - प्राकृत भाषा आश्रित चर्मकार क्रोध, नील 5. गर्व - अहंकार 6. अत्युत्कोश - अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना क्रोध आदि शब्द द्रव्य क्रोध हैं।
7. परपरिवाद - परनिन्दा 8. उत्कर्ष - अपना एश्वर्य प्रकट करना 2. भाव क्रोध - क्रोध मोहनीय कर्म विपाक से उदित/जनित 9. अपकर्ष - दूसरों को तुच्छ समजना 10. उन्नतनाम - गुणी के क्रोध के परिणाम 'भाव क्रोध' हैं।
सामने भी न झुकना 11. उन्नत - दूसरों को तुच्छ समझना 12. दुर्नाम द्रव्यक्रोध को आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रोध का - यथोचित रुप से न झुकना। आंगिक पक्ष कहा जा सकता है, जिसके कारण क्रोध में होनेवाले
मद - अभिधान राजेन्द्र कोश में मान, मानसिक उन्माद, शारीरिक परिवर्तन होते हैं। भावक्रोध क्रोध का अनुभूत्यात्मक पक्ष हर्ष, मद के उदय से आत्मोत्कर्षरुप परिणाम, अहंकार, अवलेप, गर्व, है। द्रव्यक्रोध अभिव्यक्त्यात्मक पक्ष है। भगवती सूत्र में क्रोध के मरप्फर (गर्व), दर्प - को मद कहा है। रत्न करंडक श्रावकाचार दस पर्यायार्थक शब्दों का उल्लेख उसके विविध रूपों की व्याख्या के अनुसार ज्ञान आदि आठ प्रकार से अपना बडप्पन मानना - 'मद' देता है। क्रोध सिर्फ उत्तेजित होना मात्र ही नहीं, चित्त की और भी कहलाता हैं।2 कई प्रतिकूल अवस्था को क्रोध कहा जाता है, जैसे :
अभिधान राजेन्द्र कोश एवं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशादि ग्रंथो 1. क्रोध - आवेग की उत्तेजनात्मक स्थिति 2. कोप - में आठों प्रकार के मद का निम्नानुसार वर्णन किया गया हैक्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चंचलता 3. रोष - क्रोध का परिस्फुट 1. ज्ञान मद - मैं ज्ञानवान् हुँ , सकल शास्त्र का ज्ञाता हुँ। रुप 4. दोष - स्वयं पर या दूसरे पर दोष थोपना 5. अक्षमा - अपराध 2. पूजा मद - मैं सर्वमान्य हुं। राजा-महाराजा आदि मेरी सेवा क्षमान न करना 6.संज्जवलन - जलन या ईर्ष्या का भाव 7.कलह -
करते हैं। मेरा वचन सर्वग्राही हैं। मेरी आज्ञा सर्वत्र मान्य अनुचित भाषण करना 8. चाण्डिक्य - उग्ररुप धारण करना 9. भण्डन
की जाती है। - इत्यादि पूजा, प्रतिष्ठा या आज्ञा मद कहलाता - हाथापाई करने पर उतारु हो जाना 10. विवाद - आक्षेपात्मक भाषण करना।
3. कुल मद - मेरा पितृपक्ष अतीव उज्जवल है। उसमें उसमें अभिधान चिन्तामणि कोश में क्रोध के निम्नाङ्कित पर्याय
ऋषिहत्या, ब्रह्महत्यादि दूषण आज तक नहीं लगे हैं इत्यादि । दर्शाये गये है16
4. जाति मद - मेरी माता का पक्ष (खानदान) बहुत ऊँचा 1. क्रोध 2 मन्यु 3. क्रुध् 4. रुष् 5. क्रुत् 6. कोप 7.
हैं। वह संघपति की पुत्री है। शील में सीता, चन्दना समान प्रतिधः 8. रोष 9. रुद् ।
है, इत्यादि। मान - मनुष्य का अहं भी कई दिशाओं में होता है। 5. बल मद - मैं सहस्रभट, लक्षभट, कोटिभट या सहस्रयोध्यादि ऊंचे कुल और ऊंची जाति में जन्म लेना भी मान का कारण बनता
हूं-इत्यादि। है। यदि वह शक्ति-सम्न है, सुख सम्पदा से समृद्ध है, तीव्र बुद्धि 6. ऋद्धि/ऐश्वर्य मद - मैंने क्रोडों/अरबों की सम्पत्ति छोडकर है, रुपवान है, शास्त्रों का गहरा ज्ञान है, प्रभुत्व की अपार शक्ति
दीक्षा ली है; मेरे पास इतना धन था या मैं ऐसा लब्धिवंत है तो वह स्वयं को सबसे ज्यादा श्रेष्ठ मानता है और अहं मनोवृत्ति
हं कि मैं ही गच्छ में सभी को उत्तम उपकरणादि लाकर उसे अहंवादी, मानी, घमण्डी बना देती है।
देता हूँ। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 7. तप मद - मैंने सिंहनिष्क्रिडित, विमानपंक्ति, सर्वतोभद्र आदि कहा है कि, "मानोन्मान, यथार्थज्ञान, प्रमाण, माप, दूरभि-निवेश,
तप किये हैं; मेरा पूरा जन्म तप करते-करते बीता है और युक्त-अयुक्त ग्रहण, गुणानुराग, आदर-सम्मान, मनन, अवगमन, सुव्रतीया
ये सब मुनि तो भोजन में रत रहते हैं, इत्यादि। गुर्वादि की अतिशय भक्ति, स्तम्भ, स्तब्धता, बलादि सामर्थ्य, अभिमान, 13. कषाय पाहुड-जयधवला टीका पृ.333 मैं कुछ हूं ऐसी बुद्धि-आदि अर्थों में 'माण' (मान) शब्द का प्रयोग 14. अ.रा.पृ. 3/683 होता है।
15. भगवती सूत्र-12/1203
16. अभिधान चिन्तामणि-299 अभिधान चिन्तामणि में गर्व, अहंकार, अवलिप्तता, दर्प,
17. अ.रा.पृ. 6/.... अभिमान, ममता, मान, चित्तोन्नति, स्मय को मान के पर्याय बताये 18. अभिधान चिन्तामणि-316-17
19. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-पृ. 2/294-95 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार जाति आदि आठ मदों
20. भगवती सूत्र-12/104 से दूसरे के प्रति नमन करने की वृत्ति न होना 'मान' हैं।
21. अ.रा.पृ. 6/1, 6/103
22. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/259, र.क.श्रा. 25 रोष से या विद्या, तप और जाति आदि के मद से दूसरे
23. अ.रा.पृ. 6/106-7, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/259
हैं।18
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