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________________ 4. प्रा अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [225] 8. रुप मद - मेरे रुप के सामने कामदेव भी फीका है या 2. उपधि - धर्म के निमित्त से चोरी आदि दोषों में प्रवृत्त होना। मैं विश्वसुंदरी हूं-इत्यादि। 3. सातिप्रयोग - धन के विषय में जूठ बोलना; किसी की माया :- माया में मनुष्य का मन बहुत जटिल होते हैं। थापण (धरोहर) का कुछ भाग हरण करना; दूषण लगाना; प्रशंसा विविध भावों के साथ माया अपना रुप दिखाती हैं। करना। अभिधान राजेन्द्र कोश में प्राकृत 'माया' शब्द 1 माता प्रणिधि - हीनाधिक मूल्यवाली सद्दश वस्तुएँ आपस में जननी, 2. मात्रा-परिमित आहार ग्रहण और 3. माया कषाय - इन मिलाना, तोल-माप हीनाधिक रखना, सच्चे और जूठे (असलीतीन अर्थों में प्रयुक्त हैं। नकली) पदार्थ आपस में मिलाना। माया कषाय के विषय में अभिधान राजेन्द्र कोश में माया, 5. प्रतिकुंचन - आलोचना करते समय अपने दोष छिपाना । हिंसा, वंचना, शठता, मन-वचन-काया की शाठ्यता युक्त प्रवर्तन, लोभःस्व-पर व्यामोह उत्पादक वचन, सर्वत्र स्व-वीर्य निगूहन (छीपाना), अभिधान राजेन्द्र कोश में लालच के कारण किसी पदार्थ की परवञ्चन बुद्ध, परवञ्चन अभिप्राय, निकृति, अपाच्छादन, परवञ्चन के तृष्णा होना, लोभ कहा है।29 भगवती सूत्र के अनुसार मोहनीय कर्म के भावपूर्वक शरीर-आकार-नेपथ्य-मन-वचन-काया से पट करना-इत्यादि उदय से चित्त में उत्पन्न होनेवाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती अर्थ-प्रयोग दर्शाये गये हैं।24 है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार धन आदि की तीव्र आकांक्षा या दूसरों को ठगने के लिये कुटिलता या छल आदि करना, गृद्धि बाह्य पदार्थों में 'यह मेरा है'-ऐसी अनुरागरुप बुद्धि समर्थ व्यक्ति अपने हृदय के विचार को छिपाने की चेष्टा, राग से या द्वेष से दुर्ध्यान के द्वारा योग्यस्थान पर धनव्यय का अभाव-लोभ कहलाता है। (बुरे परिणाम) युक्त चित्त को शुद्धि न करते हुए बाहर से बगुले जैसा अभिधान चिन्तामणि में लोभ के निम्नाङ्कित 16 पर्याय बताये रहना-माया, माया शल्य कहलाता है।25 हैं - 1. लोभ 2. तृष्णा 3. लिप्सा 4. वश 5. स्पृहा 6. कांक्षा, माया के प्रकार : 7. आशंसा 8. गर्द्ध 9. वाञ्छा 10. आशा 11. इच्छा 12. इहा 13. अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार माया चार प्रकार की तृह (तृह) 14. मनोरथ 15. कामेच्छा/काम और 16. अभिलाषा ।। भगवती सूत्र में निम्नानुसार लोभ की 16 अवस्थाएँ दर्शाई 1. नाम माया - किसी व्यक्ति का नाम 'माया' रखना है। 2. स्थापना माया- किसी आकृति, चित्र में शठतायुक्त मायावी 1. लोभ - संग्रह करने की वृत्ति 2. इच्छा - अभिलाषा चित्र स्थापित करना। 3. मूर्छा - तीव्र संग्रह वृत्ति 4. आकांक्षा - प्राप्त करने की आशा 3. दव्य माया - यह दो प्रकार की हैं 5. गृद्धि - आसक्ति 6. तृष्णा - प्राप्त पदार्थ के विनाश न होने (1) कर्म द्रव्य माया - माया कषाय योग्य कार्मण वर्गणा की इच्छा 7. मिथ्या - मिथ्या विषयों का ध्यान 8. अबिध्या - के पुद्गल ग्रहण करना। निश्चय से डिग जाना या चंचलता 9. आशंसना - इष्ट की प्राप्ति (2) नोकर्म माया - दूसरों से छिपाकर रखा हुआ निधान की इच्छा करना 10. प्रार्थना- अर्थ आदि की याचना 11. लालपनता प्रयुक्त द्रव्य - चाटुकारिता 12. कामाशा - काम की इच्छा 13. भोगाशा - भोग्य 4. भाव माया - माया कषाय चारित्र मोहनीय कर्म योग्य पदार्थों की इच्छा 14.जीविताशा - जीवन की कामना 15. मरणाशा विपाकलक्षणा माया अर्थात् तत्स्वरुप आत्म-परिणाम 126 - मरने की कामना 16. नन्दिराग - प्राप्त सम्पत्ति में अनुराग 2 भगवती सूत्र में माया के पन्द्रह नाम उल्लिखित हैं। लोभ की मन:स्थिति में मनुष्य के भीतर भाव पर्यायें बदलती रहती हैं। भगवती सूत्र में लोभ के पन्द्रह नामों को बतलाकर उनकी 1. माया - कपटाचार 2. उपधि - ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति विविध परिणतियों पर प्रकाश डाला गया हैं। के पास जाना 3. निकृति - ठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान लोभ के भेद- तत्त्वार्थ राजवार्तिक के अनुसार लोभ चार देना 4. वयण - वक्रता पूर्ण वचन 5. गहन - ठगने के विचार से प्रकार का है - जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रिय लोभ, उपभोग लोभ । अत्यन्त गूढ भाषण करना 6. नूम - ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना -ये चारों के भी प्रत्येक स्व पर भेद से दो दो प्रकार होते हैं।33 7. कल्क - दूसरों को हिंसा के लिए उभारना 8. कुस्म - निन्दित कषाय का स्वरुप - कषाय के स्वरुप की स्पष्टता व्यवहार करना 9. जिह्नता - ठगाई के लिए कार्य मन्द गति से को समझाते हुए जैनाचार्यों ने प्रतीकों के माध्यम से बताया कि करना 10.किल्विषिक - बांडो के समान कुचेष्टा करना 11.आदरणता - अनिच्छित कार्य भी अपनाना 12. गूहनता - अपनी करतूत को 24. अ.रा.पृ. 6/251 छिपाने का प्रयत्न करना 13. वंचकता - ठगी 14. प्रतिकुंचनता - 25. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/296 किसी के सरल रुप से कहे गये वचनों का खण्डन करना 15. सातियोग 26. अ.रा.प्र. 6/251 27. भगवती सूत्र-12/105 - उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना। यह सब माया 28. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/296 की ही विभिन्न अवस्थाएं हैं।27 29. अ.रा.पृ. 6/752 भगवती आराधना मे माया के पाँच प्रकार दर्शाये गये हैं28- 30. भगवती सूत्र 12/106 1. निकृति - धन या अन्य स्वाभिप्रेत कार्य हेतु अन्य को फंसानेरुप 31. अभिधान चिन्तामणि चातुर्य दिखाना। 32. भगवती सूत्र 12/106 33. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/492 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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