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________________ [222]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार मुख्य कषायें हैं। इनमें से प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार प्रभेद हैं। कषायों का और गुणस्थानों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। या यह कहें कि कषायों की तरतम अवस्थितिसूचक अवस्था को गुणस्थान कहते हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। इसे निम्नांकित अनुच्छेदों द्वारा समझा जा सकता हैं कषाय और गुणस्थान: कषाय की परिभाषा:प्रथम से तृतीय गुणस्थान तक चारों कषायें रहती हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में जैनागमों के अनुसार 'कषाय' अविरतसम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी कषाय का उपमश हो जाता है। शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि, "जो कर्मरुपी विरताविरत अर्थात् देशविरत नामक चतुर्थ गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण क्षेत्र को जोतता है; सुख-दुःख फल देनेयोग्य करता है; अथवा जीव (सकल-संयम का घातक) कषाय का उदय होने से जो जीव पापजनक को कलुषित करता है; अथवा शुद्ध स्वभावयुक्त आत्मा को कलुषित क्रियाओं से सर्वथा निवृत्त तो नहीं हो सकते; किन्तु अप्रत्याख्यानावरण करता है या जीव को कर्म से मलिन करता है; अथवा जिस कर्म (एकादेश-संयम का घातक) कषाय का उदय न होने से (उपशम के द्वारा प्राणियों को बांधा जाये; या जिससे कष अर्थात् संसार (संसार होने से) देश (अंश) से पापजनक क्रियाओं से निवृत्त होते हैं। पाँचवे, भ्रमण) का प्राणी को आय अर्थात् लाभ होता हो, उसे 'कषाय' कहते छठे, सातवें एवं आठवें गुणस्थान में भी कषायों की तरतम स्थिति हैं।" या 'कष' अर्थात् कर्म या संसार के उपादान का जो हेतु हो बनी रहती है। नवें गुणस्थान में संज्वलन चतुष्क की सत्ता बनी उसे या जिससे जीव पुनः-पुनः संसार भ्रमण करता हुआ कलुषित रहती है। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार इस गुणस्थान प्राप्त जीव होता है; अथवा जो मजीठ के रंग की तरह आत्मा के साथ चिर के यहाँ पर अनंतानुबंधी आदि तीन कषायचतुष्क तो उपशान्त या समय तक क्लिष्ट (चिपका हुआ) रहे उसे अथवा जिसके द्वारा कलुषित क्षय हो जाते है, किन्तु संज्वलन कषाय चतुष्क की पूरी निवृत्ति आत्मा में कर्म संबंध की चिरस्थिति उत्पन्न होती है उसे कषाय कहते नहीं होती। हैं। अथवा मोहनीय कर्म पुद्गल के उदय से संपादित जीव के क्रोधादि ___ 'सूक्ष्म संपराय' (दशवें गुण्सथान) में संपराय' अर्थात् लोभ परिणाम विशेष को कषाय कहते हैं। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णीने आगे की सत्ता बनी रहती है। यहाँ संज्वलन लोभ कषाय के सूक्ष्म खंडों कहा है कि, "क्रोधादि परिणाम आत्मा को कुगति में ले जाने के का उदय रहता है। जबकि उपशांत मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय और राग (माया-लोभ) के उपशान्त (उदय नहीं) हो जाते कारण कसते हैं; आत्मा के स्वरुप की हिंसा करते हैं अथवा चारित्र हैं। दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का उपशमन होते ही परिणाम को कसने के कारण या घात करने के कारण उसे 'कषाय' जीव इस गुणस्थान को प्राप्त करता है। जिस तरह गंदे पानी में कतकफल । कहते हैं। या फिटकडी आदि डालने से उसका मल नीचे बैठ जाता है और सामान्यतया 'कषाय' शब्द से तो कषाय एक है और स्वभाव स्वच्छ पानी ऊपर आ जाता है वैसे ही इस गुणस्थान में शुक्लध्यान भेद की अपेक्षा कषाय निम्नानुसार अनेक प्रकार का हैसे मोहनीय कर्म को अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता __ 1. नाम कषाय - किसी व्यक्ति या पदार्थ का नाम 'कषाय' है। और जीव के परिणामों में सहसा वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता होना/रखना। आ जाती है। बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में कषायें नष्ट हो जाती 2. स्थापना कषाय - भौंह चढाने के कारण जिसके ललाट हैं। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त आत्मा शुक्ललेश्या एवं शुक्लध्यान में तीन बली पड गई है, चित्र में या काष्ठादि में आलेखित युक्त होती है। पुरुष आदि का ऐसा स्वरुप 'स्थाना कषाय' कहलाता है। जैनागमों के अनुसार जैन मुनि कषायत्यागी होते हैं। विशेषकर 3. द्रव्य कषाय - यह दो प्रकार का हैआचार्य भगवंत के 36 गुणों में भी 'चारो कषायों से मुक्त' यह उनका (अ) कर्मद्रव्य कषाय - योग, प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग विशेष गुण हैं। इत्यादि स्वरुपयुक्त क्रोधादि कषाय के पुद्गल परमाणु अनादि संसारी मिथ्यादृष्टि जीव के सभी कषायें विद्यमान 'कर्मद्रव्य कषाय' कहलाते हैं। रहती हैं।श्रावक के अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम होता है। किन्तु (ब) नोकर्मद्रव्य कषाय - सर्ज (शाल) वृक्ष का रस कसैला जैसे ही वह अनन्तानुबंधी कषायप्रभेद से आविष्ट होता है, सम्यक्त्व होने के कारण उसे 'नोकर्मद्रव्य कषाय' कहते हैं। जैनेन्द्र से पतित हो जाता है। अर्थात् अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, सिद्धान्त कोश में इसे 'सर्जकषाय' कहा है। अनन्तानुबंधी माया अथवा अनन्तानुबंधी लोभ- इस कषायचतुष्क में से किसी भी एक कषाय का उदय होने पर जीव सम्यक्त्व से पतित हो कर सासादन गुणस्थान की स्थिति में पहुंच जाता है। गुणस्थानों 1. अ.रा.पृ. 3/394-95; प्रज्ञापना-13 पद; उत्तराध्ययन, अध्ययन-4, स्थानांग का समग्र चित्र कषायों और उनकी लेश्या संज्ञक तर-तम अवस्थाओं ठाणा-1; जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/15 पर आधारित है। अत: यहां पर संक्षेप में कषायों और लेश्याओं को जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/15 समझना आवश्यक है। 3. अ.रा.पृ. 3/395; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ.-2/15, 16 4. वही पृ. 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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