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________________ [108]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन संतिधर - शान्तिगृह (नपुं.) 7/145 जहाँ राजाओं के शान्तिकार्य, होमादि किये जाते हैं, उसे 'शान्तिगृह' कहते हैं। सत्तंग - सप्ताङ्ग (नपुं.) 7/313 राज्य के (1) राजमंत्री (2) मंत्री निवास (3) अर्थलाभ (4) कोश (निधि) (5) राष्ट्र (6) दुर्ग (7) सैन्य लक्षण रुप - ये सात अंग हैं। अट्ठिजुद्ध - अस्थियुद्ध (न.) 1/255 'जिस युद्ध में प्रतिपक्षी के उपर हड्डियों से प्रहार किया जाता है, उसे 'अस्थियुद्ध' कहते हैं। आइ - आजि (स्त्री.) 2/2 राजनीति में 'संग्राम' और 'युद्धभूमि' के अर्थ में 'आजि' शब्द प्रयुक्त हैं। साथ ही अन्य जगह इसका क्षण, मार्ग और मर्यादा अर्थ भी होता है। आउह - आयुध (न.) 2/52 'शस्त्रो' को आयुध कहते हैं। इनके तीन प्रकार हैं - (1) प्रहरण - हाथ में पकडकर प्रहार किया जाय, जैसे तलवार आदि (2) हस्तमुक्त - हाथ से फेंककर प्रहार किया जाय - चक्रादि (3) यन्त्रमुक्त - बाण आदि। ये सब युद्ध के साधन होने से उन्हें 'आयुध' कहते हैं। आरक्ख - आरक्ष (पुं.) 2/402 सैन्य रक्षक को 'आरक्ष' कहते हैं। कयकरण - कृतकरण (त्रि.) 3/347 प्रकरणानुसार धनुर्विद्या के अभ्यास के विषय में और सहस्र योधा के साथ युद्ध करनेवाले योधा के लिए 'कयकरण' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। अन्यत्र विविध तपस्या के द्वारा परिकर्मित शरीर और अनेक प्रकार के अनुष्ठान के लिए भी 'कयकरण' शब्द का प्रयोग देखने में आता हैं। कवय - कवच (पु.) 3/386 योद्धा के द्वारा युद्ध के समय शस्त्रादि की धार से रक्षा हेतु धारण किये जानेवाले लोहमय आवरण (वस्त्र) को 'कवच' कहते हैं। चउरंगिणी - चतुरङ्गिणी (स्त्री.) 3/1055 हस्ति, अश्व, रथ और पैदल - इन चार प्रकार की सामूहिक सेना को 'चउरंगिणी' कहते हैं। चमू - चमू (स्त्री.) 3/1118 सेना के लिए 'चमू' शब्द का प्रयोग किया गया हैं। यह शब्द प्रमाणविशेष युक्त सैन्यबल के अर्थ में भी परिभाषित हैं। जुज्झ - युद्ध (नपुं.) (घा.) 4/1576 शत्रुओं के प्राणनाश के अध्यसाय पूर्वक शस्त्र फेंकने का व्यापार, संग्राम, आयुध फेंकना, तथा मुष्ठी आदि से परस्पर ताडन, बाहुयुद्ध, आदि को 'युद्ध' कहते हैं। यहाँ द्रव्य से संग्राम, भाव से परिषह सहन को 'युद्ध' कहा हैं। द्रव्य युद्ध अनार्य और भाव युद्ध आर्य माना गया है। जुझंग - युद्धाङ्ग (नपुं.) 4/1576 रथ, हस्ति, अश्वादि वाहन, कवच, खड्ग आदि शस्त्र, तथा युद्ध में कौशल्य, प्रावीण्य, नीतिज्ञता, दाक्षिण्य, व्यापार, स्वस्थ पंचेन्द्रियपूर्ण शरीर-आदि को युद्धांग कहते हैं। जुज्झणीइ - युद्धनीति (स्त्री.) 4/1576 युद्ध में व्यूह रचना, संग्राम में प्रवेश और निर्गमन आदि को 'युद्धनीति' कहते हैं। जुज्झाइजुज्झ - युद्धतियुद्ध (नपुं.) 4/1576 जिसमें शत्रु का अवश्य घात हो, उसी प्रकार से शस्त्रों का क्षेपण होता है, ऐसे महायुद्ध को 'युद्धातियुद्ध' कहते हैं। जोह - योध (पुं.) 4/1658 शत्रुओं को नष्ट करने वाले सैनिकों को योध (योद्धा) कहते हैं। धणुबल - धनुर्बल (नपुं.) 4/2658 धनुर्धारी सेना को 'धणुबल' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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