SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [199] जैनेतर दर्शनों में आध्यात्मिक विकास की अवधारणाएँ पूर्व में यह संकेत किया गया है कि सभी आस्तिकवादी दर्शनों को आध्यात्मिक विकास इष्ट एवं अभिप्रेत है। वैदिक दर्शन भी प्राय: आस्तिकवादी है। अत: जैन दर्शन की तरह वैदिक परम्परा में भी आत्म विकास के संबंध में विचार किया गया है। विशेषतया योगवासिष्ठ, पातंजल योग आदि ग्रंथों में आत्मा की भूमिकाओं के बारे में कुछ अधिक वर्णन किया गया है। वर्णन शैली की भिन्नता होने पर भी वस्तुत्व के विषय में प्रयोजनभूत दृष्टि की अपेक्षा से भेद नहीं के बराबर है। 1.बीजजागृत :- जागरण के आदि में मायावश चैतन्य से प्राणधारण आदि क्रिया रुप उपाधि से भविष्य में होने वाले चित्त, जीव आदि नाम शब्दों और उनके अर्थो का भाजनरुप तथा जागृत का बीजभूत जो प्रथम चेतन है; उसे बीजजागृत कहते हैं।24। अर्थात् इस भूमिका गुणस्थान और वैदिक भूमिकाएँ : जैन ग्रंथो में मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीव को जो लक्षण बतलाया है कि अनात्मा अर्थात् आत्मभिन्न जडतत्त्व में जो आत्मबुद्धि करता है; वह मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा है।09; वही लक्षण योगवासिष्ठ-10 तथा पातंजल योगसूत्र।। में भी अज्ञानी जीव का है। जैसे जैन ग्रंथों में मिथ्यात्वमोह का संसारवृद्धि और दुःख रुप फल वर्णित है।12 वैसे ही वही बात योगवासिष्ठ13 में अविद्या से तृष्णा और तष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का नाश। यह क्रम जैसा वर्णित है, वैसा ही क्रम जैन शास्त्रों में मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान के निरुपण द्वारा यथा प्रसंग वणित किया गया है। योगवासिष्ठ में जो अविद्या का विद्या से और विद्या का विचार से नाश बताया है।15; वह जैन शास्त्रों में माने हुये मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिकज्ञान से - क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है। जैन शास्त्रों में मुख्यतया मोह को ही बंध का (संसार का) कारण माना है, वैसे ही योगवासिष्ठ16 में भी रुपान्तर से वही बात कही गयी है। जैन शास्त्रों में जैसे ग्रंथिभेद का वर्णन है; वैसे ही योगवासिष्ठ-17 में भी है। योगवासिष्ठ में स्वरुपस्थिति को ज्ञानी का और स्वरुपभ्रंश को अज्ञानी का लक्षण माना गया है।18; तो जैन शास्त्रों में भी सम्यग्दृष्टि का-सम्यगज्ञान का और मिथ्यादृष्टि का क्रमशः वही स्वरुप बताया गया है। योगवासिष्ठ में सम्यग्ज्ञान का जो लक्षण है।19, वह जैन शास्त्रों के अनुकूल है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति स्वभाव और बाह्य निमित्त इन दो प्रकारों से बतलायी है। योगवासिष्ठ में भी ज्ञानप्राप्ति'20 का वैसा ही क्रम सूचित किया गया है। इसी प्रकार के जैन दर्शन के अन्य विचारों के अनुरुप और दूसरे विचार भी योगवासिष्ठ में देखने को मिलते हैं; जो तुलनात्मक दृष्टि से मननीय है। जैनदर्शन में आत्मविकास के क्रम को बतलाने के लिए जैसे चौदह गुणस्थान माने गये हैं; वैसे ही योगावासिष्ट में भी चौदह भूमिकाओं का बडा रुचिकर वर्णन है। उनमें सात अज्ञान की और सात ज्ञान की भूमिकाएँ है।21 | जौ जैन परिभाषा के अनुसार क्रमशः मिथ्यात्व की और सम्यक्त्व की सूचक हैं। अज्ञान की सात और ज्ञान की सात भूमिकाओं के नाम इस प्रकार हैं अज्ञान की सात भूमिकाएँ-बीजजागृत, जागृत, महाजागृत, जागृतस्वप्न, स्वप्न, स्वप्नजागृत और सुषुप्तका । ज्ञानकी सात भूमिकाएँ-शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, परार्थाभाविनी और तुर्यगा।2। कुल मिलाकर ये चौदह भूमिकाएँ हैं; जिनका स्वरुप क्रमशः इस प्रकार है 109. आत्मधिया समुपातकायादिः कीर्त्यतेऽत्रि बहिरात्मा । - योगशास्त्र प्रकाश 12 110. यस्याज्ञानात्मनो ज्ञस्य, देह एवात्मभावना। उदितेति रुपैवाक्षरिपवो एवात्मभावना ॥ - योगवासिष्ठ, निर्वाण प्रकरण, पूर्वार्ध, सर्ग 6 TIL. क. अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या । -पातंजल योगदर्शन, साधनपाद, सूत्र 5 ख. अविद्या मोहः, अनात्मन्यात्मरभिमान इति। __-पातंजल योगदर्शन, भोजदेववृत्ति, पृष्ठ 141 112. विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहासवो ह्ययम्। भवोच्च तालमुत्तालप्रपंचमधितिष्ठति ॥ -ज्ञानसार, मोहाष्टक 5 113. अज्ञानात्प्रसृता यस्मात् जगत्पर्णपरंपरा ।। 114, जन्मपर्णादिना रन्ध्रा, विनाशच्छिद्रचक्षुका । भोगा भोगरसा पूर्णा, विचारैक घुणक्षता ॥ - योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग 8/11 115. योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग 9/23, 24 116. अविद्या संसृतिर्बन्धो, माया मोहो महत्तमः । कल्पितानीति नामानि, यस्या सकलवेदिभिः ।। - -योगवाशिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग 1/20 117. ज्ञाप्तिर्हि ग्रंथिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता। मृगतृष्णाम्बुबुद्धयादि, शान्तिमात्रात्मकस्त्वसौ ॥ -वही, सर्ग 118/23 118. स्वरुपावस्थितिर्मुक्तिस्तद्भशोऽहंत्ववेदनम् । एतत् संक्षेपतः प्रोक्तं, तज्ज्ञत्वात्मत्वलक्षणम् ॥ -वही, सर्ग 117/5 119. अनाद्यनन्तावभासात्मा, परमात्मेह विद्यते । इत्येको निश्चयः स्फारः, सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधाः।। -वही, सर्ग 79/2 120. एकस्तावद् गुरुप्रोक्तादनुष्ठानाच्छनैः शनैः। जन्मना जन्माभिर्वापि सिद्धिदः समुदाह्यतः ॥ द्वितीयस्त्वात्मनैवाशु, किंचिद् व्युत्पत्रचेतसा । भवति ज्ञानसम्प्राप्तिराकाशफलपातवत् ॥ -योगवाशिष्ठ, उपशम प्रकरण, सर्ग 7/3,4 121. अज्ञान भूः सप्तपदा, ज्ञभुः सप्तपदैव हि। पदान्तराण्यसंख्यानि भवन्त्यन्यान्यथैतयोः ॥ -योगवाशिष्ठ उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग, 117/2 ____122. बीजजागृत्तथा जागृन्महाजागृत् तथैव च । जागृतस्वप्नस्तथा स्वप्नः, स्वप्नजागृत्सुषुप्तकम् ।। 123 इति सप्तविधो मोहः पुनरेव परस्परम् ॥ -योगवाशिष्ठ उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग, 117/11, 12 124. भविष्यच्चित्त जीवादि, नामशब्दार्थभाजनम् ।। बीजरुपं स्थितं जागृद, बीजजागृत उच्यते ॥ -वही, सर्ग 117/14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy