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________________ [198]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में जोडे उसे प्रशस्त योग और इससे विपरीत जो मिथ्यात्वादि योग क्षय करके उर्ध्व (उच्च) गति मोक्ष को प्राप्त होते हैं उसे अयोग है जिससे कि आत्मा को आठों प्रकार के कर्म बंधते हैं उसे अप्रशस्त कहते हैं। द्रव्य योग रहित या शैलेशी अवस्था प्राप्त उस जीव विशेष भाव योग कहते हैं। को अयोगी कहते हैं।051 इन द्रव्ययोगवाले जीव को योगी कहते हैं अथवा रत्नयत्रय अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जब.सयोगी केवली मन, हेतु प्रयत्नशील साधक को योगी कहते हैं और मन-वचन-काया के वचन और काया के योगों का निरोध कर योग रहित होकर शुद्ध व्यापार के रोधक आत्मा को भी योगी कहते हैं। आत्मस्वरुप को प्राप्त कर लेते हैं, तब उन्हें अयोगी केवली और उनके जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-इन चारों स्वरुप विशेष को अयोगीकेवली गुणस्थान कहते हैं106। घोतीकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान आदि को प्राप्त कर चुके है; यह गुणस्थान चारित्र-विकास और स्वरुप-स्थिरता की चरम जिससे वे बिना इन्द्रिय सहायता के समस्त चराचर तत्त्वों को अवस्था है। इस गुणस्थान में (अ, इ, उ, ऋ, ल) इन पाँच हस्व हस्तामलकवत् देखने, जानने लगते हैं और जो योग से सहित है स्वरों के उच्चारण में जितना समय लगता है; उतने समय में आत्मा एवं जिनमें आत्मवीर्य, शक्ति, उत्साह, पराक्रम प्रकट हुआ है तथा उत्कृष्ट शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु पर्वत सदृश स्थिति को प्राप्त कर के जिनमें शरीर आदि की प्रकृति शेष है; वे सयोगी केवली है100 | अन्त में देहत्याग करके सिद्धावस्था को प्राप्त करती है। उस अवस्था उन्हें केवलज्ञानी केवली, जिन, जिनेन्द्र या जिनेश्वर भी कहा जाता को परमात्मपद, स्वरुप, सिद्ध, मुक्ति, निर्वाण, ब्रह्मस्थिति, अपुनरावृत्ति, है। सयोगी केवली में यदि कोई तीर्थंकर हो तो वे तीर्थ की स्थापना अपुनर्भवस्थान और मोक्ष आदि नामों द्वारा भी जाना जाता है। करते हैं और देशना देकर तीर्थ प्रवर्तन करते हैं। केवली भगवान इस गुणस्थान में मोक्ष प्राप्त करने की प्रक्रिया प्रारंभ होती सयोगी अवस्था में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन (कुछ है। यह मोक्ष का प्रवेशद्वार है और तीनों योगों का निरोध करने से कम) क्रोड पूर्व वर्ष तक रहते हैं।01 । आयोगी अवस्था प्राप्त होती है।071 मन, वचन और काया इन तीनों साधनों (कारणों) की अपेक्षा आयुःक्षय का समय निकट आने पर सयोगी केवली भगवान से केवली भगवान को मनोयोग, वचनयोग और काययोग - ये तीन बादर काययोग से बादर मनोयोग एवं बादर वचनयोग का निरोध करते योग होते हैं। कोई मनः पर्यवज्ञानी साधु या अनुत्तर विमानवासी देव हैं। अन्त में सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म क्राययोग का निरोध करते करते सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति ध्यान से अपने शरीर के मुख, उदर आदि पोले, अपने स्थान पर रहकर शब्द द्वारा न पूछकर भगवान को मन द्वारा भाग को पूर्ण करते हुए शरीर के 2/3 भाग प्रमाण आत्मप्रदेशों को प्रश्न आदि पूछते हैं, तब उनके प्रश्न का उत्तर केवली भगवान मनोयोग संकुचित (धनस्वरुप) करते हैं। बाद में वे अयोगी केवली भगवान् द्वारा देते हैं जिसे प्रश्नकर्ता मनःपर्यवज्ञान या अवधिज्ञान द्वारा समझ समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं। और अ, इ, लेते हैं। धर्मोपदेश देने के लिये वचनयोग का तथा हलन-चलन उ, ऋ, ल - इन पाँच हस्वाक्षर बोलने जितने समय मात्र का शैलेशीकरण आदि क्रिया में काययोग का उपयोग केवलज्ञानी करते हैं।02 । गोम्मटसार करके चारों अघाती क्रमो का क्षय कर एक समय मात्र में ऋजुगति में भी केवली भगवान को मनोयोग पूर्वक वचनयोग का स्वीकार से ऊर्ध्वगमन कर लोक के अग्र भाग में स्थित मोक्षधाम (सिद्धक्षेत्र) किया है1031 को प्राप्त कर लेते हैं1081 केवली भगवान सयोगी अवस्था में अपनी आयु के अनुसार रहते हैं। जिन केवली भगवान के शेष रहे चारों अघाती कर्मो में 99. ।योगोऽस्य विद्यते इति योगी।....मनोवाक्कायरोधके...सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र योगः सद्योग उच्यते ।...त्नयत्ररुपमोक्षोपायिनी। -अ.रा.पृ. 4/1587 से आयु कर्म की स्थिति व पुद्गल परमाणुओं की अपेक्षा वेदनीय, 100. अ.रा.पृ. 7131,गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 63, 64 व टीका; नाम और गोत्र इन कर्मों की स्थिति और पुद्गगल परमाणु अधिक द्रव्यलोकप्रकाश 3/1245 से 1248 होते हैं; वे समुद्घात करते हैं। इसे केवली-समुद्घात कहते हैं। समुद्घात 101. अ.रा.पृ. 1/597, 3/931 के द्वारा वे आयुकर्म की स्थिति एवं पुद्गल परमाणुओं के बराबर वेदनीय, 103. अ.रा.पृ. 7/277, 3/647; द्रव्यलोकप्रकाश 3/1249 से 51 104. अ.रा.पृ. 1/207; 3/661: 3/731 नाम और गोत्र कर्म की स्थिति व पुद्गगल परमाणुओं को कर लेते - 105. क. द्रव्यलोकप्रकाश 3/1261 हैं। जिन केवलज्ञानियों के वेदनीयादि तीनों अघाती कर्मो की स्थिति ख. शैलेशीकरणे, सकलयोगचापल्यरहिते योगे और पुद्गल परमाणु आयु कर्म के बराबर है; उन्हें समुद्घात करने च।....तत्रायोगद्योगमुख्याद्, भवोपग्राहिकर्मणाम् । क्षयं कृत्वा की आवश्यकता नहीं होने से वे नहीं करते। । प्रयात्युच्यैः परमानन्द मंदिरम् ।.।।। -द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 25; अ.रा.पृ. 1/207 14. अयोगकेवली गुणस्थानः ग. .....न सन्ति योगा यस्य।...शैलेश्यवस्थायम् । अ.रा.पृ. 1/207; भा.3 सयोगी केवली भगवान अपने आयुष्य के अंतिम समय पृ. 647 106. क. गोम्मटसार जीवकांड 65 में अयोगी केवली गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। 'अयोगी' शब्द की ख. न योगी अयोगी, अयोगी चासौ केवली च अयोगी केवली। तस्य व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र गुणस्थानमयोगीकेवली गुणस्थानम् । सूरीश्वरजीने लिखा है - शैलेशीकरण की अवस्था में आत्मा की - अ.रा.पृ. 1/208 सकल योगों की चपलता से रहित स्थिति को अयोग कहते हैं। द्वात्रिंशद् । 107. ....स ततो देहत्रयमोक्षार्थमनिवृत्तसर्ववस्तुगतम्....। अ.रा.पृ. 1/208 108. अ.रा.पृ. 1/208; 3/732, जिनागमसार, पृ.199; विशेषावश्यक भाष्यद्वात्रिशिका के अनुसार सयोगी आत्मा योगों से भवोपग्राही कर्मों का 3059-64, 68, 69, 82, 89; द्रव्यलोकप्रकाश -3/126 से 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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