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________________ [200]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में जागृति की योग्यता बीजरुप में रहती है। इसे वनस्पति आदि 13. पदार्थाभाविनी :- पूर्वोक्त पाँच भूमिकाओं के अभ्यास से शुद्ध निकाय के जीवों में मान सकते हैं। बाह्य, अभ्यन्तर सभी पर पदार्थो पर से इच्छाओं के नष्ट हो जाने 2. जागृत :- बीजजागृति के बाद 'मैं और मेरा' (अहं और मम) पर आत्मस्वरुप में जो दृढ स्थिति होती है; उसे पदार्थाभाविनी एसी जो प्रतीति होती है; उसे जागृत कहते हैं।25। अर्थात् इसमें अवस्था कहते हैं।361 अहंत्व एवं ममत्व बुद्धि अल्पांश में जागृत होने से इसे जागृत 14. तुर्यगा :- पूर्वोक्त छह भूमिकाओं के चिरकालीन अभ्यास से भूमिका कहा गया है। कीडे-मकोडे, पशु-पक्षी आदि में यह भूमिका भेदभाव का नितान्त भान भूल जाने से एक मात्र स्वभाव में स्थिर मान सकते हैं। हो जाना तुर्यगा अवस्था है। यह जीवनमुक्त जैसी अवस्था होती है। 3. महाजागृत :- एहिक या जन्मान्तरीय दृढाभ्यास से दृढता को इसके बाद विदेहमुक्ति तुर्यातीत स्थिति हैं137 । प्राप्त जागृत प्रत्यय महाजागृत है126 | अर्थात् इसमें ममत्व बुद्धि विशेष अज्ञान की भूमिकाओं में उत्तरोत्तर अज्ञान का प्राबल्य होने रुप से पुष्ट होने के कारण इसे महाजागृत कहते हैं। यह भूमिका से उन्हें अविकास काल और ज्ञान की भूमिकाओं में क्रमशः ज्ञानविकास देव और मानवसमूह में संभव मानी जा सकती है। में वृद्धि होने से उन्हें विकास क्रम की श्रेणियाँ कह सकते हैं। ज्ञान 4. जागृतस्वप्न :- जागते हुए भी भ्रम में पडे रहना जागृतस्वप्न की सातवीं भूमिका तुर्यगा में विकास पूर्णता को प्राप्त करता है और है।27। उसके बाद की स्थिति मोक्ष है। विकास की पूर्णता को प्राप्त स्थिति 5. स्वप्न :- निद्रा अवस्था में आये हुए स्वप्न का जागने के पश्चात् को जैन दृष्टि से अरिहंत और उसके बाद की तुर्यातीत स्थिति को भी भान होना, अनुभव करना स्वप्नावस्था है।28 | सिद्धदशा कह सकते हैं। 6. स्वप्नजागृत :- जागने पर भी चिरकाल तक स्वप्न के स्थायित्व गुणस्थान और चित्त की अवस्थाएँ :की कल्पना में डूबे रहना, उसे सत्य मानना स्वप्नजागृत हैं।9। वर्षों आध्यात्मिक भूमिकाओं का मध्यम मार्ग की दृष्टि से जैन तक प्रारंभ रहे स्वप्न का इसमें समावेश होता हैं। शरीरपात हो जाने दर्शन में जैसे चौदह गुणस्थानों के रुप में वर्गीकरण है और संक्षेपदृष्टि पर भी यह चलता रहता है। से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन अवस्थाओं में वर्गीकरण 7.सुषुप्तक :- जिसमें प्रगाढ अज्ञान के कारण जीव की जड जैसी किया गया है, वैसे ही योगदर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाओं का स्थिति हो जाती है; उसे सुषुप्तक कहते हैं।30 | वर्णन देखने में आता है। तुलनात्मक दृष्टि से उपयोगी होने से उनका अज्ञान की उक्त सात अवस्थाओं में से सुषुप्ति के सिवाय यहाँ उल्लेख करते हैं। छह अवस्थाएँ कर्म फल की भोगभूमिरुप होने से कर्मज हैं। सुषुप्ति चित्त की पाँच अवस्थाओं के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं तो उद्भूत कर्मो का योग से क्षय होने पर, दूसरे कर्मो का अनुदय _ - मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्धा38 | होने पर और मध्यकाल में भोग्य सकल स्थूलसूक्ष्म प्रपंच के विलीन 1. मूढ :- इस भूमिका में तमोगुण की प्रधानता होती है; जिससे हो जाने पर प्रपंच के बीज अज्ञान मात्र के शेष रहने से अज्ञानोपहित कर्तव्य और अकर्तव्य का भान भूला कर क्रोधादि के द्वारा यह भूमिका चैतन्य शेषरुप ही हैं; जो जीव की जडावस्था है। इस प्रकार की बुरे कार्यों से जोडती है। इस अवस्था में न तो सत्य को जानने 'जडावस्था का ही अपर नाम सुषुप्ति है। की जिज्ञासा होती है और न ही धर्म के प्रति रुचि होती है। यदि अज्ञान की सात भूमिकाओं का कथन करने के बाद अब 125. योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग 117/15, 16 ज्ञान की सात भूमिकाओं का स्वरुप बतलाते हैं 126. अयं सो मदं तन्मम, इति जन्मान्तरोदितः। 8.शुभेच्छा :- आत्मावलोकन की वैराग्य युक्त इच्छा को शुभेच्छा पीवारः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजागृतदिति स्फुरन् । कहते हैं। -वही, सर्ग 117/16, 17 9.विचारणा :- शास्त्रभ्यास, गुरुजनों के संसर्ग तथा वैराग्य और 127. यज्जागृतो मनोराज्यं, जागृत स्वप्न स उच्यते । -वही, सर्ग 117/12 128. वही अभ्यास पूर्वक प्रवृत्ति विचारणा कहलाती है।32 | 129. वही 21, 22 10. तनुमानसा :- शुभेच्छा और विचारणा के कारण इन्द्रियविषयों 130. (..............) जडा जीवस्य या स्थितिः। में अवसक्तता रुप जो तनुता (सविकल्प समाधिरुप सूक्ष्मता) होती 131. वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः । है; वह तनुमानसा नामक भूमिका है।33 । - योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग 118/8 11.सत्त्वापति :-शुभेच्छा, विचारणा और तनुमानसा इन तीनों भूमिकाओं 132. वही 9 133. विचारणाशुभेच्छभ्यामिन्द्रियोर्थेऽवसक्तता । याऽत्र सा तनुता भावात् प्रोच्यते के अभ्यास से बाह्य विषयों में संस्कार न रहने के कारण चित्त में तनुमानसा ।। - वही 10 अत्यन्त विरक्ति होने से माया, माया के कार्य और तीनों अवस्थाओं 134. वही, सर्ग 118/11 से शोधित सब के आधार, सत्पात्र रुप आत्मा में स्थित याने निर्विकल्प 135. दशा चतुष्टयाभ्यां सादसंसंग फलेन च। समाधिरुप जो स्थिति है, वह सत्वापत्ति है।34 सूलसत्वचमत्कारात् प्रोक्ताऽसंसक्ति नामिका ॥ -वही, सर्ग 118/12 12. असंसक्ति:- पूर्वोक्त चार ज्ञान-भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य 136. वही 13, 14 और आभ्यन्तर विषयाकारों से और उनके संस्कारों से असंबंधरुप समाधि 137. वही 15, 16 भविष्यद् दुःखबोधाढ्या सौषुप्ती सोच्यते गतिः॥ -वही, सर्ग 117/22, परिणाम से चित्त में वृद्धि को प्राप्त हुआ निरतिशय आनन्द नित्य 23. अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ब्रह्म भाव साक्षात्काररुप चमत्कार उत्पन्न होना अर्थात् 138. क. क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तमभूमयः । -योगदर्शन अनासक्ति की प्रबलता से मन में निरतिशय आनन्द का प्रादुर्भाव व्यासभाष्य होना असंसक्ति है।35 | ख. योगदर्शन, भोजदेववृत्ति, पृष्ट 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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