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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [201] रुचि होती भी है; तो धनसंग्रह करने की और प्राणियों को दु:ख आत्मा के विकास की स्थिति का कुछ भी ज्ञान नहीं हो सकता। देने की ओर होती है और असत्य, चोरी आदि पाप-कर्मों में प्रवृत्ति गुणस्थानों का संबंध आत्मा से हैं, चित्त से नहीं । अतः इन चित्तवृत्तियों होने की ओर होती है। सारांश यह है कि मूढवृत्तिवालों का जीवन की गुणस्थानों के साथ एक देश से तुलना हो सकती है, पूर्णत: नहीं। अज्ञान में ही व्यतीत होता है। एसी अवस्था अविकसित बुद्धिवाले इनसे इतना संकेत अवश्य मिलता है कि वैदिक दर्शनों में आध्यात्मिक मनुष्यों एवं पशुओं में देखने को मिलती है। उत्क्रान्ति के संबंध में कुछ न कुछ विचार अवश्य किया गया है। 2. क्षिप्त :- इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है। रजोगुण गुणस्थान और बौद्धदर्शन सम्मत अवस्थाएँ :की प्रबलता से चित्त सदैव चंचल रहता है। यह क्षिप्तभूमि दैत्य दानवों की होती है। रजोगुण और तमोगुण का मिश्रण होने पर क्रूरता, यद्यपि सामान्य से बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है; लेकिन उसने कामांधता, लोभ आदि की प्रवृत्तियाँ वृद्धिगत होती हैं और सतोगुण आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया है। उसने आत्मा की का मिश्रण होने पर नैतिक प्रवृत्तियों में मन अनुरक्त रहता है। संसारासक्त संसार व मुक्त आदि अवस्थाएँ मानी हैं। अत: उसमें आत्मा के विकास मानव में इस अवस्था को माना जा सकता है। के संबंध में चिन्तन किया गया हैं और आत्मा के विकास के क्रम 3. विक्षिप्त :- इस अवस्था में सतोगुण प्रधान होता है। रजोगुण का वर्णन किया गया हैं। और तमोगुण दबे हुए और गौण होते हैं। सत्त्व गुण की अधिकता बौद्ध ग्रंथो में स्वरुपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरुप की वृत्ति दु:ख के साधनों को विशेषता से नष्ट करके सुख के साधनों की पराकाष्टा प्राप्त कर लेने की स्थिति का वर्णन हैं। यह वर्णन पाँच में लगी रहती है। वह धार्मिक वृत्ति की ओर उन्मुख होती है; किन्तु प्रकार के विभागों में विभाजित हैं - धर्मानुसारी, सोतापन्न, सकदागामी, रजोगुण के कारण चित्त विक्षिप्त बना रहता है। अनागामी और अरहा । इनमें धर्मानुसारी वह कहलाता है, जो निर्वाणमार्ग 4. एकान:- चित्त का प्रशस्त विषयों में एकाग्र होना, स्थिर रहना के अभिमुख हो; किन्तु अभी तक प्राप्त नहीं हुआ हो। इसे जैन एकाग्र वृत्ति हैं। जब रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव कम हो जाता मान्यता के अनुसार मार्गानुसारी कह सकते हैं। जो आत्मा अविनियत, है; तब चित्त की चंतलता को छोडकर मन किसी एक प्रशस्त विषय पर स्थिर हो जाता है और सदीर्ध काल तक चिन्तन की धारा उसी धर्मिनियत और संबोधि-परायण हो; उसे सोतापन्न कहते हैं । सोतापन्न प्रशस्त विषय पर केन्द्रित रहती है। विचार शक्ति में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता आत्मा सातवें जन्म में अवश्य निर्वाण प्राप्त करती हैं। सकादागामी एवं प्रशस्तता बढती जाती है। किसी वस्तु पर मन के केन्द्रित हो वह है, जो एक ही बार जन्म ग्रहण करके मोक्ष जानेवाला हो। जो जाने से वह वस्तु उसके वशीभूत हो जाती है। इस स्थिति में ही इस लोक में जन्म ग्रहण न करके सीधे ही मोक्ष जाने वाला हो; योग की शक्ति अभिव्यक्त होती है। इस भूमि को संप्रज्ञात योग, वह अनागामी है और जो संपूर्ण-समस्त आस्रवों का क्षय करके कृत सबीज समाधि भी कह सकते हैं। कार्य हो जाता है, उसे अरहा कहते हैं। प्रकारान्तर से इनके नामों 5. निरुद्ध :- चित्त की संपूर्ण वृत्तियों व संस्कारों का जिस अवस्था ___ का उल्लेख इस प्रकार भी देखने को मिलता है। पुथुज्जन, सोतापन्न, में लय हो जाते है; उसे निरुद्ध अवस्था कहते हैं। इस अवस्था सकदागामी औपपातिक और अरहा । पुथुज्जन का अर्थ सामान्य मानव को असंप्रज्ञात या निर्बीज समाधि भी कहते हैं। इसके प्राप्त होने है। इसके दो भेद हैं- अंध पुथुज्जन और कल्याणपुथुज्जन । इन दोनों पर साधक का चित्त के साथ संबंध टूट जाता है और वह अपनी का क्रमशः जैन दर्शन के अनुसार मिथ्यात्व और अविरत सम्यग्दृष्टि शुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है।391 की भूमिका मान सकते हैं140 | चित्त की उक्त पाँच अवस्थाओं में से मूढ और क्षिप्त इन दो अवस्थाओं में रजोगुण और तमोगुण का अत्यधिक प्रकर्ष रहता जैन शास्त्रों में जैसे बंध की कारण कर्म प्रकृतियों का है। साधक निःश्रेयस प्राप्ति के लिए प्रयत्न ही नहीं कर पाता। इन वर्णन है, वैसे ही बौद्ध दर्शन में निम्नलिखित दस संयोजनाएँ अवस्थाओं में आध्यात्मिक विकास के लिए अवकाश ही नहीं रहता। बतायी गयी हैविक्षिप्त अवस्था में जब सतोगुण की अधिकता होती है; तब साधक सक्काय, दिट्ठि, विचिकिच्छा, सीलव्वत पराभास, कामराग, कभी कदाचित् सात्त्विक विषयों में प्रवृत्ति करने का प्रयत्न करता है; परीघ, रुपराग, अरुपरता, मान, उदघच्च और अविज्जा141 | आदि की लेकिन रजोगुण और तमोगुण का भी अस्तित्व रहने से, समाधि में पाँच औद्भागीय और शेष पाँच उड्ढभागीय कही जाती है। चित्त की अस्थिरता रहने से उसे योग की कोटि में स्थान नहीं दिया इनमें से प्रथम तीन संयोजनाओं के क्षय होने पर सोतापन्न जा सकता। एकाग्र एवं निरुद्ध ये दो अवस्थाएँ सतोगुणवाली हैं। अवस्था प्राप्त होती है। पाँच औद्, भागीय संयोजनाओं के नाश होने पर अत: इनके समय में ही जो समाधि होती है; वही योग सहायक औपपातिक अनागामी अवस्था एवं दसों संयोजनाओं का नाश होने पर है और तभी आध्यात्मिक उत्कान्ति का क्रम आरंभ होता है। निरुद्ध अरहा (अरिहंत, सयोगी केवली) अवस्था प्राप्त होती है। यह वर्णन जैन अवस्था के अनन्तर आत्मा की जो स्थिति बनती है, वह मोक्ष है। शास्त्रगत कर्मप्रकृतियों के क्षयक्रम से मिलता जुलता है। गुणस्थानों के साथ यदि इन अवस्थाओं की तुलना की जाये सोतपन्न आदि चार अवस्थाएँ चौथे से लेकर चोदहवें गुणस्थान तो यह कहा जा सकता है कि पहली दो अवस्थाएँ जैनागमोक्त पहले मिथ्यात्व गुणस्थान की सूचक हैं। तीसरी विक्षिप्त अवस्था मिश्र गुणस्थान तक की भूमिकाओं के विचारों की प्रतिरुपक कहला सकती हैं। की सूचक है। चौथी अवस्था में आध्यात्मिक विकास किस क्रम से होता है, यह नहीं बताया गया है। इससे मात्र इतना ही संकेत मिलता है 139. तद्रा द्रष्टुं स्वरुपेऽवस्थानम्। पातंजल योगदर्शन 1/3 10. आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ और पूर्णता, पृ. 69 कि सामान्य चित्त की चार भूमिकाएँ हो सकती हैं। लेकिन इससे 141. मराठी में भाषान्तरित दीधनिकाय, पृष्ठ 175 की टिप्पणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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