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________________ [304]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (दिन के तीसरे पहर के अंत के बाद कमाली-काल आने पर) होने दिया हुआ शेष भोजन करते हैं। प्रतिमापन साधु दिन के तृतीय प्रहर पर वहीं ठहरना पड़ता है, एक कदम भी आगे नहीं जा सकते। में गोचरी (आहार ग्रहण करने) हेतु जाते हैं। मार्ग में वधादि उपसर्ग होने पर एक कदम भी आगे-पीछे नहीं जा इस प्रकार प्रतिमाधारी साधु उचितकाल में विधिपूर्वक सकते, दौड नहीं सकते, सहसा पेड के कोटर में या खंडहरादि में प्रतिमा धारण करके प्रमादरहित-जागृत रहकर, उपयोगपूर्वक पारणां छिप नहीं सकते 12 के दिन गुर्वादि द्वारा दिया हुआ शेष भोजन करके, दोषों का शुद्धिकरण शरीर-सुश्रूषा : करके, पारणा के दिन तप एवं प्रतिमा की अनुमोदनापूर्वक उसे सामान्यतया प्रतिमाधारी साधु शरीर-सुश्रुषा नहीं करते परंतु पूर्ण करता है।18 आँख में धूल आदि गिर जाय/भरा जाय तो पानी से निकाल सकते काल :हैं। वे ज्वरादि में चिकित्सा नहीं करवा सकते परन्तु सर्पदंश आदि प्रतिमा वहन करने के इच्छुक साधु वर्षाकाल को छोडकर में चिकित्सा करवा सकते हैं। 3 शेष समय में प्रथम दो प्रतिमा - एक ही वर्ष में, तीसरी और चौथी भाषा : प्रतिमा - एक ही वर्ष में पाँचवीं, छट्ठी और सातवीं - इसके बादवाले प्रतिमाधारी साधु को निम्नाङ्कित चार प्रकार की भाषा बोलना कल्प्य वर्षों में, इस प्रकार कुल 9 वर्षों में प्रथम सात प्रतिमा धारण कर सकते हैं। शेष पाँच प्रतिमाएँ यथा समय इसके बाद के वर्षों में (1) याचनी - कोई भी वस्तु विशेष मुझे दो - एसी कर सकता है। पृच्छनी - मार्ग या संदिग्ध अर्थ के बारे में उसके स्थान :ज्ञाता को पूछना। प्रतिमापन्न साधु को उपसर्गसहन एवं आत्मा के धैर्यबल अनुज्ञापनी - मल-प्रसवणादि त्याग करने हेतु अनुज्ञा की परीक्षा हेतु प्रथम प्रतिमा में उपाश्रय में, दूसरी में उपाश्रय से लेना या तृण, पत्थर, भस्म, वसति, पाट, पटिया आदि बाहर, तीसरी में चौराहे पर, चौथी में शून्य स्थान में और पाँचवीं उपयोग करने की आज्ञा लेना। प्रतिमा में श्मशान में रहना चाहिए। अर्थात् उन स्थानों पर रहकर पुष्टस्य व्याकरणी - तुम कौन हो ? कहाँ से आये? कायोत्सर्ग-ध्यान आदि करना चाहिए।20 कहाँ जाओगे? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर देनेरुप भाषा बोलना योग्य है। उपधि : 12. वही पृ. 1574 13. अ.रा.पृ. 5/1578 प्रतिमापन्न साधु काष्ठपात्र एवं कपास के वस्त्रादि रुप आवश्यक 14. वही पृ. 5/1573 उपधि स्व-लब्धि से, स्वयं के पुरुषार्थ से, स्वयं एषणा करके 15. वही पृ. 5/1577 दोष रहित प्राप्त करके उपयोग करते हैं।15 16. अ.रा.पृ. 5/1577 आहार : 17. .....तथाऽयमपि भगवान् श्रद्धाऽऽदिष्वमूच्छितः तृतीयपौरुष्टमटति। - वही प्रतिमापन्न साधु स्वलब्धि से, स्व-पुरुषार्थ से गवेषणा पृ. 5/1572 18. अ.रा.भा. 5/1575 ग्रहणेषणा एवं ग्रासेषणापूर्वक 42 दोष रहित अलेपकृत (घी-तेल आदि 19. वही से रहित) वाल-चणादि का आहार प्राप्त कर उपयोगपूर्वक, गुर्वादि द्वारा 20. अ.रा.पृ.5/1576 | सत्पुष्पाणि अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसङ्गता । गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥ एभिर्देवाधिदेवाय, बहुमानपुरस्सरा । दीयते पालनाद् या तु, सा वै शुद्धेत्युदाहृता ॥2॥ प्रशस्तो ह्यनया भाव - स्ततः कर्मक्षयो ध्रुवः । कर्मक्षयाच्च निर्वाण - मत एषा सतां मता ॥3॥ -अ.रा.पृ. 1/249 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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