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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [303]
द्वादश भिक्षु प्रतिमा
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'भिक्षु प्रतिमा' को उपधान तप प्रतिमा के अन्तर्गत बताया है। जो यमनियमादिपूर्वक जीवन यापन करते हों, करण-करावण-अनुमोदनरुप पापव्यापार के त्यागी हों, चतुर्गतिरुप संसार में अष्ट कर्मों का सर्वथा भक्षण (नाश) करना चाहते हों, ज्ञान-दर्शन-चारित्र द्वारा आत्मा से कर्मों का भेदन करना चाहते हों, आरम्भ-त्यागी हों, धर्मपालन हेतु शरीर को टीकाने के लिये भिक्षा ग्रहण करते हों, पचन-पाचनादि सावद्य अनुष्ठान रहित निर्दोष आहार का भोजन करते हों उन्हें जैनागमों में 'भिक्षु' या 'साधु' कहते हैं और उनके समयानुसार विशिष्ट नियमग्रहणरुप अभिग्रह विशेष को 'भिक्षुप्रतिमा' कहते हैं।
जैन साधु अपने साधना काल में विशिष्ट प्रकार के अभिग्रह धारण करके उसका स्वच्छा से पालन करते हैं। उद्गम-उत्पादन और एषणा दोष से रहित भिक्षा ग्रहण करनेवाले साधु की ये प्रतिज्ञाएँ जैनागमों में 12 प्रकार से वर्णित हैं, उसे 'बारह भिक्खुपडिमा' कहते हैं।
1-7. मासिकी प्रतिमा आदि सात प्रतिमाएँ - एक महीने तक
भोजन में अलेप शुद्ध आहार-पानी की एक दत्ती लेना मासिकी भिक्षु प्रतिमा कहलाती है। दो माह तक भोजन में शुद्ध आहार-पानी की दो दत्ती लेना द्विमासिक भिक्षु प्रतिमा कहलाती है। इसी प्रकार तीन, चार, पाँच, छ: तथा सात महिना तक क्रमश: शुद्ध अलेप आहार-पानी की क्रमशः तीन, चार, पाँच, छ: और सात दत्ती भोजन में ग्रहण करना क्रमश: त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पाञ्चामासिकी, पाण्मासिकी और
साप्तमासिकी "भिक्षु प्रतिमा' कहलाती है। 8-9-10.सप्ताहोरात्रमाना प्रतिमा - सात सात अहोरात्र अर्थात् दिन
रात पर्यन्त चौविहार, सोलह भत्त (भक्त) (सात उपवास और आगे-पीछे एकासना) का प्रत्याख्यान लेकर, गाँव के बाहर जाकर क्रमशः उत्तानासन, उत्कटिक, दण्डासन और गोदुहिकासन या वीरासन से कायोत्सर्ग कर उपसर्ग सहन करना क्रमशः
8वी, 9वीं और 10वीं भिक्षुप्रतिमा है। 11. एक अहोरात्रिकी प्रतिमा - चोविहार छ? तप (दो उपवास
और आगे-पीछे एकासना) करके एक अहोरात्रि पर्यन्त गाँव के बाह्य प्रदेश में जिनमुद्रापूर्वक कायोत्सर्ग में रहकर उपसर्ग सहन करना - भिक्षु की ग्यारहवीं प्रतिमां है।' एकारात्रिकी प्रतिमा - चोविहार अट्ठम (तीन उपवास और आगे पीछे एकासना) तप करके एक रात्रि पर्यन्त ईषद्प्राग्भारशिला (सिद्धशिला) की ओर एकाग्र ऊर्ध्वदृष्टि रखकर कायोत्सर्ग में
उपसर्ग सहना - भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा है। प्रतिमा वहन हेतु योग्यता :
राजेन्द्र कोश के अनुसार इन द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं को वहन करने की इच्छावाले भिक्षु में निम्न योग्यता होना आवश्यक माना है(1) कायोत्सर्ग सहन करने योग्य शरीर-संहनन बल
धैर्यादि दृढ मानस बल अदीनभाव तीव्रतापूर्वक वर्द्धमान विशुद्ध भाव बल उपसर्ग संबंधी स्थितियाँ और स्वरुप का ज्ञान
गुरु, आचार्य की अनुज्ञा/अनुमति (7) नौंवे प्रत्याख्यान पूर्व को आचार नामक तृतीय वस्तु
तक के श्रुतज्ञान का अध्ययन एवं उससे अधिक संपूर्ण 10 पूर्व पढने की शक्ति न हों। गच्छ में साधुगण बाधारहित हों, आचार्यादि का सद्भाव हो, उन्हें किसी प्रकार की प्रतिकूलता न हो, बालवृद्ध स्थविरादि साधु तकलीफ में न हों, उन सब की वैयावृत्त्य की समुचित व्यवस्था हो, स्वयं के पास प्रतिमा-वहन के काल में कोई दीक्षा लेनेवाला न हो, वही साधु गुर्वाज्ञापूर्वक ये प्रतिमाएं वहन कर
सकता है। प्रतिमाधारी साध की दिनचर्या के नियम :निवासस्थान :
जहाँ किसी गृहस्थ को पता चल जाये कि, 'यह प्रतिमाचारी साधु है' वहाँ प्रतिमाचारी साधु एक रात्रि और जहाँ न जानते हों वहाँ एक या दो रात्रि अवस्थान कर सकता है, इससे अधिक नहीं । यदि कोई प्रतिमाधारी साधु अधिक रहे तो छेद या परिहार प्रायश्चित का पात्र बनता है। विहार करके अन्यत्र जाकर वापिस आकर वहाँ रह सकता है।
प्रतिमाधारी साधु स्त्री-पुरुष, तिर्यंच, अग्नि आदि से रहित शुद्ध उपाश्रय / वसति, बगीचा या वृक्ष के नीचे, वृक्ष के पासवाले प्रदेश में पृथ्वी शिला पर, काष्ठ-शिला पर, पर्वत के नीचे, गुफा में रहना कल्पता है।" विहार :
प्रतिमाधारी साधु को गाँव में एक या दो रात्रि ठहरते हुए मार्ग में विहार करते हुए रास्ते में सूर्यास्त के पहले जलाजल समय
1. अ.रा.भा. 5/332; 'पडिमा' शब्द 2. अ.रा.भा. 5/1560; "भिक्खु' शब्द 3. वही पृ. 1571, "भिक्खू पडिमा' शब्द 4. वही 5. अ.रा.भा. 5/1572, 1575 ; "भिक्खु पडिमा' शब्द 6. वही पृ. 1576 7. वही 8. वही - 1575,76 9. अ.रा.भा. 5/1576, 77, 783 10. अ.रा.भा. 5/1573, 1. वही पृ. 1572, 73
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