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________________ [302]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं तथा तीसरे अदत्तादान व्रत में अपरिगृहीत स्त्री भोग का प्रत्याख्यान में रहे; परन्तु अन्य दिनों में एक महीने से उपरान्त रहें तो अनेक जानते हैं। याने कि वे स्त्री को परिग्रह रुप मान कर पाँचवें परिग्रह दोषों का संभव होता है। जैसे कि गृहस्थ के साथ प्रीतिबंध होता व्रत के साथ ही लेते है; क्योंकि जहाँ स्त्री है, वहाँ परिग्रह है। है, लघुता प्राप्त होती है, लोकोपकार नहीं कर सकता, देश-विदेश इसलिए बाईस तीर्थंकर के साधु के लिए चौथा मैथुन विरमण व्रत की जानकारी नहीं होती तथा ज्ञान की आराधना नहीं होती। इसलिए छोड कर चार महाव्रत जानना । अथवा श्री ऋषभदेव और श्री महावीर एक मास से अधिक रहने की साधु को आज्ञा नहीं होती। कदाचित् के तीर्थ में रात्रि भोजन विरमण व्रत मूल गुण में गिना जाता है। दुर्भिक्षादिक के कारण से रहना पडे अथवा विहार करने में असमर्थ इस कारण से रात्रिभोजनविरमण व्रत के साथ गिनें, तो साधु के छह हो; तो उपाश्रय पलटे, मोहल्ला पलटे, घर पलटे और कुछ भी न व्रत होते हैं और बाईस जिन के तीर्थ में तो रात्रिभोजनविरमण व्रत । हो सके तो संथारा-भूमि पलटकर भाव से भी मासकल्प करे। को उत्तर गुण में गिनते हैं, इसलिए चार ही व्रत कहे जाते हैं। और मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधु तो विहार करने (7) ज्येष्ठ कल्प : में सामर्थ्यवान हों तो भी वे ऋजु और पंडित हैं; इसलिए उनके कालापेक्षया बडा होना ज्येष्ठता है। इसमें श्री ऋषभदेव लिए मासकल्प का कोई नियम नहीं है। यदि दोष न लगे और और महावीर के साधुओं को तो बडी दीक्षा देने के बाद छोटा बडा लाभ जानें तो कुछ कम पूर्वकोडि वर्ष तक भी वे एक ही क्षेत्र गिना जाता है; इसलिए जिसने बडी दीक्षा पहले ली हो, वह बडा में एक ही स्थान में रहे इसलिए यह अनियत कल्प है। गिना जाता है और जिसने छोटी दीक्षा पहले ली हो, वह बडी दीक्षा (10) पर्युषण कल्प :बाद में ले तो वह आगेवालों के अपेक्षा से लघु गिना जाता है। किसी एक स्थान पर रहने को पर्युषण कहते हैं। पर्युषण किन्तु बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए तो यह मर्यादा नहीं है; दो प्रकार के हैं। क्योंकि वे सब प्रवीण होते हैं। इस कारण से तुरन्त ही पढ लेते (1) जिसे गृहस्थ जानता है, वह भाद्रपद सुदी पंचमी से हैं। इसलिए वे दीक्षा के दिन से ही छोटे और बडे गिने जाते हैं। लेकर कार्तिक सुदी पूनम तक रहना है और (2) जिसे गृहस्थ नहीं (8) प्रतिक्रमण कल्प : जानता वह आषाढ सुदी पूनम से ले कर भाद्रपद सुदी पंचमी तक आवश्यक का करना प्रतिक्रमण कल्प है। इसमें प्रथम और रहना समझना चाहिए। वह जघन्य से सत्तर (70) दिन और उत्कृष्ट चरम जिन के समय में तो साधु को अतिचार दोष लगे या न लगे, से छह महीने के पर्युषण जानना। यह कल्प श्री ऋषभदेव और तो भी दैवसिकादिक पाँचों प्रतिक्रमण करना आवश्यक है और बाईस श्री महावीर के साधुओं के लिए निश्चय से समझना और बाईस तीर्थंकरों तीर्थंकरों के साधु तो यदि पाप लगा है, एसा जानें तो ही दैवसिक के साधुओं के लिए निश्चय से नहीं। अथवा रात्रिक प्रतिक्रमण शाम को अथवा सुबह करते हैं और पाप इस तरह दस कल्प कहे गये हैं। ये दसों कल्प श्री लगा है, एसा न जानें तो नहीं भी करते। शेष पाक्षिक, चौमासी ऋषभदेव तथा श्री महावीर स्वामी के साधुओं के लिए निश्चय और सांवत्सरिक ये तीनों प्रतिक्रमण तो बाईस जिनेश्वरों के समय से जानना। तथा मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए में होते ही नहीं है। इस तरह यह भी अनियत कल्प है। तो एक शय्यातर, दूसरा चार महाव्रत, तीसरा ज्येष्ठ और चौथा कृतिकर्म (9) मासकल्प : याने वंदना ये चार कल्प निश्चय से होते हैं और शेष दस कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधु एक गाँव में एक मास अनियत होते हैं। तक रहें, उपरान्त न रहें। चातुर्मास के चार महीनों तक एक गाँव पुण्यं पुण्यानुबन्धयदः शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः । यत्प्रभावादपातिन्यो,जायन्ते सर्वसंपदः॥1॥ सदागमविशुद्धेन, क्रियते तच्च चेतसा एतच्च ज्ञानवृद्धेभ्यो, जायते नान्यतः क्वचित् ।।2।। चित्तरत्नमसंक्लिष्ट - मान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषितं दोषै - स्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥3॥ प्रकृत्या मार्गगामित्वं, सदपि व्यज्यते ध्रुवम् । ज्ञानवृद्धप्रसादेन, वृद्धि चाऽऽप्नोत्यनुत्तराम्॥4॥ दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद् गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥5॥ - अ.रा.पृ. 5/992-993 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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